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एक कप चाय

बात लगभग 28-30 वर्ष पुरानी है। मेरे पापा एक कंपनी में मशीनिस्ट का काम करते थे। यूनियन की वजह से उनका काम छूट गया। घर के हालात ऐसे हो गए कि पापा कपड़े धोने का साबुन बेचने के लिए फेरी लगाने लगे। सुबह जल्दी निकलते और शाम को देर तक घर पहुंचते। कभी-कभार खाना खाकर चले जाते तो कभी साथ ले जाते।

By Edited By: Published: Mon, 13 Oct 2014 11:47 AM (IST)Updated: Mon, 13 Oct 2014 11:47 AM (IST)

बात लगभग 28-30 वर्ष पुरानी है। मेरे पापा एक कंपनी में मशीनिस्ट का काम करते थे। यूनियन की वजह से उनका काम छूट गया। घर के हालात ऐसे हो गए कि पापा कपड़े धोने का साबुन बेचने के लिए फेरी लगाने लगे। सुबह जल्दी निकलते और शाम को देर तक घर पहुंचते। कभी-कभार खाना खाकर चले जाते तो कभी साथ ले जाते।

एक बार जल्दबाजी में पापा पैक किया हुआ खाना घर पर ही भूल गए। शाम को जब पापा आए तो मैंने पूछा, 'पापा आप खाना तो यहीं भूल गए थे, दिन में कुछ खाया क्या?' पापा ने कहा, 'नहीं बेटा, आज तो सारा दिन कुछ नहीं खाया, न ही कुछ बिक्री हुई। हां, एक दयावान औरत ने एक कप चाय जरूर पिलाई।' पापा ने हंसकर कहा, 'आज तो कई छोटे बच्चे मेरी फेरी लगाने की आवाज की नकल भी कर रहे थे।' यह कहकर वे हंस पड़े।

मुझे ऐसा एहसास हुआ कि शायद वे अपनी मुफलिसी के दर्द को छिपाने की कोशिश में हैं ताकि हमारे बाल मन पर इसका असर न पड़े। पापा की बात सुनकर मैंने मन ही मन उस औरत के लिए भगवान को शुक्रिया कहा और मन में निश्चय किया कि अब मैं भी इसी तरह इन फेरी लगाने वालों के लिए एक कप चाय, खाना-पानी आदि को पूछूंगी।

उस दिन से आज तक मेरे सामने जब भी कभी कोई गरीब या फेरीवाला पड़ता है, तो मैं खाने-पीने के लिए जरूर पूछती हूं। यह आदत शादी के बाद भी बरकरार है। सास-ससुर ने भी मुझे कभी इस बात के लिए मना नहीं किया। अगर दरवाजे पर कोई भूखा व्यक्ति आ गया और मैं किसी काम में लगी रहती हूं, तो कई बार मेरे पति उसे खाना दे देते हैं।

मैंने कई बार ऐसा देखा है कि छोटे बच्चे किसी फेरी वाले की नकल करते हैं, उसका सामान छेड़ते हैं या उठाकर भाग जाते हैं। ऐसे बच्चों पर मैं नजर रखती हूं और उन्हें इसके लिए मना करती हूं। मेरा मानना है कि वक्त की मार किसी पर भी पड़ सकती है। यही बात मैं अपने बच्चों को भी सिखा रही हूं कि हम किसी की ज्यादा नहीं तो इतनी मदद तो जरूर कर सकते हैं कि किसी भूखे को दो निवाले दे सकें या एक कप चाय पिला सकें!

डी. डांगी, समसपुर (हरियाणा)


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