लॉकडाउन के दौरान उफ! ये कालाबाजारी, आमजन परेशान
जिंदगी के दांव के बीच शेयर बाजार भले ही लहुलुहान है लेकिन कालाबाजारियों की तिजोरियां खूब भर रही हैं। पौड़ी से पिथौरागढ़ तक यह दृश्य आम है।
देहरादून, किरण शर्मा। जिंदगी के दांव के बीच शेयर बाजार भले ही लहुलुहान है, लेकिन कालाबाजारियों की तिजोरियां खूब भर रही हैं। पौड़ी से पिथौरागढ़ तक यह दृश्य आम है। मंडी में सब्जियों के दाम सामान्य हैं, लेकिन सड़कों पर ये सुलगती नजर आ रही हैं। यही हाल आटा, दाल और चावल का है। जैसे-जैसे कोरोना की दहशत बढ़ी है, आवश्यक वस्तुओं के दाम भी आसमान की ओर उड़ान भरने लगे। सरकार भी सचेत हुई और ओवररेटिंग के लिए टॉस्क फोर्स गठित हो गई, लेकिन यह गई कहां। अभी तो इसकी तलाश की जा रही है। खैर, खोजो तो भगवान मिल जाता है, उम्मीद है टीम भी मिल जाएगी। शेयर बाजार भले ही जमीन पर हो, लेकिन दहशत का व्यापार खूब कमाई कर रहा है। इन हालात में गरीब को नमक-रोटी मिल जाए तो भगवान का शुक्र है, दाल-रोटी मिलना तो 56 भोग से कम नहीं है। खैर, भगवान पर तो भरोसा है।
बहुत कुछ बदला
कोरोना ने काफी कुछ बदल दिया है। ट्रेन से लेकर हवाई जहाज तक ठप है। न बस चल रही हैं न कार। जिस आधुनिकता की चकाचौंध के लिए लोग अपनी मिट्टी से दूर सात समंदर पार चले गए, वो आज अप्रासांगिक नजर आ रही है। हजारों श्रमिक पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर पैदल ही अपने घर जाने के लिए सड़क नाप रहे हैं। दृश्य ऐसा मानो 19वीं सदी का भारत हो। पहाड़ों में भी सुदूरवर्ती गांव ऐसे ही हैं, वहां आज भी निकटतम सड़क तक पहुंचने के लिए 20 से 22 किलोमीटर का पैदल रास्ता तय करना पड़ रहा है। लेकिन उनके पास है कुदरत के तोहफे, सेहत के लिए मुफीद आबो-हवा। अपने खेत का जैविक अनाज, फल और सब्जी। जाहिर है उनकी रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता शहर के लोगों से बेहतर है। अब उन्हें लग रहा है कि यदि यही तरक्की की पाठशाला है तो अपना गांव ही अच्छा है।
जल्दबाजी में सरकार
पहले लॉकडाउन में ढील का समय तीन घंटे से बढ़ाकर छह घंटे और अब रेस्तरां के किचन खोलने की अनुमति। पता नहीं, किस बात की जल्दबाजी में अपनी सरकार? बुद्धिजीवी समझ नहीं पा रहे कि सरकार आखिर साबित क्या करना चाहती है? वह भी उस दौर में जब पूरा देश कोरोना के संक्रमण की आशंका से भयभीत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाथ जोड़कर लोगों से विनती कर रहे हैं कि घरों से बाहर न निकलना। घर की चौखट को लक्ष्मण रेखा मानकर इक्कीस दिन घर पर रहना ..और घर पर ही रहना। विशेषज्ञ कोरोना के संक्रमण की चेन तोड़ने के लिए इसे जरूरी बता रहे हैं, पर अपनी सरकार है कि एक के बाद एक जोखिम उठा रही है। ऊपर से तुर्रा यह कि जन सहूलियत के लिए ऐसा किया जा रहा है। पर जनाब शायद यह भूल रहे हैं कि जनता ने तो कभी यह मांग उठाई ही नहीं, फिर दरियादिली किस लिए दिखा रहे हैं?
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अब लौट चलें
प्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह की एक मशहूर गजल है ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, अगर ले सको ले लो मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो मेरे बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती और बारिश का पानी।’ कुछ ऐसा ही दृश्य है पहाड़ के गांवों का। शहरों में कोरोना की दहशत के बीच प्रवासियों ने गांव की ओर रुख शुरू कर दिया है। बड़ी संख्या में दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों से प्रवासी अपने गांव पहुंच गए हैं। सही भी है, मुसीबत के समय अपने गांव अपने घर की चहारदीवारी से ज्यादा सुरक्षित जगह कौन सी होगी, लेकिन बुरा हो इस कोरोना का, जिसने रिश्तों में दूरी बढ़ा दी। जिन प्रवासियों को आम दिनों में गांव में सब गले लगाते थे तो अब उनके आने से ग्रामीण दूर-दूर हैं। बेबसी है और लाचारी भी, सुरक्षा के लिए सावधानी जरूरी है।
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