Move to Jagran APP

कहारों के कंधों पर नहीं दिखाई देतीं दुल्हन की डोलियां

- बदलते परिवेश में इतिहास बनी पुरानी परंपराएं - आधुनिक समय में कारों ने ले ली डोली व घ्

By JagranEdited By: Published: Sun, 29 Nov 2020 07:27 PM (IST)Updated: Sun, 29 Nov 2020 07:27 PM (IST)
कहारों के कंधों पर नहीं दिखाई देतीं दुल्हन की डोलियां

- बदलते परिवेश में इतिहास बनी पुरानी परंपराएं

loksabha election banner

- आधुनिक समय में कारों ने ले ली डोली व घोड़ी की जगह

संवादसूत्र, सहार : बदलते परिवेश व हाईटेक होती दिनचर्या ने पुरानी परंपराओं को इतिहास बना दिया है। भारतीय संस्कृति की कई ऐसे परंपराएं या तो विलुप्त हो गई हैं या होने की कगार पर हैं। चलो रे डोली उठाओ कहार.पिया मिलन की ऋतु आई.। यह गीत जब भी बजता है, कानों में भावपूर्ण मिसरी सी घोल देता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इसमें छिपी है किसी बहन या बेटी के उसके परिजनों से जुदा होने की पीड़ा के साथ-साथ नव दाम्पत्य जीवन की शुरुआत की अपार खुशी। जुदाई की इसी पीड़ा और मिलन की खुशी के बीच की कभी अहम कड़ी रही ''डोली'' आज आधुनिकता की चकाचौंध में विलुप्त सी हो गई है, जो अब ढूढ़ने पर भी नहीं मिलती। एक समय था, जब यह डोली बादशाहों और उनकी बेगमों या राजाओं व रानियों के लिए यात्रा का प्रमुख साधन हुआ करती थीं। तब जब आज की भांति न चिकनी सड़कें थीं और न ही आधुनिक साधन। तब घोड़े के अलावा डोली प्रमुख साधनों में शुमार थी। इसे ढोने वालों को कहार कहा जाता था।

दो कहार आगे और दो ही पीछे अपने कंधो पर रखकर डोली में बैठने वाले को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाते थे। थकान होने पर सहयोगी सहारा बनते थे। मिलने वाले मेहनताने व इनाम इकराम उनके परिवारों की जीवन यापन के साधन थे। यह डोली आम तौर पर दो और नामों से जानी जाती रही है। आम लोग इसे ''डोली'' और खास लोग इसे ''पालकी'' कहते थे। विद्वतजनों में इसे ''शिविका'' नाम प्राप्त था। कालांतर में इसी ''डोली'' का प्रयोग दूल्हा-दूल्हन को लाने व ले जाने में प्रमुख रूप से होने लगा। शादी विवाह में बारातियों व सामान ढोने के लिए बैलगाड़ी का चलन था। गांवों में डोली शान की प्रतीक भी थी। जो शादी में पहले से बुकिग के आधार पर निश्शुल्क मुहैया होती थी। बस कहारों को मेहनताना देना पड़ता था। दूल्हे को लेकर कहार उसकी ससुराल तक जाते थे। विदाई के बाद मायके वालों के बिछुड़ने से दुखी होकर रोती हुई दुल्हन को हंसाने व अपनी थकान मिटाने के लिए कहार तमाम तरह की चुटकी लेते हुए गीत भी गाते चलते थे। विदा हुई दुल्हन की डोली जब गांवों से होकर गुजरती थी तो महिलाएं व बच्चे कौतूहलवश डोली रुकवा देते थे। घूंघट हटवाकर दुल्हन देखने और उसे पानी पिलाकर ही जाने देते थे। जिसमें अपनेपन के साथ मानवता और प्रेम भरी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते थे। समाज में एक-दूसरे के लिए अपार प्रेम झलकता था। जो अब उसी डोली का साथ समाज से विदा हो चुका है। डोली ढोते समय मजाक करते कहारों को राह चलती ग्रामीण महिलाएं जबाव भी खूब देती थीं। जिसे सुनकर रोती दुल्हन हंस देती थी। दुल्हन की डोली जब उसके पीहर पहुंच जाती थी, तब एक रस्म निभाने के लिए कुछ दूर पहले डोली में दुल्हन के साथ दूल्हे को भी बैठा दिया जाता था। फिर उन्हें उतारने की भी रस्म निभाई जाती थी। इस अवसर पर कहारों को फिर पुरस्कार मिलता था। समाज के पुरनियां बताते है कि जिस शादी में डोली नहीं होती थी, उसे बहुत ही हल्के में लिया जाता था।लेकिन आज आधुनिक चकाचौंध में तमाम रीति-रिवाजों के साथ डोली का चलन भी अब पूरी तरह समाप्त हो गया। करीब तीन दशक से कहीं भी डोली देखने को नहीं मिलती है। हां ये जरूर है कि यह परंपरा अब सिर्फ शादी कार्डो में ही सिमट कर रह गई हैं। ऐसे में डोली व कहार ही नहीं, तमाम अन्य परंपराओं का अस्तित्व भी इतिहास बनना लगभग तय ही हैं।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.