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नदियों में शव डालने का पाप: चिता और चिंतन दोनों को बदलने की जरूरत

जब बात लकड़ियों की कमी और पर्यावरण की हो रही है तो चिता और चिंतन दोनों को बदलना हो। अब शवों को लकड़ियों के स्थान पर उपलों से जलाने पर विशेष ध्यान देना होगा। इससे गौ भी बचेगी पर्यावरण भी बचेगा पीढ़ियां भी बचेंगी और पेड़ भी बेचेंगे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 20 May 2021 09:25 AM (IST)Updated: Thu, 20 May 2021 09:27 AM (IST)
नदियों में शव डालने का पाप: चिता और चिंतन दोनों को बदलने की जरूरत
जब बात लकड़ियों की कमी और पर्यावरण की हो रही है तो चिता और चिंतन, दोनों को बदलना होगा।

स्वामी चिदानंद सरस्वती। भारत में संस्कृति और संस्कारों का बड़ा महत्व है। हमारी सनातन संस्कृति, संस्कारों पर आधारित है। इसका न आदि है और न अंत। यह अविनाशी, अजेय और निरंतर है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिए संस्कारों की अनमोल धरोहर सौंपी हैं। गर्भाधान संस्कार से लेकर मृत्यु के पश्चात मृत शरीर को शास्त्रोक्त पद्धति से चिता में जलाना अर्थात अंत्येष्टि संस्कार का विशेष महत्व है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने वेदों के आधार पर शवों को अग्नि में जलाकर दाहसंस्कार करने का विधान बनाया।

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भारत पर कोरोना का कहर वज्रपात की तरह बरसा। कोरोना से ये जो मौतें हो रही हैं, वे महज एक आकंडा नहीं, बल्कि किसी की पूरी की पूरी दुनिया हैं। कुछ स्थानों से गंगा और अन्य नदियों में बहते शव और उनके तटों पर रेत में समाधि देने वाली सूचनाएं प्राप्त हुईं। ये अत्यंत हृदय विदारक और चिंता का विषय भी हैं। इस समय श्मशानों पर भीड़ है। लकड़ियां और अंतिम संस्कार की अन्य सामग्री के बढ़ते दामों की वजह से लोग अपने प्रियजनों के शवों को नदियों में बहा रहे या उनके तटों पर रेत में समाधि दे रहे हैं। यह पार्थिव शरीर का अपमान है।

इससे अन्य स्वास्थ्य समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं। प्रश्न यह भी है कि जिनके कोई सगे संबंधी नहीं हैं और उनकी कोरोना से अस्पताल में मौत हो जाती है तो उनके अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी किसकी है? कई स्थानों पर शव परिवारजनों को नहीं सौंपा जाता, बस सिर्फ मौत की सूचना दे दी जाती है। सभी चाहते हैं उनके अपनों की अंतिम विदाई पूरे विधि-विधान से की जाए। इससे पार्थिव शरीर की मर्यादा बनी रहेगी और धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपरा के साथ परिवारवालों की इच्छाओं का भी सम्मान होगा, पर गंगा और अन्य नदियों में बहते शव उन परिवार वालों की मजबूरी दिखा रहे हैं, जो इस समय अपनों का अंतिम संस्कार ठीक से नहीं कर पा रहे हैं।

लोगों के पास शव जलाने के लिए लकड़ियां उपलब्ध नहीं हैं। जहां हैं वहां पर उनकी कालाबाजारी हो रही है। कई बार लोगों के पास इतने पैसे भी नहीं होते कि चिता जला सकें, इसलिए भी लोग अपने स्वजनों की मुक्ति के लिए नदियों में पार्थिव शरीर डाल रहे हैं। यह सोचने का विषय है कि शव नदियों में डाले क्यों जा रहे हैं? सदियों से चली आ रही संस्कार पद्धति को छोड़कर लोगों को अपनों के शवों को नदी में डालने या उसके तटों पर पड़ी रेत में समाधि देने के पीछे कौन सी मजबूरी रही होगी? यह किसी से छिपा नहीं है कि संवेदनहीनता भी इस समय चरम सीमा पर है। बात चाहे एंबुलेंस की हो, अस्पतालों में बेड की हो, आक्सीजन की हो, जीवन रक्षक दवाइयों की, दाह संस्कार हेतु लकड़ियों की-इन सबकी कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। दूसरी ओर विकास के नाम पर अवैज्ञानिक रूप से जंगलों को काटा जा रहा है।

अब असली जंगल तो समाप्त हो रहे हैं, परंतु कंक्रीट के जंगलों का अंबार लग रहा है। अभी तक कटते जंगलों ने पर्यावरण और विकास के बीच द्वंद्व को जन्म दिया था, पर अब आस्था और व्यवस्था पर भी प्रहार हो रहा है। जिन्होंने अपनों को खोया और उन्हें सुलगती-धधकती चिता में अपने हाथों नहीं सौंप पाए, उनके हृदय में जीवन पर्यंत यह विचार भी चिता की तरह ही धधकता रहेगा। यह भी चिंतन का विषय है कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? इस समय कोई कंधे पर अपनों का शव ढो रहा तो कोई साइकिल पर। इतनी इंसानियत तो सबमें होनी चाहिए कि अगर किसी की मदद न कर सकें, दान न दे सकें तो कोई बात नहीं, परंतु कालाबाजारी तो न करें। किसी की बेबसी और लाचारी का फायदा तो न उठाएं, क्योंकि एक दिन सभी को इसी रास्ते से जाना है।

मां गंगा भारत के पांच राज्यों से होकर बहती हैं और कई गांवों के लोग गंगाजल का उपयोग पेयजल, सिंचाई और स्नान आदि के लिए करते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था का मेरूदंड और भारतीय अध्यात्म का सार भी हैं मां गंगा। गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा के तट पर अनेक तीर्थ हैं। 50 करोड़ से अधिक लोगों की आजीविका केवल गंगा के जल पर निर्भर है और 25 करोड़ लोग तो पूर्ण रूप से गंगा जल पर आश्रित हैं। गंगा आस्था ही नहीं आजीविका और केवल जल का ही नहीं, बल्कि जीवन का भी स्नोत है। हमारे लिए गंगा एक नदी की तरह नहीं, बल्कि एक जागृत स्वरूप है। नदियों के तटों और कैचमेंट एरिया में शवों को दफनाना या शवों को प्रवाहित करना एक नई समस्या को जन्म देने जैसा है।

अधजले या बिना जले शव गंगा के प्रवाह के साथ जहां पर भी जाकर रुकेंगे, उसके आसपास का वातावरण दुर्गंधयुक्त एवं प्रदूषित हो सकता है। इससे जलजनित बीमारियों में वृद्धि हो सकती है और जलीय जीवन भी प्रभावित हो सकता है। गंगा हजारों वर्षों से अपने बच्चों को सुख और शांति दे रही है और मृत्यु के बाद आश्रय भी देगी, परंतु प्रश्न है मानवता और आस्था का। कहा जाता है मृत्यु के पश्चात प्रभु के श्री चरणों में स्थान प्राप्त होता है। वे एक बेहतर दुनिया में चले जाते हैं, इसलिए उनकी अंतिम विदाई भी बेहतर होनी चाहिए। जब बात लकड़ियों की कमी और पर्यावरण की हो रही है तो चिता और चिंतन, दोनों को बदलना हो। अब शवों को लकड़ियों के स्थान पर उपलों से जलाने पर विशेष ध्यान देना होगा। इससे गौ भी बचेगी, पर्यावरण भी बचेगा, पीढ़ियां भी बचेंगी और पेड़ भी बेचेंगे।

(लेखक परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के परमाध्यक्ष हैं)


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