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जंग की ललकार, मगर म्यान में तलवार

जितेंद्र शर्मा, कानपुर विधानसभा चुनाव 2017 के लिए लखनऊ से दिल्ली तक भले ही कितनी 'कबड्डी' चल रही

By Edited By: Published: Wed, 24 Aug 2016 01:00 AM (IST)Updated: Wed, 24 Aug 2016 01:00 AM (IST)

जितेंद्र शर्मा, कानपुर

विधानसभा चुनाव 2017 के लिए लखनऊ से दिल्ली तक भले ही कितनी 'कबड्डी' चल रही हो, लेकिन यहां तो खिलाड़ी अभी पाले से दूर ही नजर आ रहे हैं। अस्तित्व का सवाल बन चुके इस चुनाव के लिए सभी दलों के राष्ट्रीय और प्रदेश स्तरीय नेता तो ताल ठोंककर मैदान में हैं, लेकिन यहां अभी फौज तैयार नहीं। भाजपा और कांग्रेस लड़ाके तय करने में सिर खुजला रही हैं। वहीं, सपा और बसपा की फौज तो तैयार हैं, लेकिन तलवार अभी म्यान में है।

2017 का विधानसभा चुनाव सभी दलों के लिए मिशन ही बन चुका है। कानपुर की दस विधानसभा सीटों में पांच पर काबिज सपा के लिए आगे बढ़ने के साथ इन्हें बचाने की चुनौती है। पिछले परिणाम से लगभग संतुष्ट सत्ताधारी दल ने अपनी बिसात में खास बदलाव नहीं किया है। पांच मौजूदा विधायकों के अलावा कैंट, महाराजपुर और किदवई नगर सीट पर पिछले प्रत्याशियों पर ही दांव लगाया है, जबकि आर्यनगर और गोविंदपुर में नए चेहरों पर भरोसा जताया है। वहीं, बसपा के हाथ कानपुर में पूरी तरह खाली हैं। पिछले चुनाव में पार्टी किसी सीट पर खाता भी नहीं खोल सकी थी। इस दफा बिठूर, बिल्हौर, गोविंद नगर और घाटमपुर सीट पर नीला झंडा पिछले बार के दावेदारों के ही हाथ होगा, जबकि कैंट, सीसामऊ, आर्यनगर, किदवई नगर, महाराजपुर और कल्यानपुर सीट के लिए बसपा ने नए चेहरों की तलाश की है। सूबे में मुख्य प्रतिद्वंद्वी सपा और बसपा अपने प्रत्याशियों की घोषणा छह-सात माह पहले ही कर चुकी हैं। मगर, जनता के बीच दोनों ही दलों की सक्रियता अब तक कमजोर ही है। जनसमस्याओं पर खामोश सपा प्रत्याशियों की तो मजबूरी मानी जा सकती है, लेकिन बसपा की निष्क्रियता समझ से परे है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तो लगातार सिंहासन वापसी को मंचों पर सवार हैं, अब आगरा में रैली कर बसपा मुखिया मायावती ने भी चुनावी शंखनाद कर दिया है। उम्मीद की जा सकती है कि अब इन दोनों दलों में तुलनात्मक रूप से सक्रियता ज्यादा देखने को मिलेगी।

दूसरी तरफ ये चुनाव सबसे अहम भाजपा के लिए है। लोकसभा चुनाव के बंपर परिणाम को खालिस 'मोदी लहर' साबित करने पर आमादा गैर भाजपाई दल किसी भी सूरत में भगवा दल का रंग फीका करने की जुगत में हैं। वहीं, भाजपा के लिए दिल्ली और बिहार विधानसभा गंवाने के लिए उप्र का चुनाव 'करो या मरो' जैसी स्थिति का ही है। अंदरखाने पार्टी यह मानकर चल रही है। हर मसले को 'मुद्दा' बनाकर मैदान में नजर आ रही पार्टी के अध्यक्ष सहित शीर्ष नेताओं ने प्रदेश भर में चुनावी सभाएं शुरू कर दी हैं। मगर, भाजपा ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। पार्टी सूत्र कहते हैं कि भाजपा इस दफा 'नो चांस' की नीति पर है, इसलिए प्रत्याशी चयन में देरी हो रही है। पिछले उम्मीदवार रिपीट होंगे या नहीं, ये अभी सवाल ही है। हाईकमान अपने स्तर से सर्वे करा कर फीडबैक ले रहा है कि किस पर दांव सबसे मजबूत होगा। उम्मीद है कि सितंबर में भाजपा अपने पत्ते खोलना शुरू कर दे।

उधर, 27 साल से वनवास काट रही कांग्रेस एकदम से दौड़ने को खड़ी हो गई। जमीनी मजबूती का सुबूत तो मतपेटियां उगलेंगी, लेकिन कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज जरूर है। मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार शीला दीक्षित को विकासवादी चेहरे के रूप में सामने लाकर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर और प्रदेश नेतृत्व ने यात्राएं शुरू कर दी हैं। चुनावी रणनीतिकार पीके सर्वे कर यह तय करने में जुटे हैं कि किस-किस दावेदार पर दांव खेला जाए। स्थानीय मुद्दों पर सक्रियता कुछ नजर आने लगी है। मगर, टिकट से पहले लगभग हर सीट पर दावेदार को अपने ही दल के दूसरे दावेदार से जीतना है। सूत्रों के मुताबिक, कांग्रेस पिछले चुनाव के विजेता, रनरअप और चालीस हजार से अधिक मत हासिल करने वाले प्रत्याशियों पर भरोसा जताने की तैयारी में है। प्रदेश अध्यक्ष के मुताबिक, सितंबर में पहली सूची जारी कर दी जाएगी।

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दलबदल की अंदरखाने कसरत

चुनाव नजदीक आते ही हमेशा की तरह दलबदल और जोड़तोड़ की सियासत भी जोर पकड़ चुकी है। सूत्रों के मुताबिक, लगातार झटके झेल रही बसपा में अभी और सेंध लग सकती है। भाजपा नेताओं का दावा है कि बसपा के कई स्थानीय नेता और कुछ प्रत्याशी संपर्क में हैं। कुछ सपाइयों ने भी भाजपा का दामन थामने की इच्छा जाहिर की है।


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