भारतीय विक्रमी नववर्ष के साथ होती वासंतिक नवरात्र की शुरुआत
भारतीय विक्रमी नववर्ष के साथ ही वासंतिक नवरात्र की शुरुआत होती है। इसके अलावा चैत्र संक्रांति से ही उत्तराखंड में लोकपर्व फूलदेई की भी शुरुआत होती है।
देहरादून, [जेएनएन]: वसंत ऋतु में धरा के पुष्पों से सुशोभित होने पर हृदय में कोमल प्रवृत्तियां जाग उठती हैं। चित्त में नवजीवन, नव उत्साह व आनंद का संचार होने लगता है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो सृष्टि नवयौवना का रूप धारण कर चुकी है। वन में पलाश के फूल, बागों में आमों पर बौर, आम्रमंजरी पर मंडराते भ्रमर और कोयल की कूक मन को उद्वेलित कर वातावरण को मादक बनाने लगती है। तब होती है भारतीय विक्रमी नववर्ष के साथ वासंतिक नवरात्र की शुरुआत। इसके अलावा चैत्र संक्रांति से ही उत्तराखंड में लोकपर्व फूलदेई की भी शुरुआत होती है। यह एक तरफ यह आनंद का उत्सव है तो दूसरी तरफ विजय और परिवर्तन के आरंभ का प्रतीक भी।
विक्रमी संवत के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को वर्ष प्रतिपदा कहा गया है। यह भारतीय कालगणना का प्रथम दिन है। इसी दिन से भारतीय नववर्ष आरंभ होता है। कालगणना के इस बार 18 मार्च 2018 से नववर्ष विक्रमी संवत 2075 प्रारंभ हो रहा है। इसे 'विरोधकृत' संवत्सर के नाम से जाना जाएगा। एक जनवरी को मनाया जाने वाला नववर्ष यूरोपियन ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार होता है। जिसे अंतरराष्ट्रीय के रूप में मान्यता है, लेकिन भारत में समस्त धार्मिक संस्कारों एवं त्योहारों में सर्वमान्य संवत विक्रमी संवत ही है। युग परिवर्तन (द्वापर से कलयुग) का सूचक युगाब्द-5120 भी इसी दिन से आरंभ हो रहा है।
भारत में कालगणना की अनेक विधियां प्रचलन में रही हैं। इनमें चंद्र गणना पर आधारित पद्धति प्रमुख है। विक्रमी संवत की गणना भी इसी आधार पर की जाती है। इसमें चंद्रमा की 16 कलाओं के आधार पर दो पक्ष (शुक्ल व कृष्ण) का एक मास होता है। प्रथम पक्ष अमांत व द्वितीय पूर्णिमांत कहलाता है। दक्षिण भारत में अमांत व पूर्णिमांत का ही प्रचलन है। कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रत्येक चंद्रमास में साढ़े 29 दिन होते हैं। इस प्रकार एक वर्ष 354 दिन का हुआ। पृथ्वी को सूर्य के परिभ्रमण में 365 दिन व छह घंटे लगते हैं। सो, प्रत्येक वर्ष 11 दिन तीन घड़ी और लगभग 48 पल का अंतर पड़ जाता है। यह अंतर तीन वर्षों में बढ़ते-बढ़ते लगभग एक मास का हो जाता है। इन शेष दिनों के समायोजन और कालगणना का अंतर पाटने के लिए तीन वर्ष में एक अधिमास की व्यवस्था है। यह पूरी तरह वैज्ञानिक है। प्रत्येक तीसरे वर्ष चंद्रमासों में एक मास की वृद्धि हो जाती है, जिसे अधिमास, मलमास अधिकमास या पुरुषोत्तम मास कहते हैं। चंद्रमास के अनुसार यह 13वां मास हो जाता है। इस विक्रमी संवत में भी एक अधिकमास होगा।
यही चंद्र तो यही सौर संवत्सर भी
विक्रम संवत में सूर्य एवं चंद्रमा, दोनों की गति का ध्यान रखा जाता है। इसलिए यह सौर संवत्सर भी है और चंद्र संवत्सर भी। चंद्रवर्ष का सौर वर्ष से मेल-मिलाप ठीक रखने के लिए ही शुद्ध वैज्ञानिक आधार पर प्रति तीन वर्ष बाद मलमास अर्थात वर्ष में एक माह या अधिकमास की अतिरिक्त व्यवस्था की गई है। बीच-बीच में नक्षत्रों की स्थिति के अनुरूप तिथियों की घटत-बढ़त की जाती है।
ईसा वर्ष से 57 वर्ष बड़ा विक्रमी वर्ष
विक्रम संवत, ईसा संवत यानी ग्रेगेरियन कैलेंडर से 57 वर्ष बड़ा है। यानी ईसा वर्ष में 57 वर्ष जोडऩे से हम विक्रम संवत की संख्या प्राप्त कर सकते हैं।
दस वर्ष बाद ज्येष्ठ दो महीने का
विक्रमी संवत 2075 में ज्येष्ठ के दो महीने होंगे। ज्येष्ठ मास एक मई से प्रारंभ होकर 28 जून तक रहेगा। जबकि, अधिकमास का समय 16 मई से 13 जून तक होगा। खास बात यह कि ज्येष्ठ में अधिकमास दस वर्ष बाद होगा। इससे पूर्व वर्ष 2007 में ज्येष्ठ में अधिकमास था। कालगणना के अनुसार सौरमास 12 और राशियां भी 12 होती हैं। जब दो पक्षों में संक्रांति नहीं होती, तब अधिकमास होता है। अधिकमास शुक्ल पक्ष से प्रारंभ होकर कृष्ण पक्ष में समाप्त होता है।
सूर्य राजा और शनि मंत्री
'विरोधकृत' संवत्सर के शुरू होते ही नया आकाशीय मंत्रिमंडल भी अपना कार्यभार संभाल लेगा। इसमें सूर्य को राजा का ताज पहनाया जाएगा, जबकि शनि मंत्री का पद ग्रहण करेंगे। इस साल वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी चंद्रमा केपास रहेगी और द्वारपाल के रूप में शुक्र मंत्रिमंडल में अपना प्रभाव दिखाएंगे।
140 या 190 वर्ष में आता है क्षयमास
भारतीय कालगणना में अधिक मास की तरह क्षयमास की भी व्यवस्था है। कालगणना में जो मामूली सूक्ष्म भेद रह जाता है, वह क्षयमास से पूरा होता है। क्षयमास वर्ष में कुल 11 चंद्रमास होते हैं। क्षयमास लगभग 140 या 190 वर्ष में एक बार आता है।
मेष संक्रांति से शुरू होता है सौर वर्ष
चंद्रमास के अलावा सौर संक्रांति पर आधारित भी एक कालगणना है। इसके अनुसार सौर वर्ष में 365 दिनों का एक वर्ष होता है। इसमें वर्ष मेष संक्रांति 13 या 14 अप्रैल से आरंभ होता है। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश संक्रांति कहलाता है। प्रत्येक मास सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण (प्रवेश) करता है। इस प्रकार वर्षभर में सूर्य 12 राशियों में संक्रमण करता है और प्रत्येक मास में एक संक्रांति काल होता है। इस गणना में संक्रांति से नया मास आरंभ होता है।
भारतीय किसानों का खास दिन
विक्रमी नववर्ष में समग्र राष्ट्रीय पर्व के दर्शन होते हैं। एक तरफ यह आनंद का उत्सव है तो दूसरी तरफ विजय और परिवर्तन के आरंभ का प्रतीक भी। नई फसल के तैयार होकर घर में प्रवेश करने का यह दिन भारतीय कृषकों के लिए विशेष महत्व रखता है।
चैत्र प्रतिपदा को रची ब्रह्मा ने सृष्टि
'ब्रह्मपुराण' के अनुसार ब्रह्माजी ने इस तिथि को प्रवरा (सर्वोत्तम) मानकर इसी दिन सृष्टि की रचना की। इसका उल्लेख 'अथर्ववेद' व 'शतपथ ब्राह्मण' में मिलता है। शाक्त संप्रदाय के अनुसार देवी भगवती की आराधना के लिए वासंतिक (चैत्र) नवरात्र का आरंभ भी इसी दिन से होता है।
सृष्टि के नवयौवन की अनुभूति
महाकवि कालीदास के 'सर्वप्रिये चारुतर वसंते' में नववर्ष का आरंभ जन-मन के उल्लास, उमंग एवं आनंद को द्विगुणित कर देता है। वसंत संपूर्ण धरती को पुष्पों से सुशोभित कर हृदय में कोमल प्रवृत्तियों को जगाकर चित्त में नवजीवन, नव उत्साह, मस्ती, मादकता व आनंद प्रदान कर समस्त सृष्टि को नवयौवन की अनुभूति कराता है। कानन में टेसू (पलाश) के फूल, बागों में आमों पर बौर, आम्रमंजरी पर मंडराते भौंरे और कोयल की कूक मन को उद्वेलित करती है और वातावरण को मादक बनाती है।
ताकि पूरा महीना हंसी-खुशी में बीते
नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने की परंपरा भी है। आम धारणा है कि ऐसा करने पर रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।
इसलिए खास है चैत्र प्रतिपदा
-इसी तिथि को रेवती नक्षत्र और विषकुंभ योग में दिन के समय हुआ था भगवान का मत्स्य अवतार।
-सृष्टि के आरंभ का दिन।
-युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारंभ का दिन।
श्रीराम व युधिष्ठिर के राज्याभिषेक का दिन
-मां दुर्गा की साधना चैत्र नवरात्र का प्रथम दिवस।
उज्जयिनी सम्राट महाराजा विक्रमादित्य ने इसी दिन किया विक्रमी संवत् प्रारंभ।
-शालिवाहन शक संवत का शुभारंभ।
-आर्य समाज का स्थापना दिवस।
-संत झूलेलाल की जयंती।
चैत्र प्रतिपदा के खास उत्सव
-आंध्र प्रदेश में इस दिन को उगादि (युगादि) तिथि अर्थात 'युग का आरंभ' के रूप में मनाया जाता है।
-सिंधी समाज में यह दिन भगवान झूलेलाल के जन्मदिन और चेटी चंड (चैत्र का चंद्र) के रूप में मनाया जाता है।
-कश्मीर में इस दिन सप्तऋषि संवत के अनुसार 'नवरेह' नाम से नववर्ष का उत्सव मनाया जाता है। कश्मीरियों का यह प्रमुख त्योहार है।
-महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में यह उत्सव मनाया जाता है।
-नेपाल में राजकीय एवं जनजीवन के दैनिक कार्यों में विक्रमी संवत का ही प्रयोग होता है।
सबसे लोकप्रिय विक्रमी संवत
प्राचीन ग्रंथों में संवत्सर को जीवन का पर्याय माना गया है। 'ऋग्वेद' की एक ऋचा (1-164-48) में कहा गया है कि संवत्सर एक चक्र है। 12 भागों में बंटे 360 अंश के इस चक्र में सर्दी, गर्मी व वर्षा रूपी तीन नाभियां हैं। 'अथर्ववेद' की एक ऋचा (10-8-4) में 360 को शंकु और खीला कहा गया है। महाभारत के 'वन पर्व' के अध्याय 133 में उल्लेख है कि 24 पर्व (पक्ष), 12 घेरे (माह), छह नाभि (ऋतु) और 360 आरे (दिन) का यह चक्र निरंतर गतिमान है। इस काल विभाजन के लिए भारत में समय-समय पर अनेक संवत्सर प्रचलन में रहे। इनमें सबसे प्राचीन संवत्सर 'सृष्टि' नाम संवत्सर है, जो सृष्टि के आरंभ से अब तक गतिशील है। 'सप्तर्षि' संवत भी लंबे समय तक प्रचलन में रहा। एक अन्य उल्लेख के अनुसार सतयुग में 'ब्रह्म' नाम संवत्सर प्रचलित था, जिसका प्रारंभ ब्रह्मा के जन्म के साथ हुआ। वामन, राम आदि के नाम पर भी संवत प्रचलन में आए, मगर वे अधिक समय तक नहीं चले। युधिष्ठिर के स्वर्गारोहण के साथ कलयुग प्रारंभ हुआ, जिसे 'कलयुगी' संवत या 'युधिष्ठिर' संवत कहा गया। यह संवत कहीं-कहीं अब भी प्रचलन में है, लेकिन लोकप्रिय नहीं हो पाया।
सभी पर्व-त्योहारों का आधार विक्रमी संवत
वर्तमान में धर्म, जाति और क्षेत्र के आधार पर भारत में लगभग 30 संवत प्रचलन में हैं। इनमें से कुछ चंद्र संवत हैं और कुछ सौर संवत। लेकिन, जो संवत हमारे यहां सबसे अधिक लोकप्रिय है, वह है विक्रमी संवत। हमारे सभी पर्व-त्योहार इसी के आधार पर ही मनाए जाते हैं। हालांकि, राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में शक संवत प्रचलन में है।
ईसा पूर्व मालवा के शासक रहे विक्रमादित्य
विक्रमी संवत विक्रमादित्य से प्रारंभ होता है, मगर यह विक्रमादित्य कौन थे, इस बारे में मतभेद है। कुछ इतिहासकार चंद्रगुप्त द्वितीय को ही विक्रमादित्य के रूप में मान्यता देते हैं। लेकिन, उनका कार्यकाल विक्रम संवत से मेल नहीं खाता। विक्रम संवत ईसा से 57 वर्ष पहले प्रारंभ हुआ, जबकि चंद्रगुप्त द्वितीय का शासन चौथी शताब्दी का है। इसलिए विद्वानों का मानना है कि यह विक्रमादित्य दूसरे थे, जो ईसा से काफी पहले मालवा में शासन करते थे। उन्होंने प्रबल साहस और शौर्य से शत्रुओं को पराजित कर देश की रक्षा की थी। तब मान्यता प्रचलित थी कि केवल वही राजा अपने नाम से नया संवत चला सकता है, जिसकी प्रजा में कोई भी कर्जदार न हो। विक्रमादित्य ने भी इस परंपरा का पालन करते हुए अपनी प्रजा का कर्ज स्वयं ही सरकारी खजाने से चुका दिया था। विक्रमादित्य अत्यंत उदार शासक थे। शैव धर्म के उपासक होते हुए भी वे सभी धर्मों को समान आदर देते थे। उनकी सभा में ही नवरत्न, धन्वंतरि, क्षपणक, अमर सिंह, शंकु, खर्पर, कालिदास, वराहमिहिर व वररुचि थे।
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