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हिमालय में फूटा आक्रोश तो टूटा ब्रिटिश हुकूमत का गुरूर

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने उत्तराखंड से ही राष्ट्रीय चेतना यात्रा की शुरुआत की थी। कालू महरा को उत्तराखंड का पहला स्वतंत्रता सेनानी होने का गौरव हासिल है।

By BhanuEdited By: Published: Wed, 08 Aug 2018 09:43 AM (IST)Updated: Thu, 09 Aug 2018 08:40 AM (IST)
हिमालय में फूटा आक्रोश तो टूटा ब्रिटिश हुकूमत का गुरूर
हिमालय में फूटा आक्रोश तो टूटा ब्रिटिश हुकूमत का गुरूर

देहरादून, [दिनेश कुकरेती]: 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड की भी भूमिका अहम रही थी। यह वह दौर है जब धार्मिक एवं सामाजिक विसंगतियों के कारण जनता बंटी हुई थी। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने लोगों को एकजुट करने के लिए उत्तराखंड से ही राष्ट्रीय चेतना यात्रा की शुरुआत की थी। कालू महरा को उत्तराखंड का पहला स्वतंत्रता सेनानी होने का गौरव हासिल है। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक आंदोलन चलाया था।

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उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन 1815 में हुआ। देखा जाए तो यहां अंग्रेजों का आगमन गोरखों के 25-वर्षीय सामंती शासन का अंत भी था। 1856 से 1884 तक उत्तराखंड तत्कालीन कमिश्नर हेनरी रैमजे के अधीन रहा। यह कालखंड ब्रिटिश सत्ता के शक्तिशाली होने का दौर माना जाता है। 

इसी दौर में सरकार के अनुरूप समाचारों के प्रस्तुतिकरण के लिए 1868 में 'समय विनोद' व 1871 में 'अल्मोड़ा अखबार' की शुरुआत हुई। उधर, धीरे-धीरे विरोध के स्वर भी मुखर होने लगे थे। 1905 में बंगाल विभाजन के बाद अल्मोड़ा में नंदा देवी मंदिर परिसर में विरोध सभा हुई। 

इसी वर्ष कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में उत्तराखंड से हरगोविंद पंत, मुकुंदीलाल, गोविंद बल्लभ पंत, बद्री दत्त पांडे आदि शामिल हुए। 1906 में हरिराम त्रिपाठी ने 'वंदेमातरम्', जिसका उच्चारण ही तब देशद्रोह माना जाता था, का कुमाऊंनी में अनुवाद किया। आजादी की ज्वाला भड़क उठी। जगह-जगह युवा स्कूलों का परित्याग कर आंदोलन का हिस्सा बनने लगे। अल्मोड़ा, बागेश्वर, लैंसडौन, हिलोगी, दुगड्डा, डाडामंडी, मसूरी, दशोली ब्लॉक (चमोली), देहरादून आदि स्थानों पर गुपचुप सभाएं होने लगीं।

यही वह दौर है, जब 1913 में अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए गठित टम्टा सुधारिणी सभा का रूपांतरण एक व्यापक शिल्पकार महासभा के रूप में हुआ। सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध यह नए युग का सूत्रपात था। 'कुली बेगार' व 'डोला-पालकी' जैसे आंदोलनों की पृष्ठभूमि यहीं से तैयार हुई, जो किसी न किसी रूप में स्वतंत्रता आंदोलन के मजबूती का ही आधार बनी। 

महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह में भी उत्तराखंड के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। आंदोलन के दौरान गांधीजी की साबरमती से डांडी तक की यात्रा में उनके साथ जाने वाले 78 सत्याग्रहियों में तीन ज्योतिराम कांडपाल, भैरव दत्त जोशी व खड़ग बहादुर उत्तराखंड के ही थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तराखंड के 21 स्वतंत्रता सेनानी शहीद हुए और हजारों को गिरफ्तार किया गया। नतीजा जगह-जगह आंदोलन भड़क उठे। इसी दौरान खुमाड (सल्ट) में आंदोलनकारियों पर हुई फायङ्क्षरग में दो सगे भाइयों गंगाराम व खीमदेव के अलावा बहादुर सिंह व चूड़ामणि शहीद हुए। 

महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में सल्ट की सक्रिय भागीदारी के कारण इसे भारत की 'दूसरी बारदोली' से गौरवान्वित किया था। इस बीच आजाद ङ्क्षहद फौज की नींव रखी जा चुकी थी, जिसमें शामिल 800 गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों से लड़ते हुए आजादी के लिए प्राणों का उत्सर्ग किया। नेताजी की फौज के 23266 सैनिकों में लगभग 2500 सैनिक गढ़वाली थे। 

इसी तरह लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह ने 17 मार्च 1945 को अपने 14 जांबाजों के साथ ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ते हुए प्राण न्योछावर कर दिए। उत्तराखंड के आजादी के परवानों में देशभक्ति का जज्बा इतना प्रबल था कि वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में पहाड़ी फौजियों ने पेशावर की आजादी के लिए आंदोलन कर रहे लोगों पर गोलियां चलाने से इन्कार कर दिया। 

इस पृष्ठभूमि में हम 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को भी नहीं भूल सकते। इसे 'गदर' का नाम देकर अंग्रेजों ने कई अनाम स्वतंत्रता सेनानियों को नैनीताल में फांसी पर लटका दिया था, जो अभिलेखों में फांसी गधेरे के नाम से दर्ज है। 

महात्मा गांधी की कुमाऊं यात्रा, पं.जवाहर लाल नेहरू का देहरादून जेल प्रवास, चंद्रशेखर आजाद का दुगड्डा में क्रांतिकारियों को युद्धकला का प्रशिक्षण देना आजादी के आंदोलन के ऐसे स्वर्णिम अध्याय हैं, जिन्होंने अंग्रेजों की चूलें हिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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