Move to Jagran APP

EXCLUSIVE: योगी आदित्यनाथ ने दलित-मुस्लिम एकता को बताया असंभव कल्पना

योगी आदित्यनाथ बोले- दलित-मुस्लिम एकता असंभव कल्पना है। मित्रता वहां चलती है जहां आत्माएं मिलती हों। राजनीतिक लाभ को ध्यान में रखकर की गई कोई भी दोस्ती कभी स्थायी नहीं हो सकती।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Sat, 13 Jan 2018 10:38 AM (IST)Updated: Sat, 13 Jan 2018 06:15 PM (IST)
EXCLUSIVE: योगी आदित्यनाथ ने दलित-मुस्लिम एकता को बताया असंभव कल्पना

लखनऊ। दलितों को लेकर जारी राजनीति में विपक्ष भले ही मुखर है, लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसे कोई विषय ही नहीं मानते। उनकी राय में दलित बनाम ब्राह्मणवाद का नारा लगाने वाले धर्म को नहीं समझते। योगी आदित्यनाथ का स्पष्ट मत है कि दलितों के बिना हिंदू धर्म की कल्पना नहीं की जा सकती। दलितों के बिना हिंदुत्व का आधार ही नहीं है।

loksabha election banner

महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव से उपजे दलित बनाम सवर्ण विवाद को लेकर इन दिनों केंद्र सरकार और विपक्ष में राजनीति गरम है। प्रकाश अंबेडकर और कांग्रेस से लेकर उत्तर प्रदेश में बसपा प्रमुख मायावती भी मोदी सरकार और भाजपा पर दलितों की उपेक्षा का आरोप लगा रहे हैं।

इसी मुद्दे पर दैनिक जागरण ने मुख्यमंत्री और हिंदुत्व के मुखर प्रतीक योगी आदित्यनाथ का पक्ष जानना चाहा। योगी ने दो टूक लहजे में सारे विवाद को राजनीतिक स्टंट बताया। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने चार भिन्न कालखंडों के महर्षि वाल्मीकि, वेद व्यास, संत रविदास और डा. भीमराव अंबेडकर का उदाहरण दिया। उनका तर्क था कि इन चारों दलित लेखकों और विचारकों ने रामायण, महाभारत, भक्ति साहित्य और संविधान के माध्यम से धर्म की अथक सेवा की और समाज ने इन्हें और इनकी रचनाओं को सिर माथे लगाया। उन्होंने कहा कि भाजपा और प्रधानमंत्री 2022 के उस भारत की बात कर रहे हैं जिसमें जातिवाद और नक्सलवाद नहीं होगा। मुख्यमंत्री के रूप में नौ महीने से अधिक का समय गुजार चुके योगी के अनुसार जो लोग दलित बनाम हिंदुत्व की बहस चला रहे हैं, वे भारत की आत्मा को नहीं जानते। असल में ये लोग केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री के नेतृत्व को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे।

योगी नगर निकाय चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश में बसपा के बेहतर प्रदर्शन को दलित राजनीति के बसपा के पक्ष में किसी उभार के रूप में भी नहीं देखते। उन्होंने यह भी कहा कि दलित-मुस्लिम एकता असंभव है और हिंदुओं को बांटने के ऐसे प्रयास पहले भी होते रहे हैं। 

दलित-मुस्लिम एकता की बात असंभव कल्पना

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सीधी बात सपाट तरह से कहते हैं। उनके विचार एकदम स्पष्ट हैं। जिग्नेश मेवाणी या सहारनपुर का रावण उनके लिए कोई मुद्दा नहीं और इसी कारण इन दिनों चर्चा में चल रही दलित-मुस्लिम एकता को वह महत्व नहीं देते। वह इसे कोरी कल्पना और राजनीतिक स्टंट मानते हैं। वह एक ऐसे विराट हिंदू धर्म की बात करते हैं जिसमें जाति की कोई भूमिका नहीं होगी। ऐसा धर्म जो अपनी विकृतियों से अपने भीतर ही लड़ेगा। बाहर वालों का इसमें बोलना उन्हें अनावश्यक हस्तक्षेप लगता है। वह यह भी मानते हैं कि दलितों के बिना हिंदुत्व का आधार नहीं। इन दिनों के अनेक ज्वलंत विषयों पर योगी ने खुलकर दैनिक जागरण के उत्तर प्रदेश संपादक आशुतोष शुक्ल से विचार साझा किये। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश-

-रोहित वेमुला प्रकरण के बाद महाराष्ट्र से दलित राजनीति पर फिर नई बहस छिड़ी है। इस पर आक्रामक विपक्ष का तर्क है कि भाजपा और केंद्र सरकार दलित विरोधी हैं लिहाजा दलितों की सुनी नहीं जा रही।

ये सब निरर्थक बातें हैं। वे लोग ऐसी बातें करते हैं जो भारत को नहीं जानते। भारत को जानना है तो महर्षि वाल्मीकि, कृष्ण द्वैपायन व्यास, संत रविदास और डा. भीमराव अंबेडकर को जानने की कोशिश करनी चाहिए। जो भी व्यक्ति इन्हें मन से पढ़ेगा, इनके लिखे हुए की भावना को समझने का प्रयास करेगा वह भारत की आत्मा को समझ जाएगा। ...और जो यह समझ जाएगा फिर वह भारत को जाति, मत या संप्रदाय के आधार पर विभाजित करने की कुचेष्टा भी छोड़ देगा।

त्रेता में जब महर्षि वाल्मीकि को भारत को एक सूत्र में बांधना था तो उन्होंने श्रीराम को माध्यम बनाया। राम की मर्यादा ने पूरब से पश्चिम तक भारत को एक किया। संस्कृत का पहला मौलिक महाकाव्य रचने का श्रेय भी महर्षि को ही जाता है। द्वापर में यही काम महर्षि व्यास ने महाभारत और श्रीमद्भागवत की रचना करके किया। उन्होंने लीला पुरुषोत्तम के माध्यम से समग्र भारत को जोड़ा। कर्मयोग की शिक्षा देने वाली गीता भी महाभारत का ही एक अंश है। भक्तिकाल में संत रविदास आए जिन्होंने ईश्वर भक्ति की धारा को भारत के गांव-गांव, गली-गली पहुंचाया। आप रविदासियों से मिलें। उनकी सज्जनता और धर्म के प्रति उनका समर्पण अभिनंदनीय है। आधुनिक काल में डा. भीमराव अंबेडकर आए जो स्वतंत्र भारत की व्यवस्था संचालित करने के एक विशद ग्रंथ का माध्यम बने। 

-ये चारों दलित थे। आप कहना चाहते हैं कि दलितों ने भारत की आत्मा को पहचाना? 

जी, बिल्कुल यही कहना चाहता हूं। इनसे पहले वेदों की रचना देखें तो वहां भी अनेक रचनाकार दलित मिल जाएंगे। आज से कितने समय पहली हुई थी रामायण की रचना। भुक्ति और मुक्ति दोनों का आधार है रामायण। संतों, बटुकों की आजीविका और कथा, प्रवचन का आधार भी है रामायण। हमारे जीवन में सैकड़ों वर्षों से सकारात्मक परिवर्तन लाती रही है रामायण।

लोग बातें चाहे जितनी कर लें, मैं पूछता हूं जातिवाद होता तो इन दलित लेखकों और विचारकों को क्या इतनी मान्यता मिलती। उनके साहित्य को जिस समाज ने न केवल सहर्ष स्वीकार किया बल्कि उसे ह्दय से लगाया, उसका अनुकरण किया, वह अनुदार भला कैसे हो सकता है।

जातिवाद होता तो मध्यकाल में संत रामानंद जैसे विद्वान ब्राह्मण क्या रविदास को अपना शिष्य बनाते। रामानंद ने ही तो लिखा था,-जाति पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई। अंबेडकर ने संविधान रचना की तो अपने साथ हुए भेदभाव को बाधक नहीं बनने दिया। वर्तमान परिदृश्य में इन महात्माओं के प्रति श्रद्धा-सम्मान का भाव रखते हुए हम सबको भारत की एकता के लिए सामूहिक प्रयास करने होंगे। लोग देखें कि पहले दिन से इस देश में महिलाओं को मताधिकार मिला। यह क्या साधारण बात है। डा. अंबेडकर समतामूलक समाज बनाने के प्रति आग्रही थे। 

-दलित बनाम हिंदू या दलित बनाम ब्राह्मणवाद की बहस का कारण कहीं यह तो नहीं कि सवर्णों में दलितों के प्रति विद्वेष बढ़ा है और जिसे समझने में केंद्र सरकार और भाजपा चूक रहे हैं? 

नहीं ! केवल वे लोग हर छोटी बात को बड़ा बनाना चाह रहे हैं जो केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री के नेतृत्व को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। वर्ष 2022 में देश अपनी स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं जयंती मनाने जा रहा है। प्रधानमंत्री उस समय तक भारत को जाति, मत, मजहब और गरीबी मुक्त देश बनाना चाहते हैं। ऐसा देश जहां आतंकवाद, नस्लवाद और नक्सलवाद न हो। कुछ लोगों को यह अखर रहा है। 

-ये कौन लोग हैं जिन्हें एक भारत-श्रेष्ठ भारत की कल्पना बुरी लग रही ?

जो हर बात को मुद्दा बना रहे। जो जाति को तूल दे रहे। जो भारत विरोधियों के मोहरे बने हैं। ...और वे जो ऐसे लोगों को प्रायोजित कर रहे। 

-कोई पार्टी?

हां लेकिन, उसका नाम क्या लेना। 

- उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीडऩ की घटनाएं तो हुई हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक दलित को घोड़ी नहीं चढऩे दिया गया। अब भी ऐसी घटनाएं होती हैं जब दलितों को कई बार मंदिर तक नहीं जाने दिया जाता। 21वीं सदी के दूसरे दशक में ऐसी घटनाएं होंगी तो विरोधी मुद्दा तो बनाएंगे ही।

इतना बड़ा प्रदेश है। कभी कोई घटना हो तो उसे बहुत महत्व नहीं देना चाहिए। हां, यदि हम कार्रवाई न करें या ढिलाई बरतें तो अवश्य कहा जाए। मैं स्पष्ट कर दूं कि प्रशासन को ऐसी घटनाओं पर जवाबदेह बनाया गया है। मेरी सरकार 22 करोड़ लोगों के प्रति संवेदनशील है। मत, मजहब के आधार पर यहां किसी का उत्पीडऩ नहीं होने दिया जाएगा। उत्तर प्रदेश की चिंता न करे विपक्ष। यहां सरकार में सबके प्रति सद्भाव है।

-सहारनपुर में दलित-सवर्ण हिंसा हुई। बसपा प्रमुख मायावती ने उसके लिए आपकी आलोचना की। उस हिंसा में गिरफ्तार रावण से मिलने की कोशिश जिग्नेश मेवाणी ने की। आपको नहीं लगता कि दलितों को भाजपा के विरुद्ध एकजुट करने की कोशिशें शुरू हैं?

इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं इन लोगों को बहुत महत्व नहीं देता। जिग्नेश ने तो केंद्र सरकार पर आरोप लगाया है। उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा है कि वह संविधान और मनुस्मृति में किसे वरीयता देते हैं? आप ही बताएं उनके इस प्रश्न का भला कोई अर्थ है? इसीलिए ऐसे तत्वों को भला क्या महत्व देना।

- हाल के निकाय चुनाव में बसपा ने पश्चिम में बेहतर प्रदर्शन किया। मेरठ, अलीगढ़ में तो वह जीती भी। क्या इसका कारण उस पूरे क्षेत्र में दलितों का भावनात्मक उभार नहीं?

 नहीं। एक या दो सीटें जीतना कोई बड़ी बात नहीं। निकाय चुनाव में सबसे अच्छा प्रदर्शन भाजपा का रहा।

- क्या कारण है कि बसपा, कांग्रेस, सपा और अब दलितों के नए प्रतीक बताए जा रहे लोग भाजपा को दलित विरोधी कहते हैं?

यह उनकी समस्या है, भाजपा की नहीं। विरोधियों को देखना चाहिए कि सबसे अधिक दलित सांसद और विधायक भाजपा के हैं। डा. अंबेडकर से जुड़े पंच तीर्थों का सम्मान और विकास मोदी सरकार ने किया। डा. अंबेडकर की जन्मस्थली महू, दिल्ली के उनके सरकारी घर, इंग्लैंड के उनके घर, नागपुर की उनकी दीक्षा भूमि और मुंबई की उनकी चैत्यभूमि का विकास तो केंद्र सरकार और भाजपा ने ही किया। कहां थे तब कांग्रेस, सपा या बसपा के लोग। ये पार्टियां केवल शोर मचाती हैं। 

- इस बीच दलित-मुस्लिम एकता की बात भी चली है। आप इसे किस रूप में देखते हैं? 

दलित-मुस्लिम एकता असंभव कल्पना है। मित्रता वहां चलती है जहां आत्माएं मिलती हों। राजनीतिक लाभ को ध्यान में रखकर की गई कोई भी दोस्ती कभी स्थायी नहीं हो सकती। यह तो राजनीतिक गठजोड़ हुआ। हिंदुओं को बांटने के ऐसे प्रयास पहले भी होते रहे हैं। हैदराबाद के निजाम ने भी ऐसी कोशिश की थी, लेकिन जिसे डा. अंबेडकर ने खारिज कर दिया था।

ऐसी कुत्सित कोशिशों को जवाब जनता देगी। भारत का वोटर सीधा परंतु बहुत बुद्धिमान भी है। वह इन विभाजनकारी ताकतों के प्रभाव में नहीं आने वाला। जो लोग ऐसे तत्वों को फाइनेंस कर रहे हैं, उन्हें मुंह की खानी पड़ेगी। मैं आपसे एक बात कहता हूं। दलितों के बिना हिंदू समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। दलितों के बिना हिंदुत्व नहीं। दलितों से अधिक धार्मिक और सात्विक भला और कौन है। आप मेरी बात के कितने ही उदाहरण देख सकते हैं। इतिहास उठाकर देख लें, धर्म की रक्षा में दलितों का योगदान प्रत्यक्ष है। 

-दलितों ने अलग-अलग समय पर बौद्ध धर्म तो अपनाया ही है। हाल ही में मायावती भी धर्म छोडऩे की चेतावनी दी चुकी हैं।

कोई धर्म नहीं छोड़ता। धर्म शाश्वत और धारणात्मक व्यवस्था है। उसे छोड़ा ही नहीं जा सकता। कर्तव्य, सदाचार और नैतिक मूल्यों का पर्याय ही धर्म है। हां, कोई उपासना पद्धति बदलने की बात कहे तो यह समझ में आता है परंतु उपासना पद्धति को बदलना धर्म छोडऩा नहीं। अपनी-अपनी उपासना पद्धति अपनाने की सबको स्वतंत्रता है। कोई शैव है और कोई वैष्णव। सब अपने अपने ढंग से ईश्वर का स्मरण करते हैं। 

-कैसे? कोई इस्लाम स्वीकार करता है तो उपासना पद्धति से पहले उसका धर्म भी तो बदला। पूजा करने और नमाज पढऩे में तो अंतर हुआ न?

मैं वहां की बात नहीं कर रहा।

-फिर?

मैं तो हिंदू धर्म की बात कर रहा हूं। एक ही व्यवस्था के भिन्न हिस्सों को अलग एंगिल से नहीं देखना चाहिए। सब वृहद हिंदू समाज के अंश हैं। बुद्ध को हमारे यहां अवतार माना गया। महावीर के हम उपासक। सिखों के दस गुरु हमारे आराध्य। उनके पंच प्यारे हमारे पूज्य। अलग कहां हैं हम। देखिये, सनातन धर्म बहुत प्राचीन है। इतना पुराना होने के कारण उसमें कुछ विकृति आ जाना स्वाभाविक है। ईश्वर छोड़ कोई भी सर्वश्रेष्ठ नहीं होता। अंबेडकर ने भी यह बात मानी और इसीलिए उन्होंने भारत के भीतर जन्मी उपासना विधि को स्वीकार किया। किसी विदेशी विधि को उन्होंने मान्यता नहीं दी। इसीलिए मैं फिर कहता हूं कि जिस कथित दलित-मुस्लिम एकता का दावा किया जा रहा है, वह केवल सपना है।

-नाथ संप्रदाय में सहभोज की परंपरा रही है। महंत अवेद्यनाथ ने इसे बहुत बढ़ाया। इसका कारण?

यह परंपरा अब भी जारी है। जो भी लोग मेरे बारे में बात करते हैं उन्हें एक बार गोरखपुर जाकर हमारे मंदिर जाना चाहिए। वहां का भंडारा देखना चाहिए। देखना चाहिए कैसे सब लोग एक पंगत में बैठकर भोजन करते हैं। कोई किसी जाति, संप्रदाय या धर्म का हो, हमारे यहां सब एक हैं। खाने वाला, बनाने वाला सब एक। कहीं कोई भेदभाव नहीं है। कोई भी दीक्षा ले सकता है। बस, उसे नाथ संप्रदाय की मान्यताओं को मानना होगा। न तो हमारे यहां किसी जाति विशेष को महत्व दिया जाता है और न ही किसी परिवार को। 

-अब एक राजनीतिक प्रश्न। आपके और उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य द्वारा छोड़ी गई लोकसभा सीटों पर उप चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे भी उदाहरण हैं जब सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवार चुनाव हारे। 1978 में आजमगढ़ में शासक दल का प्रत्याशी हारा और दो साल बाद कांग्रेस सत्ता में वापस आ गई।

उत्तर प्रदेश में इस बार ऐसा कुछ नहीं होने वाला। हमने हाल ही के उपचुनाव जीते हैं और भविष्य में इन दोनों सीटों पर भी जीतेंगे। समाज जागरूक है और विभाजनकारी शक्तियों के सभी षडयंत्रों को विफल कर देगा। 2019 में भी हमारी ही जीत तय है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.