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लोकतंत्र पर व्यर्थ का विमर्श, राहुल कैसे कह सकते हैं कि देश में यह हो रहा है खत्म?

मानहानि मामले में दंडित होने के बाद लोकतंत्र को लेकर उनके सवाल और मुखर हो गए। क्या राहुल की यही समझ है जब कांग्रेस और उसके समर्थक वामपंथी सत्ता में हों तभी देश में लोकतंत्र है? अगर ऐसा है तो उनकी समझ जनता की लोकतांत्रिक समझ से मेल नहीं खाती।

By Jagran NewsEdited By: Amit SinghPublished: Fri, 31 Mar 2023 12:36 AM (IST)Updated: Fri, 31 Mar 2023 12:36 AM (IST)
लोकतंत्र पर व्यर्थ का विमर्श, राहुल कैसे कह सकते हैं कि देश में यह हो रहा है खत्म?
राहुल कैसे कह सकते हैं कि देश में लोकतंत्र हो रहा है खत्म

डा. एके वर्मा: जब अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप के लोकतांत्रिक देश भारतीय लोकतांत्रिक प्रांगण में वसुधैव कुटुंबकम् को प्रोत्साहन देने वाले आयोजन में जुड़ रहे हों और भारत को जी-20 की अध्यक्षता प्रदान कर उसकी लोकतांत्रिक नेतृत्व क्षमता स्वीकार कर रहे हों, तब राहुल गांधी ने विदेशी धरती पर भारतीय लोकतंत्र को लेकर सवाल उठाया और उसके बाद से वह लगातार विवादों में हैं।

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मानहानि मामले में दंडित होने के बाद लोकतंत्र को लेकर उनके सवाल और मुखर हो गए हैं। क्या राहुल की यही समझ है कि जब कांग्रेस और उसके समर्थक वामपंथी सत्ता में हों, तभी देश में लोकतंत्र है? अगर ऐसा है तो उनकी समझ जनता की लोकतांत्रिक समझ से मेल नहीं खाती। स्वतंत्रता के बाद अनेक विद्वानों ने अपने विमर्श में गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन को आधार बनाकर भारतीय लोकतंत्र पर सवाल उठाया।

आपातकाल ने उस संदेह को बढ़ाया। पिछली सदी के अंतिम दशक में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के समय विमर्श गढ़ा गया कि ‘लेवल प्लेइंग फील्ड’ यानी एकसमान अवसर न होने से भारत ‘आर्थिक साम्राज्यवाद’ का बंधक बन जाएगा। ऐसा कुछ हुआ क्या? जब भी भारतीय लोकतंत्र की स्वायत्तता और गत्यात्मकता पर सवाल उठे तो वह और सशक्त होकर उभरा है। आपातकाल के बाद भारतीय लोकतंत्र और दृढ़ हुआ। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था और मजबूत हुई। कहीं भारतीय लोकतंत्र को कठघरे में खड़ा करना बाह्य शक्तियों द्वारा प्रायोजित तो नहीं? क्या इसके लिए वे किसी देसी नेता को ‘साफ्ट टारगेट’ तो नहीं बनाते?

स्वतंत्रता के बाद कई विमर्श बने, जिनसे लोकतंत्र पर संदेह किया गया। इनमें सांप्रदायिक दंगों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उत्तरदायी ठहराया गया। जिस प्रकार कांग्रेस ने मजहबी आधार पर विभाजन कर देश को हिंदू-मुस्लिम दंगों में धकेला, उससे बचने के लिए पार्टी हमेशा संघ को दंगों का उत्तरदायी बना देती। भले ही तथ्य इसके विपरीत क्यों न हों। स्वयं को मुस्लिमों का हितैषी बता, उनके मतों के लिए कांग्रेसी हमेशा उन्हीं का पक्ष लेते, चाहे गलती किसी पक्ष की हो।

दूसरा विमर्श यह था कि भारत में मुस्लिम असुरक्षित हैं। सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा प्रचारित होने से मुस्लिमों के मन में संघ और भाजपा के प्रति नफरत भरने लगी। जबकि भारत में मुस्लिमों को संरक्षण और सम्मान मिला है और वे उतने ही सुरक्षित या असुरक्षित हैं जितना कोई हिंदू। इस विमर्श से हिंदू-मुस्लिम खाई बढ़ी, जिससे दोनों समुदायों के संबंधों, सद्भावना और संवाद में गिरावट आई।

‘बहुसंख्यकवाद’ इस कड़ी में तीसरा विमर्श था। इसमें गढ़ा गया कि हिंदू बहुसंख्यक हैं और अल्पसंख्यकों की उपेक्षा कर देश का शासन चलाना चाहते हैं। मुस्लिमों को ‘विक्टिम’ के रूप में चित्रित किया गया। जबकि तथ्य यही है कि मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं हैं। 1951 के मुकाबले अब उनकी जनसंख्या साढ़े पांच गुना बढ़कर करीब 20 करोड़ हो गई है, जो पाकिस्तान में मुस्लिम जनसंख्या के बराबर है। यह भी सत्य है कि मुस्लिम उपेक्षित या ‘विक्टिम’ नहीं। कई मुस्लिम सर्वोच्च पदों पर आसीन रहे हैं। राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी भागीदारी है। उत्तर प्रदेश, बंगाल और केरल के अलावा कई राज्यों में वे इतनी संख्या में होकर निर्णायक हो गए हैं जिससे नगरीय निकायों में उन्हें अपनी जनसंख्या के अनुपात से ज्यादा प्रतिनिधित्व प्राप्त हो रहा है।

‘मुस्लिम विक्टिमहुड’ कार्ड खेल कई पार्टियां वोट-बैंक के रूप में उनका प्रयोग कर रही हैं जो हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को बढ़ावा देता है। ऐसे विमर्शों से इस्लामिक आतंकी संगठनों को मुस्लिमों को बरगलाने और उन्हें राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में संलिप्त करने का आधार मिल जाता है। इसमें ‘असहिष्णुता’ चौथा विमर्श था। कहा गया कि 2014 में भाजपा के सत्ता में आने से इसमें वृद्धि हुई है। इसके विपरीत भाजपा ने मुस्लिमों के प्रति समावेशी दृष्टिकोण अपनाकर, विकास में उन्हें समानता देकर, सांप्रदायिक दंगों पर नियंत्रण कर तथा मुस्लिम महिलाओं की तीन तलाक जैसी समस्या का समाधान कर मुस्लिम वर्ग का विश्वास जीता है, जो जनादेशों में व्यक्त भी हो रहा है।

कुछ स्वार्थी तत्व ‘पुरस्कार वापसी’ को आधार बनाकर इस मुद्दे को भुनाना चाहते हैं, लेकिन सत्य के आगे तो कोई हथियार चलता नहीं। कथित ‘आइडिया आफ इंडिया’ को भी विमर्श बनाकर लोकतंत्र को चुनौती दी गई। जब विभिन्नता, बहुलता और विविधता भारतीय सभ्यता और संस्कृति का आत्मा है, तो ‘आइडिया आफ इंडिया’ की कोई समरूप अवधारणा कैसे हो सकती है? जिस समाज की दार्शनिक, धार्मिक और आध्यात्मिक आधारशिला में बहुलता को मान्यता हो, वहां किसी समरूप भारतीय स्वरूप की परिकल्पना क्यों की जानी चाहिए?

राहुल गांधी ने जो यह विमर्श छेड़ा है कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो गया है, उससे राजनीतिक परिदृश्य में तूफान आ गया है। जो व्यक्ति लोकतंत्र के आत्मा से अनभिज्ञ हो, जिसकी पार्टी में कोई 20 वर्षों तक अध्यक्ष पद पर काबिज रहे, जिस पार्टी ने आपातकाल लगाकर लोकतंत्र का गला घोंटा हो, जिस पार्टी के नेताओं और समर्थकों ने 1984 में हजारों सिखों का कत्लेआम कराया हो, जिस पार्टी ने 1959 में केरल की वापमंथी सरकार को बर्खास्त कर लोकतांत्रिक संघवाद को दरकाने में पहली कील ठोंकी हो, उस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता विदेश में जाकर कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो गया है। यह तो ‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली कहावत को चरितार्थ करना है।

जिस विदेशी पूंजी निवेश को हम तरसते थे, आज विश्व के विकसित देश उसके लिए आतुर हैं। यह सब इसी कारण हो रहा है कि ये देश भारतीय आर्थिकी और लोकतंत्र के प्रति आश्वस्त हैं। ऐसे में राहुल भला कैसे कह सकते हैं कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो रहा है? भारतीय लोकतंत्र इन छद्म लोकतांत्रिक विमर्शों के मकड़जाल में फंसने वाला नहीं। जनता को मूर्ख बनाकर बहुत शासन हो चुका। आज उसे लोकतंत्र के सच्चे स्वरूप का भान है। हमें जनता की समझ, उसकी निष्पक्षता और जनादेश का सम्मान करना चाहिए।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं)


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