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पंजाब में कारगिल युद्ध में 105 ने पिया था शहादत का जाम

1999 में हुए कारगिल युद्ध में पंजाब के 105 जवान शहीद हुए हैं। कई शहीदों के परिजनों को अभी तक न्याय नहीं मिला है। वे न्याय के लिए भटक रहे हैं।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Tue, 26 Jul 2016 12:20 PM (IST)Updated: Tue, 26 Jul 2016 12:38 PM (IST)

वेब डेस्क, चंडीगढ़। आज कारगिल विजय दिवस है। 1999 में हुए ऑपरेशन विजय में पंजाब के 105 सैनिकों ने शहादत का जाम पिया था। इस युद्ध में नायब सूबेदार निर्मल सिंह को मरणोपरांत वीर चक्र सम्मानित किया गया था, जबकि चार सैनिकों को बहादुरी के लिए सेना मेडल दिए गए थे। शहीदों के सम्मान के लिए सरकार ने कई वादे किए थे, लेकिन फिर भी कई शहीदों के परिजन आज भी अपने दुखों पर आंसू बहा रहे हैं।

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लुधियाना के गांव गिल निवासी कारगिल में शहीद हुए 9 सिख रेजिमेंट के नायक परमजीत सिंह का परिवार भी एेसा ही दर्द झेल रहा है। 75 साल के पिता आर्थिक तंगी से जूझते हुए दम तोड़ गए। बेरोजगार पोते व सर्वाइकल पीडि़त बहू का दर्द झेल रही मां के आंसू अब थमने का नाम नहीं लेते। बेटी को चिंता है कि पढ़ाई जारी रखने के लिए पैसे कहां से आएंगे। इतना ही नहीं, शहीद बेटे का बुत लगाने के लिए मां को डेढ़ लाख रुपये कर्ज लेना लेना पड़ा।
लोगों और परिवार की मन में इच्छा थी कि पति का बुत इसी स्कूल में लगवाया जाए। बहुत कोशिश की, आखिरकार कर्ज लेकर बुत बनवाया। वतन के लोग ऐसे कि शहीद के बुत की सफाई तो दूर परिवार की ओर से रोशनी के लिए लाइट तक चोरी कर ले जाए। हर हफ्ते बेटे को ही शहीद पिता की प्रतिमा की सफाई के लिए जाना पड़ता है।
गांव के ही सरकारी स्कूल में चपरासी की नौकरी कर रही शहीद परमजीत सिंह की विधवा कमलजीत कौर बताती है कि तिरंगे में लिपटा पति का शव गांव गिल आया तो दुख बंटाने जैसे पूरा जहां ही उमड़ पड़ा। बड़े-बड़े वादे सरकार ने भी किए। चंद महीने बाद ही सब कुछ बदल गया।

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सौ गज का प्लॉट दिया, अगले साल नोटिस

सरकार ने 100 गज का प्लॉट व सरकारी स्कूल में सेवादार की नौकरी देकर पल्ला झाड़ लिया। दो साल बाद ही डेढ़ लाख का जुर्माना चुकाने के लिए नोटिस मिला कि आपने इस प्लॉट पर निर्माण नहीं किया। मजबूरी में प्लॉट ही बेचना पड़ा। न पंचायत ने पूछा न रिश्तेदारों ने। साथ दिया तो बस पति की रेजिमेंट ने। शहादत को 17 साल बीत चुके। हर दुख सुख में वह साथ खड़े रहते है। फौज का यही जज्बा देख फैसला लिया कि बेटियों की शादी भी आर्मी में ही करूंगी।

बूढ़े ससुर पर सात लोगों की जिम्मेदारी

बकौल कमलजीत कौर पति जब कारगिल में शहीद हुए तो एक साल की बेटी गोद में थी तो बड़ी बेटी की उम्र थी 7 साल। एक बेटा था पांच साल का जिसे सहारा बनने में अभी लंबा वक्त था। घर के आर्थिक हालात भी अच्छे नहीं थे। कमाने वाले थे फौज से ही रिटायर्ड हो चुके बुजुर्ग ससुर। हम रोटी के लिए मारे मारे फिरते रहे। यह सहारा भी 2014 में टूट गया। सात लोगों का जिम्मा उन्हीं पर आ गया। बाद में सरकार को पत्र भी लिखा कि मुझे दूसरे शहीदों की तरह पेट्रोल पंप, गैस एजेंसी या फिर ऐसी ही अन्य को आय का स्रोत उपलब्ध करवाया जाए पर किसी ने नहीं सुनी।

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स्वतंत्रता दिवस का न्योता तक नहीं आता

कमलजीत कौर की प्रशासन से भी नाराजगी है। कहती हैं शहीदों का सम्मान सब किताबी बाते है। कोई नहीं पूछता। जिले में होने वाले स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवस समारोह तक का न्योता प्रशासन नहीं भेजता।

पत्नी ने पंचायत के सहयोग से लगवाया बुत

उधर, गांव भसौड़ के सिपाही जसवंत सिंह 6 जुलाई, 1999 को सुबह 2.15 बजे कारगिल की लड़ाई में कश्मीर सरहद की बिंदू पोस्ट पर शहीद हो गए। उनकी मौत के बाद उसके बड़े भाई व पिता का भी देहांत हो गया, जिस कारण परिवार को काफी तकलीफों से गुजरना पड़ा। अब जसवंत सिंह की पत्नी मनजीत कौर डीसी दफ्तर में सुपरिंटेंडेंट ग्रेड-1 के पद पर तैनात है। सरकार ने शहीद का बुत बनाने का एलान किया गया था, लेकिन बुत न लगाए जाने के चलते शहीद की पत्नी ने पंचायत के सहयोग से खुद बुत गांव में लगवाया, जो अपने आप में एक मिसाल होगा। जसवंत सिंह 10 सिख लाइट इन्फैट्री के सिपाही थे। गांव के स्कूल का नाम शहीद के नाम पर रखा गया। एक मजदूर संगठन ने मुख्य सड़क से एक यादगारी गेट का भी निर्माण किया। एक क्लब द्वारा प्रतीक चिन्ह भी मुख्य रोड पर बनाया गया, लेकिन अब स्कूल का गेट गिर चुका है।

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