यहां लोटा-नमक के रूप में कायम है जुबानी संकल्प निभाने की परंपरा
उत्तराखंड के जनजाति बहुल क्षेत्र जौनसार-बावर में जुबानी संकल्प को निभाने की परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी कायम है। चुनाव के मौकों पर तो लोटा-नमक का अपना अलग ही महत्व है।
देहरादून, चंदराम राजगुरु। आमतौर पर देखने में आता है कि लोग अदालत में किए गए रजिस्टर्ड एग्रीमेंट से भी मुकर जाते हैं। वहीं, उत्तराखंड के जनजाति बहुल क्षेत्र जौनसार-बावर में जुबानी संकल्प को निभाने की परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी कायम है।
टिहरी गढ़वाल संसदीय सीट के अंतर्गत आने वाले इस क्षेत्र में खास मौकों पर विश्वास बहाली के लिए जुबानी संकल्प 'लोटा-नमक' की परंपरा विशेष महत्व रखती है। यहां लोग अगर किसी को वचन दे देते हैं तो उसे पूरे विश्वास और ईमानदारी के साथ निभाते भी हैं। खासकर चुनाव के मौकों पर तो लोटा-नमक का अपना अलग ही महत्व है।
श्री रामचरितमानस के अयोध्या कांड में एक चौपाई है, 'रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन ना जाई।' ठीक ऐसी ही है देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर में अटूट विश्वास के जुबानी संकल्प 'लोटा-नमक' की परंपरा है।
बात चाहे चुनावी समर की हो या फिर कोई अन्य खास मौका, दुविधा व संदेह की स्थिति में विश्वास बहाली के लिए जनजातीय समाज पीढ़ियों से इस परंपरा का निर्वाह करता आ रहा है। महत्वपूर्ण बात यह कि इस जुबानी संकल्प को तोडऩे की धृष्टता कभी किसी ने नहीं की।
लोटा-नमक के दौरान संकल्प लेने वाला व्यक्ति जौनसार-बावर के कुल देवता महासू महाराज को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा लेता है- मैं जो वचन दे रहा हूं, उस पर प्राण-प्रण से अटल रहूंगा। वचन तोड़ने की हिमाकत करने पर मेरा व मेरे परिवार का अस्तित्व ठीक उसी तरह समाप्त हो जाएगा, जैसे पानी से भरे लोटे में नमक का हो जाता है।
क्षेत्र में लोटा-नमक का प्रचलन किसी विवाद के दौरान एक-दूसरे पर लगे आरोपों की सत्यता परखने, मतभेद भुलाकर संगठित रहने, चुनाव में वोट देने और किसी भी प्रकार का वचन देने पर उसका अनिवार्य रूप से पालन करने के लिए रहा है। इस परंपरा को आधुनिक समाज ने भी उसी तरह स्वीकार किया है, जैसे उसकी पुरानी पीढ़ियां करती रही हैं।
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