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Bengal Election Result 2021: बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक के साथ बढ़ी चुनौतियां

तृणमूल के भीतर असंतोष और परिवारवाद के आरोपों से अलग करना भी पार्टी के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। सरकार बनने के बाद भी पिछले ढर्रे पर चलना तृणमूल के लिए शुभ संकेत नहीं होगा। बंगाल में भयमुक्त शासन और राजनीतिक हिंसा को नियंत्रित करना ममताकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 04 May 2021 09:56 AM (IST)Updated: Tue, 04 May 2021 11:13 AM (IST)
Bengal Election Result 2021: बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक के साथ बढ़ी चुनौतियां
लंबे समय तक सत्ता में रहीं वामपंथी पार्टियां और कांग्रेस शून्य पर सिमट गई।

अभिषेक रंजन सिंह। बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को दो-तिहाई से अधिक बहुमत हासिल होने से ममता बनर्जी का सियासी इकबाल निश्चित तौर पर बढ़ेगा। हालांकि बंगाल में ममता बनर्जी के समक्ष किसी दमदार चेहरे की कमी झेल रही भाजपा को सुवेंदु अधिकारी के रूप में एक बड़ा नेता अवश्य मिल गया है। बंगाल का चुनावी समर भले ही तृणमूल जीत गई, लेकिन नंदीग्राम में सुवेंदु के हाथों ममता की हार को जल्द भुलाया नहीं जा सकता।

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चुनावी नतीजों के विश्लेषण में कई बातें स्पष्ट हैं। पहला तृणमूल सरकार के खिलाफ भाजपा ने आक्रामक रूप से चुनाव अभियान चलाया और उसका एक माहौल जरूर दिखाई पड़ा। ऐसा लग रहा था कि इस बार तृणमूल की राह उतनी आसान नहीं है। इस बार बंगाल में ध्रुवीकरण जरूर हुआ, लेकिन उसका सीधा फायदा तृणमूल को मिला। लोकसभा चुनाव में वाममोर्चा और कांग्रेस को मिले वोट प्रतिशत भी पूरी तरह टीएमसी के खाते में चले गए। बंगाल में सुदूर उत्तर के दार्जिलिंग लोकसभा एवं सुदूर दक्षिण के आसनसोल लोकसभा सीट तक सीमित रहने वाली भाजपा ने 18 सीटें जीतकर वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव में यह तो साबित कर दिया था कि वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव में उसका मुकाबला तृणमूल से ही होगा।

बंगाल के चुनावी नतीजे भी इसकी पुष्टि करते हैं। वामदल, कांग्रेस और इंडियन सेक्युलर फ्रंट ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा। मगर त्रिकोणीय मुकाबला तो दूर इस चुनाव में तीनों दलों का वजूद ही समाप्त हो गया। वाममोर्चा और कांग्रेस ने बंगाल के चुनावी इतिहास में सबसे खराब प्रदर्शन किया। तृणमूल की तरफ से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पार्टी का बड़ा चेहरा थीं। भाजपा ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने किसी नेता को आगे नहीं किया। लोकसभा चुनाव के बाद ही भाजपा ऐसा कर सकती थी। हालांकि प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष के नाम की चर्चा जरूर थी। फिर भी उनके नाम को आगे नहीं बढ़ाया गया। यह भाजपा की एक चूक थी, क्योंकि बंगाल में पार्टी का जनाधार बढ़ाने में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। चुनाव की तारीखों की घोषणा के कुछ दिनों बाद ही तृणमूल ने अपने सभी उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी। एक साथ प्रत्याशियों की घोषणा जल्दबाजी भरा कदम जरूर था। लेकिन ममता ने यह जोखिम उठाया और उसमें वह सफल भी रहीं।

ध्रुवीकरण : इस बार चुनाव को धार्मिक रंग देने में भाजपा और तृणमूल ने कोई कसर नहीं छोड़ी। बंगाल में पूरी आबादी का करीब 30 फीसद हिस्सा मुस्लिमों का है। सूबे में करीब आठ जिले ऐसे हैं जहां उनकी संख्या 40 फीसद या उससे अधिक है। तृणमूल को तीसरी बार सत्ता दिलाने में मुस्लिम मतदाताओं की बड़ी भूमिका है। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने बंगाल के मुस्लिम बहुल सात सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन वे सभी हार गए। फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास की इंडियन सेक्युलर फ्रंट, कांग्रेस और वामदलों ने साझा चुनाव लड़ा। अनुमान था कि इस बार मुसलमानों के वोट बंटेंगे और तृणमूल को नुकसान होगा। लेकिन इसके उलट मुसलमानों का एकमुश्त वोट टीएमसी के खाते में चला गया। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 43.3 फीसद वोट मिले थे, लेकिन इस बार करीब पांच फीसद इजाफे के साथ टीएमसी को 47.9 फीसद वोट मिले। भाजपा को लोकसभा चुनाव में 40.7 फीसद मत मिले थे, लेकिन इस बार दो फीसद की गिरावट के साथ 38.1 फीसद मत मिले। टीएमसी को मिले इस फायदे की पहली वजह एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन को लेकर मुसलमानों में असुरक्षा की भावना थी।

सीएए यानी नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर भाजपा आश्वस्त थी कि लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में भी मतुआ समाज पूरी तरह उनके साथ आएंगे। लेकिन मतुआ बहुल कई इलाकों में भाजपा को मिली शिकस्त ने पार्टी की चिंता बढ़ा दी है। जबकि चुनाव प्रचार के दौर में अपनी बांग्लादेश यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मतुआ संप्रदाय के सबसे पवित्र स्थल में पूजा अर्चना की थी। इस बार चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को मतुआ समाज का समर्थन अधिक मिला। सीएए को लेकर मतुआ समाज भाजपा के साथ आया, लेकिन विधेयक पारित होने के बाद भी इस मामले में कोई प्रगति नहीं होने से मतुआ समाज में भाजपा के प्रति थोड़ी नाराजगी थी।

बंगाली अस्मिता और तृणमूल : विधानसभा चुनाव में हिंदू, मुस्लिम, बंगाली और गैर बंगाली का मुद्दा भी जोरों से उछाला गया। भाजपा और तृणमूल कांग्रेस ने इस बहाने शब्दों की मर्यादाएं भी लांघी। यहां बंगाली अस्मिता भावनात्मक होने के साथ ही एक संवेदनशील मुद्दा भी है। हालांकि बंगाल के विकास में गैर बंगालियों खासकर मारवाड़ी समाज, हिंदी भाषी राज्यों के लोगों का बड़ा योगदान रहा है। बंगाल के औद्योगिक जिलों दुर्गापुर, आसनसोल, हावड़ा, बैरकपुर, खड़गपुर, बर्नपुर आदि की स्थापना में उत्तर भारतीयों का काफी योगदान है। मारवाड़ियों के दखल का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कोलकाता के आस-पास जूट मिलों के ज्यादातर मालिकान इसी समुदाय से थे और कामगार हिंदी भाषी। इस बार विधानसभा के नतीजों पर गौर करें तो बंगाल के औद्योगिक इलाकों में भाजपा को अच्छी सफलता मिली है। गांव-देहात में भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ी है, शहरों में कुलीन बंगाली समाज का एक बड़ा तबका टीएमसी के साथ है। इस वर्ग को अपने साथ लाने के लिए भाजपा को खास रणनीति बनानी होगी। इस चुनाव में भाजपा से एक और बड़ी चूक हुई है, गैर अनुभवी कार्यकर्ताओं की फौज बंगाल में तैनात करना, जिन्हें न तो वहां का भूगोल और भाषा की जानकारी थी। ऐसे चुनावी पर्यटन से सीख लेने की जरूरत है।

तृणमूल जीती, लेकिन ममता से नाराजगी भी : तीसरी बार चुनावी जीत हासिल कर तृणमूल सरकार की वापसी हुई है। लेकिन भ्रष्टाचार, राजनीतिक हिंसा, विकास, कमीशनखोरी और बेरोजगारी के मुद्दे पर सरकार के खिलाफ लोगों का गुस्सा समाप्त हो गया है ऐसा भी नहीं है। वर्ष 2011 के चुनाव में ममता बनर्जी ने जो वादे किए थे, उनमें कितने पूरे हुए यह बड़ा सवाल है। शुभेंदु अधिकारी जैसे कई नेता तृणमूल छोड़ भाजपा में शामिल हो गए। बावजूद इसके ममता खामोश रहीं और इसकी समीक्षा करने की जरूरत नहीं समझी। अधिकारी जैसे नेताओं की वजह से आज भाजपा एक प्रमुख विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी है।

तृणमूल के भीतर असंतोष और परिवारवाद के आरोपों से अलग करना भी पार्टी के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। सरकार बनने के बाद भी पिछले ढर्रे पर चलना तृणमूल के लिए शुभ संकेत नहीं होगा। बंगाल में भयमुक्त शासन, औद्योगिक विकास और राजनीतिक हिंसा को नियंत्रित करना ममता सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। लोकसभा चुनाव में जंगलमहल के इलाकों में भाजपा को बड़ी जीत मिली थी, लेकिन इस बार प्रदर्शन उतना प्रभावी नहीं रहा। इसमें कोई संदेह नहीं कि भाजपा को शहरों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में ज्यादा वोट मिले हैं। चुनाव के नतीजे इसकी तस्दीक करते है।

[स्वतंत्र पत्रकार]


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