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पृथ्वी पर जीवन के आधार ग्लेशियरों की सेहत जलवायु परिवर्तन से नासाज, पढ़िए पूरी खबर

पृथ्वी पर जीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले ग्लेशियर उच्च हिमालयी क्षेत्रों में जितने दूर हैं उतनी ही दूर है इनके संरक्षण की कवायद। यही कारण है कि समय के साथ हो रहे जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियरों की सेहत भी नासाज हो रही है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Thu, 22 Apr 2021 07:38 AM (IST)Updated: Thu, 22 Apr 2021 07:38 AM (IST)
जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियरों की सेहत भी नासाज हो रही है।

सुमन सेमवाल, देहरादून। ग्लेशियर हमारी सभ्यता का आधार हैं। इन्हीं की बदौलत हमारी नदियों में पानी की निरंतरता रहती है और जीवन फूलता-फलता है। पृथ्वी पर जीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले ग्लेशियर उच्च हिमालयी क्षेत्रों में जितने दूर हैं, उतनी ही दूर है इनके संरक्षण की कवायद। यही कारण है कि समय के साथ हो रहे जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियरों की सेहत भी नासाज हो रही है। इसी का परिणाम है वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा और इसी वर्ष फरवरी में ऋषिगंगा कैचमेंट (जलग्रहण क्षेत्र) से निकली तबाही। ऐसी आपदाओं के बाद उनके कारणों का विश्लेषण तो किया जाता है, मगर ग्लेशियरों की सतत रूप से मॉनीटरिंग नहीं की जाती।

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उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन की उपस्थिति भविष्य के खतरे का संकेत है। जिस कारण तमाम ग्लेशियर सामान्य से अधिक दर से पिघल रहे हैं। अगर समय रहते इन संकेतों को समझकर नियंत्रण के प्रयास नहीं किए गए तो भविष्य में पृथ्वी को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान की रिपोर्ट बताती है कि 3600 से 3800 मीटर या इससे अधिक की ऊंचाई पर भी बेहद हानिकारक ब्लैक कार्बन (एयरोसोल) की उपस्थिति पाई गई है। जंगलों में आग लगने के दौरान (अप्रैल से जून तक) ब्लैक कार्बन की मात्रा गंगोत्री ग्लेशियर क्षेत्र में 4.62 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर तक पाई गई है। अक्टूबर-नवंबर में जब देश में पराली जलाई जाती है, तब ग्लेशियर में ब्लैक कार्बन की स्थिति दो माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से अधिक पहुंच रही है। हालांकि, शेष समय जब बाहरी क्षेत्र की हवाओं का अधिक रुख ग्लेशियर की तरफ नहीं होता, तब प्रदूषण की स्थिति बेहद कम 0.01 से लेकर 0.09 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर के बीच पाई जा रही है।

ग्लेशियरों की मॉनीटरिंग की स्थिति

उत्तराखंड और इससे लगे हिमालयी क्षेत्र में नौ हजार से अधिक छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं। इनमें कितनी ग्लेशियर झीलें हैं, इसका अभी ठीक से आकलन नहीं हो पाया है। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा और अब ऋषिगंगा कैचमेंट क्षेत्र से निकली तबाही भी ग्लेशियरों की अनदेखी की देन है। इसके बाद भी सिर्फ सात ग्लेशियरों पर ही अध्ययन किया जा रहा है और केंद्रीय संस्थान के रूप में यह जिम्मेदारी वाडिया हिमालय भूविज्ञान के पास है। कुछ समय पहले वाडिया संस्थान ने जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश के कुछ ग्लेशियरों की मॉनीटङ्क्षरग की तैयारी शुरू की थी, मगर अब यह कवायद ठंडे बस्ते में दिख रही है। वजह यह है कि जिस सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी प्रोजेक्ट के तहत यह कवायद की जा रही थी, उसे बीते साल बंद किया जा चुका है।

इन ग्लेशियरों की ही निरंतर मॉनिटरिंग

  • उत्तराखंड में
  • चौराबाड़ी व डुकरानी की वर्ष 2003 से
  • गंगोत्री, पिंडारी, दूनागिरी, काफनी की वर्ष 2014 से
  • लद्दाख में
  • पैनिंग-सुला की वर्ष 2016 से

ग्लेशियरों पर ध्यान देते तो ऋषिगंगा की तबाही रोकी जा सकती थी

ऋषिगंगा नदी से जो जलप्रलय निकली, उसके संकेत करीब 37 साल पहले से मिलने लगे थे। भूविज्ञानी (वर्तमान में यूसैक निदेशक) डॉ. एमपीएस बिष्ट और वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान ने अपने एक शोध में स्पष्ट कर दिया था कि ऋषिगंगा कैचमेंट के आठ से अधिक ग्लेशियर सामान्य से अधिक रफ्तार से पिघल रहे हैं। जाहिर है कि इनसे अधिक जलप्रवाह होगा और एवलांच (हिमखंड टूटना) की घटनाएं भी अधिक होंगी। इन ग्लेशियरों के पानी का दबाव भी अकेले ऋषिगंगा नदी पर पड़ता है, जो आगे जाकर धौलीगंगा, विष्णुगंगा, अलकनंदा, भागीरथी (गंगा) के पानी को प्रभावित करता है। ताजा घटनाक्रम के अनुसार ऋषिगंगा कैचमेंट के ग्लेशियर से निकले एवलांच से ऋषिगंगा नदी के पानी का बहाव थमा। उससे झील बनी और इस झील के अचानक टूटने से जलप्रलय आई। अगर समय रहते विज्ञानियों के संकेतों पर अमल किया जाता तो इन नदियों पर जो बांध बने या बन रहे हैं, उनकी सुरक्षा और मानव क्षति को रोकने के लिए भरसक प्रयास संभव हो पाते।

ग्लेशियरों के आकार में आई कमी

  • ग्लेशियर, वर्ग किमी, फीसद
  • चंगबंग, 1.9, 24.20
  • रामणी, 4.67, 20.58
  • बर्थारतोली, 2.97, 14.07
  • उत्तरी नंदा देवी, 7.7, 10.78
  • दक्षिणी नंदा देवी, 1.69, 10.23
  • रौंथी, 1.8, 9.35
  • दक्षिणी ऋषि बैंक, 2.85, 7.95
  • त्रिशूल, 1.82, 3.76

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