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जीवन में हरेला का है अधिक महत्‍व, इससे घर में आती है खुशहाली

जीवन में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला को अधिक महत्व दिया गया है। हरेला श्रावण शुरू होने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और 10 दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Mon, 16 Jul 2018 01:29 PM (IST)Updated: Wed, 18 Jul 2018 05:22 PM (IST)
जीवन में हरेला का है अधिक महत्‍व, इससे घर में आती है खुशहाली

देहरादून, [दिनेश कुकरेती]: हरेला (हरियाली) उत्तराखंड के परिवेश और खेती से जुड़ा पर्व है, जो वर्ष में तीन बार चैत्र, श्रावण और आश्विन मास में मनाया जाता है। हालांकि, लोक जीवन में श्रावण (सावन) मास में पड़ने वाले हरेला को ही अधिक महत्व दिया गया है। क्योंकि, यह महीना महादेव को विशेष प्रिय है। श्रावण का हरेला श्रावण शुरू होने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है। इस बार श्रावण (16 जुलाई) से शुरू हो रहा है।

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हरेले का पर्व न सिर्फ नई ऋतु के शुभागमन की सूचना देता है, बल्कि प्रकृति के संरक्षण को भी प्रेरित करता है। इसीलिए देवभूमि उत्तराखंड में हरेला पर्व लोकजीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया। अब तो इसी दिन से पौधरोपण अभियान शुरू करने करने की परंपरा भी शुरू हो गई है। धार्मिक दृष्टि से देखें तो उत्तराखंड को महादेव का वास और ससुराल दोनों माना गया है। सो, हरेला पर्व का महत्व भी इस क्षेत्र के लिए खास है। कुमाऊं में तो हरेला लोकजीवन का महत्वपूर्ण उत्सव है।  

सतनाजा की हरियाली है हरेला

हरेला से नौ दिन पूर्व घर के भीतर स्थित देवालय अथवा गांव के मंदिर में सात प्रकार के अनाज (जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट) को रिंगाल की टोकरी में बोया जाता है। इसे सतनाजा भी कहते हैं। इसकेलिए टोकरी में मिट्टी की परत बिछाकर उसमें बीज डाले जाते हैं। यही प्रक्रिया पांच से छह बार अपनाई जाती है। टोकरी को सूर्य की सीधी रोशनी से बचाकर रखा जाता है। नवें दिन इनकी पाती (एक स्थानीय वृक्ष) की टहनी से गुड़ाई की जाती है और दसवें यानी हरेले के दिन इसे काटकर तिलक-चंदन-अक्षत से अभिमंत्रित कर देवता को अर्पित किया जाता है। घर की बुजुर्ग महिलाएं सभी सदस्यों को हरेला लगाती हैं। यानी हरेला सबसे पहले पैर, फिर घुटने व कंधे और अंत में सिर पर रखा जाता है। 

डाक से भेजने की भी है परंपरा

पूजन के उपरांत परिवार के सभी लोग साथ बैठकर पकवानों का आनंद उठाते हैं। कुमाऊं में तो इस दिन विशेष रूप से उड़द की दाल के बड़े, पुये, खीर आदि बनाने का रिवाज है। घर के सभी सदस्यों को हरेला लगाया जाता है, जबकि देश-परदेश में रह रहे परिजनों की खुशहाली के लिए हरेला को अक्षत-चंदन-पिठ्यां (अक्षत, चंदन व पिठाई) के साथ डाक से भेजने की परंपरा है।

सुख, समृद्धि एवं शांति का पर्व

हरेला सुख, समृद्धि एवं शांति के लिए बोया और काटा जाता है। इसके पीछे भाव यही है कि इस साल फसलों को कोई नुकसान ना हो। हरेले के साथ यह मान्यता भी जुड़ी है कि जिसका हरेला जितना बडा होगा, उसे खेती से उतना ही लाभ होगा।

देवता के थान में बोते हैं हरेला

यूं तो हरेला घर-घर में बोया जाता है, लेकिन किसी-किसी गांव में इस पर्व को सामूहिक रूप से ग्राम देवता के थान में मनाने का भी रिवाज है। मंदिर का पुजारी सभी को आशीर्वाद स्वरूप हरेले के तिनके प्रदान करता है। 

उत्तराखंड का वृक्षारोपण पर्व

उत्तराखंड में हरेला को 'वृक्षारोपण पर्व' के रूप में भी मनाया जाता है। हरेला पर्व पर घर में पूजा के उपरांत एक-एक पौधा अनिवार्य रूप से लगाए जाने की भी परंपरा है। लोक मान्यता है कि हरेला पर्व पर यदि किसी भी पेड़ की टहनी को मिट्टी में रोपित कर दिया जाए तो पांच दिन बाद उसमें जड़ें निकल आती हैं और यह पेड़ हमेशा जीवित रहता है।

सौ से अधिक पौधे रोपे

चंपावत में हरेला पर्व के अवसर पर तहसील परिसर में उप जिलाधिकारी सदर सीमा विश्वकर्मा व तहसीलदार गोविंद प्रसाद के नेतृत्व में सभी कर्मचारियों ने तेज पत्ते व नींबू के 100 से अधिक पौधे रोपे। इस दौरान कर्मचारियों ने इन पौधों को बचाने व पर्यावरण को हर भरा रखने का संकल्प भी लिया।

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