मृतात्माओं का पिंड जीवात्माओं का आहार
कुछ अटपटा लगता है कि मृत आत्मा के लिए समर्पित पिंड खाने का काम आता है। लेकिन यही सत्य है। भले ही यह भोजन कहीं मजबूरी बस गरीब परिवार करता है। तो कहीं जानवरों का आहार होता है। इसके लिए भी वेदियों पर मारा-मारी है। अलग-अलग टुकड़ों में बंटे हैं चुनने और बीनने वाले। एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकते। एक पखवारे
गया। कुछ अटपटा लगता है कि मृत आत्मा के लिए समर्पित पिंड खाने का काम आता है। लेकिन यही सत्य है। भले ही यह भोजन कहीं मजबूरी बस गरीब परिवार करता है। तो कहीं जानवरों का आहार होता है। इसके लिए भी वेदियों पर मारा-मारी है। अलग-अलग टुकड़ों में बंटे हैं चुनने और बीनने वाले। एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकते।
एक पखवारे के इस मेले में लाखों लोग आते हैं। 54 वेदियों पर कर्मकांड संपन्न होता है। इसमें प्रमुखता 'पिंड' की है। यानि, जौ का आटा, काला तिल, घृत, मीठा और दूध से सना गोल आकार का पिंड होता है। जो पूर्वजों को वेदी पर समर्पित किया जाता है। यह पिंड मूल रूप से कर्ता के द्वारा छोड़ा जाता है। यानि, वह वस्तु कर्ता के लिए 'अछूत' हो जाता है। और कर्ता अपने कर्मकांड से संतुष्ट होने के उपरांत यह मान बैठता है कि पुरोहित द्वारा संकल्प किया गया पिंड हमारे पूर्वजों को प्राप्त हो गया। यही धारणा लेकर विभिन्न वेदियों पर पिंडदान का कर्मकांड इन दिनों गयाजी के पंचकोसी में चल रहा है।
'अछूत' हुए पिंड को संग्रहित करने की एक जमात उस वेदी पर जमा रहता है। जिसमें बच्चे, बूढ़े और स्त्री-पुरुष दोनों होते हैं। वेदी पर समर्पित पिंड को वे जमा करते हैं। उसके बाद आपस में पिंड के वजन के हिसाब से बटवांरा होता है। जिसके हिस्से में जितना आता है। अपने घर ले जाते हैं। यह क्रम 15 दिनों तक चलता रहेगा। जब-जब धूप निकलता है। तब उन संग्रहित पिंड को सुखाया जाता है। सुखाने के बाद पिसाई और फिर गरीब की रोटी तैयारी होती है। अक्षयवट वेदी के पास पिंड जमा कर रही रुक्मिणी बताती है कि इसमें बुराई क्या है? जौ के आटे का तो ऐसे भी रोटी सब लोग खाते हैं। यह तो और शुद्ध घृत व दूध का मिला हुआ आटा होता है। वो कहती है 'हमरा ला कहीं से इ अछूत चीज न हई, बाल बच्चा के साथ खाही अई।'
विष्णुपद मंदिर और अक्षयवट एक ऐसा स्थान है। जहां भारी मात्रा में पिंड जमा होता है। यहां व्यवसाय भी है। खासकर गो को खिलाने के लिए पिंड की खरीदारी की जाती है। शनिवार को मंदिर के दक्षिण पार्क के बगल में कई बाल्टी और टोकरी में रखे पिंड को कुछ महिलाएं निगरानी करती दिखीं। बातचीत में बताती है कि गो पालक इन पिंड को खरीदकर ले जाते हैं। 50 से 60 रुपये टोकरी बेचते हैं। हमको मंदिर के अंदर 16 वेदी के पास पिंड चुनने और बीनने के लिए कोई रकम नहीं देनी पड़ती। मुफ्त में यह 'प्रसाद' प्राप्त हो जाता है। तो इसे बेचकर परिवार चलाते हैं।
गौरतलब है कि विभिन्न वेदियों पर पिंड को चुनने के लिए भी भीड़ होती है। समाज का यह गरीब तबका पिंड के सहारे भी अपना जीवन गुजारता है। इसके लिए भी आपाधापी है। वैसे में वेदी के प्रबंधकों द्वारा ऐसी व्यवस्था होती है कि सीमित लोग ही पिंड को चुनकर बाहर ले जाए।
विष्णुपद मंदिर प्रबंधकारिणी समिति के अध्यक्ष कन्हैया लाल मिश्र बताते हैं कि पिंड को चुनने के लिए मंदिर के अंदर कई परिवार के सदस्य हैं। जो गेवालबिगहा की पहाड़ी पर रहते हैं। वे लोग आपस में ही चुनने के बाद इसका बंटवारा करते हैं। समिति कहीं से उनके कार्यो में कोई हस्तक्षेप नहीं करती। भले इस बात पर नजर रखी जाती है कि पिंड चुनने के दौरान यात्रियों को कोई परेशानी न हो और ना ही वे आपस में इसको लेकर कोई झगड़ा करे।