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धरती और आकाश के विवाह का प्रतीक है हरेला पर्व

कुमाऊं में धूमधाम से मनाया जाने वाला हरेला पर्व धरती और आकाश के विवाह का प्रतीक भी है। कत्यूर घाटी के गांवों में आज भी यह परंपरा जीवित है।

By BhanuEdited By: Published: Mon, 16 Jul 2018 11:43 AM (IST)Updated: Fri, 20 Jul 2018 05:20 PM (IST)
धरती और आकाश के विवाह का प्रतीक है हरेला पर्व
धरती और आकाश के विवाह का प्रतीक है हरेला पर्व

बागेश्वर, [चंद्रशेखर बड़सीला]: कुमाऊं में धूमधाम से मनाया जाने वाला हरेला पर्व धरती और आकाश के विवाह का प्रतीक भी है। बरसात में जब प्रकृति में चारों ओर हरियाली छा जाती है और प्रकृति दुल्हन की तरह श्रृंगार करने लगती है, तब हरेला पर्व मनाया जाता है। इस दिन धरती का आकाश से विवाह किया जाता है। रीति-रिवाजों और संस्कृति से जुड़ा कुमाऊं का यह त्यौहार प्राचीनकाल से ही पर्यावरण संरक्षण की परंपरा निभाता आ रहा है।

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वर्तमान में भले ही हरेले के पर्व पर व्यापक रुप में सरकारी स्तर पर पौधरोपण कार्यक्रम आयोजित किया जाने लगा है, परंतु प्राचीनकाल से ही पहाड़ के अधिकांश गांवों में मेहल (वानस्पतिक नाम पायरस पाशिया) की टहनियां रोपने की परंपरा रही है। 

कत्यूर घाटी के गांवों में आज भी यह परंपरा जीवित है। खेतों की जुताई करने वाले हलिए इस परंपरा को बखूबी निभाते चले आ रहे हैं। हलिए इस दिन मेहल के बड़े पेड़ से टहनियां तोड़ कर लाते हैं और अपने और अपने गुसैं (मालिक) के खेतों में रोपते हैं। हलिए खेतों में चारों ओर से मेहल की टहनियां रोपकर मंडप तैयार करते हैं। 

साहित्यकार डॉ. हेम चंद्र दुबे बताते हैं कि मेहल की टहनियों के मंडप के बीच ही धरती और आकाश का विवाह होता है। ऐसी लोक मान्यता सदियों से चली आ रही है। मंडप के बदले में हलियों को धान और पकवान दिए जाते हैं। मेहल की टहनियां बारिश के कारण कुछ दिनों बाद जड़ पकड़ लेती हैं। धीरे-धीरे ये टहनियां पेड़ बन जाती हैं। 

परंपरा की ही देन है गोला नाशपाती

कत्यूर घाटी का फलोत्पादन में भी कोई सानी नहीं है। नाशपाती के उत्पादन में यह घाटी काफी समृद्ध रही है। हरेले के पर्व पर मेहल की टहनियां रोपने की परंपरा की ही देन है कि यहां नाशपाती बहुतायत में होता है। मेहल के पेड़ों में काश्तकार नाशपाती की कलम चढ़ा देते हैं। धीरे-धीरे यह नाशपाती का विशालकाय पेड़ बन जाता है। 

रक्षा बंधन की तरह मनाया जाता है कुमाऊं में हरेला

लाग हरयाव, लाग बग्वाल, जी रया, जागी रया, यो दिन यो मास भेटने रया... इस आशीर्वचन के साथ कुमाऊं अंचल में हरेला का महत्व आज भी बरकरार है। यह पर्यावरण संरक्षण के साथ ही रिश्तों की पवित्रता का संदेश देता है। रक्षाबंधन की तरह इस पर्व पर बहनें मायके आकर भाई समेत परिवारजनों का हरेला से पूजन करती हैं।

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