Coronavirus Effect: इस बार आयोजित नहीं होगा वीर शहीद केसरीचंद मेला, जानिए इस मेले का इतिहास
रविवार को आयोजित होने वाले वीर शहीद केसरीचंद मेला आयोजन को भी समिति की ओर से स्थगित कर दिया गया।
साहिया(देहरादून), भगत सिंह तोमर। जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर की पहचान विरासत में मिली लोक परंपरा से जुड़ी संस्कृति से है, लेकिन इस वर्ष पर्व-त्योहार पर होने वाले विभिन्न आयोजनों पर कोरोना महामारी का ग्रहण लग गया। लॉकडाउन के चलते विभिन्न अवसरों पर आयोजित होने वाले मेले पूरी तरह स्थगित कर दिए गए। इसमें प्रसिद्ध बिस्सू मेले के आयोजन से लेकर कई अन्य त्योहार पूरी तरह इस महामारी से प्रभावित हुए। इसी क्रम में रविवार को आयोजित होने वाले वीर शहीद केसरीचंद मेला आयोजन को भी समिति की ओर से स्थगित कर दिया गया।
जनजातीय क्षेत्र में पर्व और त्योहार का अपना एक खास महत्व होता है, बावजूद इसके महामारी से निपटने को आयोजकों ने अपने कदम रोक लिए। वर्ष 1986 से प्रत्येक वर्ष तीन मई को शहीद केसरीचंद की पुण्यतिथि पर चकराता के रामताल गार्डन में मेले का आयोजन किया जाता है। शहीद की याद में लगने वाला मेला इस बार समिति ने स्थगित कर दिया। देश के खातिर अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीर शहीद को तीन मई 1945 के दिन फांसी दी गई थी।
मेले में हजारों लोगों की भीड़ जुटकर शहीद को श्रद्धांजलि देती है और देश प्रेम से ओत-प्रोत भावनाओं के साथ विविध आयोजन भी होते हैं। शहीद स्मारक समिति के अध्यक्ष संजीव चौहान, सचिव रमेश सिंह, प्रशांत जोशी, राजेंद्र सिंह तोमर, दिनेश शर्मा, अनुपम तोमर आदि ने बताया कि कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने को मेला स्थगित कर दिया है।
मेले से मिलती है युवाओं को प्रेरणा
जंग-ए-आजादी में वीर शहीद केसरी चंद की शहादत ने अपना अहम योगदान दिया। जिन्होंने देश की खातिर अग्रेंजी हकूमत से लड़ते हुए फांसी का फंदा चूम लिया, उनकी याद में आयोजित मेला युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है। जौनसार बावर क्षेत्र के क्यावा गांव में एक नवंबर 1920 को एक साधारण से परिवार में जन्मे वीर शहीद की माता छह साल की उम्र में परलोक चली गईं। पिता शिवदत्त ने केसरीचंद को स्थानीय हाई स्कूल में शिक्षा दिलाई।
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आगे की पढ़ाई के लिए केसरीचंद देहरादून के डीएबी इंटर कॉलेज पहुंच गए, लेकिन 10 अप्रैल 1941 को बीच में ही पढ़ाई छोड़कर वह रॉयल इंडिया आर्मी सर्विस कोर में नायब सूबेदार के पद पर भर्ती हो गए। इन्हीं दिनों नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के आह्वान पर आजाद सिंद फौज का गठन हुआ, जिसमें देश को आजाद कराने का सपना लिए केसरीचंद भी आजादी के दीवानों की टोली में शामिल हो गए। वर्ष 1944 में आजाद हिंद फौज वर्मा भारत सीमा से होते हुए मणिपुर की राजधानी इंफाल पंहुची, जहां 28 जून 1944 को अग्रेंजों ने युद्ध के दौरान केसरीचंद को बंदी बना लिया। अंग्रेजी हुकूमत ने उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया और 3 मई 1945 को वीर शहीद ने हंसते हुए फांसी के फंदे को चूम लिया।