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पीएफआइ पर प्रतिबंध के बाद की चुनौतियां, सुरक्षा एजेंसियों को रहना होगा सतर्क

PFI 2010 में तब चर्चा में आया था जब इसके कार्यकर्ताओं ने केरल में टीए जोसेफ नामक प्रोफेसर की कलाई सिर्फ इसलिए काट दी थी क्योंकि उनके अनुसार जोसेफ द्वारा बनाए गए प्रश्नपत्र का एक प्रश्न इस्लामिक मान्यताओं का अपमान करता था।

By JagranEdited By: Praveen Prasad SinghPublished: Wed, 28 Sep 2022 11:09 PM (IST)Updated: Thu, 29 Sep 2022 09:20 PM (IST)
पीएफआइ पर प्रतिबंध के बाद की चुनौतियां, सुरक्षा एजेंसियों को रहना होगा सतर्क
अतीत का अनुभव दर्शाता है कि पीएफआइ जैसे संगठन पुरानी केंचुली उतारकर जल्द ही नया रूप धारण कर लेते हैं।

दिव्य कुमार सोती : देश भर में ताबड़तोड़ छापों के बाद अंततः भारत सरकार ने कट्टरपंथी संगठन पापुलर फ्रंट आफ इंडिया यानी पीएफआइ और उससे संबंधित संगठनों पर पांच वर्ष का प्रतिबंध लगा दिया। यह संगठन 2010 में तब चर्चा में आया था, जब इसके कार्यकर्ताओं ने केरल में टीए जोसेफ नामक प्रोफेसर की कलाई सिर्फ इसलिए काट दी थी, क्योंकि उनके अनुसार जोसेफ द्वारा बनाए गए प्रश्नपत्र का एक प्रश्न इस्लामिक मान्यताओं का अपमान करता था। इस क्रूरता ने देश में सनसनी फैला दी थी। उससे व्याप्त आतंक का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि केरल में मुखर रहने वाले चर्च ने भी उस समय जोसेफ का साथ छोड़ दिया था। ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित जिस कालेज में वह पढ़ाते थे, उन्हें वहां से निकाल दिया गया। तंग आकर उनकी पत्नी ने आत्महत्या कर ली। इस बर्बर कृत्य के बाद पीएफआइ देश भर में अपने पैर पसारता गया। जिस आतंकी संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया यानी सिमी पर प्रतिबंध लगा था, उससे जुड़े लोग भी पीएफआइ से जुड़ते गए। इसके बावजूद पीएफआइ पर कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई।

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पीएफआइ की क्रूरता के अंतहीन किस्से हैं। 2019 में उसके कार्यकर्ताओं ने मतांतरण पर एक बहस के कुछ घंटों बाद ही पीएमके नेता रामलिंगम की उनके घर में निर्मम हत्या कर दी थी। 2014 में केरल पुलिस द्वारा केरल हाई कोर्ट में दाखिल हलफनामे में पीएफआइ के कार्यकर्ताओं पर हत्या के 27, हत्या के प्रयास के 85 और सांप्रदायिक हिंसा के 106 मामलों में संलिप्तता का उल्लेख किया गया। इसके अलावा केरल पुलिस की ओर से उच्च न्यायालय के समक्ष यह कहा गया कि पीएफआइ सिमी का ही नया रूप है।

किसी सख्त कार्रवाई के अभाव में बीते 12 वर्षों के दौरान पीएफआइ ने खाड़ी देशों से मिले चंदे और जकात के नाम पर लोगों को गुमराह कर देश-विदेश में अपना एक बड़ा तंत्र विकसित कर लिया। जिस संगठन ने एक अध्यापक का हाथ काटने से अपना आगाज किया हो, उसी का सहयोगी संगठन-कैंपस फ्रंट आफ इंडिया नाम से देश भर के विश्वविद्यालयों में फैल गया। इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह छात्रों में कट्टरपंथ के कैसे बीज बोता होगा। इसका एक नमूना कर्नाटक के हालिया हिजाब विवाद और उसके चलते एक युवक हर्ष की हत्या के रूप में सामने आ ही चुका है।

पीएफआइ मिस्र में जन्मे इख्वान-उल-मुसलमीन यानी मुस्लिम ब्रदरहुड के प्रतिरूप को भारत में स्थापित करने के अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र का हिस्सा है। यह संगठन जाने-माने कट्टरपंथी मौलाना और जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मदूदी और मुस्लिम ब्रदरहुड के बड़े नेता अल कुतुब की विचारधारा को भारत में फैलाने में जुटा था। यह अतिवादी संगठन जब चुनाव जीतकर मिस्र की सत्ता पर बैठा तो उसके समर्थकों ने वहां हिंसा का ऐसा भयावह प्रदर्शन किया कि मिस्र की सेना और जनता को तख्तापलट कर उसे सत्ता से बेदखल करना पड़ा।

जब मिस्र की अदालत में हिंसा फैलाने के मामले में मुस्लिम ब्रदरहुड के तत्कालीन सर्वोच्च नेता मोहम्मद मोर्सी पर मुकदमा चला तो पीएफआइ ने नई दिल्ली स्थित मिस्र दूतावास के बाहर भारी हंगामा किया। अपने छोटे शासनकाल में मुस्लिम ब्रदरहुड ने मिस्र के समाज में कट्टरपंथ का ऐसा जहर घोला कि उसके सेनाध्यक्ष जनरल सीसी को विश्व में इस्लामिक शिक्षा का केंद्र मानी जाने वाली अल-अजहर यूनिवर्सिटी में जाकर कहना पड़ा कि यह कैसे संभव है कि मुसलमान विश्व में रह रहे गैर-मुस्लिमों को समाप्त करने की सोचें और उसमें सफल भी हो पाएं?

मुस्लिम ब्रदरहुड को न सिर्फ मिस्र, बल्कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे तमाम इस्लामिक देश प्रतिबंधित कर चुके हैं। सिर्फ तुर्किये और कतर ही सऊदी अरब से अपनी प्रतिद्वंद्विता के चक्कर में मुस्लिम ब्रदरहुड को शह दे रहे हैं। यह भी न भूलें कि नुपुर शर्मा के बयान पर जब देश भर में बवाल हुआ तो इंटरनेट मीडिया पर भारत विरोधी ट्रेंड मिस्र और कतर जैसे उन्हीं देशों से चले, जहां मुस्लिम ब्रदरहुड की सक्रियता है। नुपुर के बयान पर सबसे पहले हंगामा करने वाली कतर सरकार ही थी, जिसका मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ करीबी रिश्ता है। ये तथ्य भारत को अस्थिर करने की साजिश के बारे में बहुत कुछ कहते हैं।

भारत विरोधी मानसिकता वाले पीएफआइ पर प्रतिबंध की मांग तो नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हुए दंगों के बाद से ही जोर पकड़ रही थी। पीएफआइ भी इससे भलीभांति परिचित होगा कि उस पर प्रतिबंध की तलवार लटकी हुई है। ऐसे में उससे निपटने की उसने पूरी तैयारी की होगी। खुफिया रिपोर्ट आती रही हैं कि पीएफआइ ने तमाम फर्जी पदाधिकारी बना रखे हैं, ताकि असली नेता कानूनी शिकंजे से बचे रहें। ऐसे में प्रतिबंध को प्रभावी ढंग से लागू करना सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगी।

यह संगठन कितना सक्षम हो चुका था, यह इससे पता चलता है कि तमिलनाडु में छापे के दौरान गहरे समुद्र में चिह्नित होने से बचाने वाले यंत्र भी उसके कार्यकर्ता से बरामद किए गए। बिहार से पीएफआइ के ठिकाने से मिले उस दस्तावेज की भी अनदेखी नहीं की जा सकती, जिसमें 2047 तक भारत को इस्लामी राष्ट्र बनाने का खाका दर्ज था।

भारत सरकार ने अभी पीएफआइ की राजनीतिक इकाई एसडीपीआइ को प्रतिबंधित नहीं किया है। संभव है कि इसके लिए अभी कुछ और साक्ष्य एकत्र किए जा रहे हों या फिर इसमें और कोई पेच हो। हो सकता है कि चुनाव आयोग उस पर कोई चाबुक चलाए। हालांकि अतीत का अनुभव यही बताता है कि पीएफआइ जैसे संगठन पुरानी केंचुली उतारकर जल्द ही नया रूप धारण कर लेते हैं। ऐसे में सुरक्षा एजेंसियों को सतर्क रहना होगा कि यदि पीएफआइ ऐसा कुछ करे तो अविलंब उस पर शिकंजा कसा जा सके। ऐसे संगठन आतंकी विचारधारा को मुख्यधारा में लाने में पारंगत होते हैं। इस तरह ये सीमा पार सक्रिय आतंकी संगठनों से भी अधिक खरतनाक हैं, क्योंकि ये देश के भीतर ही जहर और आतंक फैलाते हैं।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रेटजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)


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