मानसून में अभी उतना पानी नहीं बरसा, पर नालियां होने लगी ओवरफ्लो
मानसून में अभी उतना पानी नहीं बरसा है जिसके लिए यह जाना जाता है। मगर अब तक जितना भी पानी बरसा उससे शहर की करीब सभी नालियां ओवरफ्लो होने लगीं।
देहरादून, अंकुर अग्रवाल। मानसून में अभी उतना पानी नहीं बरसा है जिसके लिए यह जाना जाता है। मगर अब तक जितना भी पानी बरसा, उससे शहर की करीब सभी नालियां ओवरफ्लो होने लगीं। जगह-जगह पर कूड़े-कचरे का अंबार लगा है। नालियों में पनप रहे मच्छर बेहद मजे से अपनी आबादी दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ाने में लगे हुए हैं। कूड़े के ढ़ेर से आवारा पशु अपनी पेट की आग ठंडी कर रहे हैं। असल में जब मानसून को लेकर नालियों व नालों की सफाई कराई जा रही थी तब मच्छरों ने इसका जमकर विरोध किया। अपना गुस्सा सफाई करने वालों को काटकर निकाला व सफाई कर्मियों की पूरी फौज ने इनके सामने हथियार डाल दिए थे। नगर निगम कार्यालय में मामला पहुंचा तो रणनीति बनाई गई कि काम ऐसा हो कि जनता को दिखाई दे जाए कि काम हो गया। मच्छरों को भी लगे कि उनके हित को सुरक्षित रखा गया है। हुआ भी ऐसा ही। हाउस एवं सफाई टैक्स देने वाले परेशान हैं। बाकी सब सुखी हैं। सर्वे भवंतु सुखिन:।
मच्छरों के प्रति उदार निगम
हाउस और सफाई टैक्स चुकाने वालों को लेकर नगर निगम भले ही संवेदनशील न हो लेकिन वह आवारा मवेशियों एवं मच्छरों के मामले में बहुत उदार है। जब सूखा रहता है तो कुछ सफाई होती भी है। उसे पता है कि बरसात में आवारा मवेशियों के लिए शहर में खाने-पीने की व्यवस्था न की जाए तो वे भूखे ही रह जाएंगे। यदि नालियों की सफाई ठीक से करा दी तो मच्छरों की आबादी थम जाएगी। आखिर सृष्टि में सभी जीव-जंतुओं का अपना महत्व जो है। जीओ और जीने दो के सिद्धांतों पर चलने वाले नगर निगम ने शायद इसी कारण बरसात के पहले कुछ ही नालियों की सफाई इस कदर कराई कि हर कोई खुश रहे। मतलब सीधा कि लोगों को लगे भी कि नालियों की सफाई की जा रही है और 'दुलारे' मच्छरों के लिए पर्याप्त जलजमाव और गंदगी भी रहे।
ऊर्जा प्रदेश में बिजली कटौती
गर्मी शुरू होते ही शहर के कुछ हिस्सों व बाहरी क्षेत्रों में बिजली की कटौती शुरू हो गई है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती जा रही, वैसे बिजली की कटौती भी बढ़ती जा रही। ऐसा हर साल ही होता है। लोगों को बिजली की कटौती का सामना करना पड़ता है। गर्मी के दिनों में बिजली न होना सभी को खलता है लेकिन इसका हल क्या है। ऊर्जा निगम से पूछो तो, पुराना जवाब कि बिजली की मांग कई गुना बढ़ गई है। उतनी बिजली है नहीं। कोरोनाकाल के दिनों में तो ऊर्जा निगम को बहाना भी मिल गया है कि लोग बिल नहीं भर रहे। ऐसे में बिजली कटौती मजबूरी है। लेकिन, निगम यह भूल गया कि सब जानते हैं कि उत्तराखंड बिजली उत्पादक राज्य है, जहां से पैदा हो रही बिजली बाहरी राज्यों को भी भेजी जाती है।
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मालिकाना हक, राजनीति का मुद्दा
शहर में मालिकाना का मुद्दा उसी तरह चल रहा है, जैसे देश भर के लिए कोरोना या चीन विवाद का मुद्दा। गरीबी-भुखमरी को कोसों दूर छोड़ छोड़ चुके इन मुद्दों में फंसे गरीब ये सोच रहे कि वे कांग्रेस काल में आए शासनादेश पर भरोसा करें या फिर भाजपा सरकार के पिछले साल दिए आदेश पर। पिछले साल भाजपा सरकार ने गरीबों को मालिकाना हक देने का फैसला लिया था तो बीस साल बाद उन्हें ये महसूस हुआ था कि जिस घर में वे रह रहे हैं, वह उनका ही है। नगर निगम ने भी सरकार के आदेश को सिर-आंखों पर रखकर मालिकाना हक देने का प्रस्ताव अपने बोर्ड में पास करने में देरी नहीं की। लेकिन, वोटबैंक की राजनीति कहां खत्म होने वाली। सरकार गोलचक्कर घुमाती रही और 92 बस्तियों की ये संख्या बढ़कर 128 जा पहुंची। ऐसे ही मुद्दा कुछ दिन और रहा तो यह संख्या 200 पार होने में भी देर नहीं लगेगी।
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