निर्भीक और बेबाक लोहिया ने नेहरू के रोजाना खर्चे पर उठाए थे सवाल
सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं ने लोहिया से आग्रह किया कि वे अपने भाषण में मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा और पर्दा प्रथा पर कुछ ना कहें। वरना मुसलमान उनके खिलाफ वोट करेंगे।
नई दिल्ली [अभिषेक रंजन सिंह]। कुछ नेता ऐसे होते हैं, जो सरकार की नीतियों का सकारात्मक और रचनात्मक विरोध करने के लिए जाने जाते हैं। विरोध करने की उनकी नीति सटीक तर्को पर आधारित होती है, जिसके विरोधी भी कायल हो जाते हैं। हम बात कर रहे हैं समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया की, जिनकी आज 108वीं जयंती है। हालांकि उन्होंने कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया, क्योंकि सरदार भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव को इसी दिन फांसी दी गई थी। डॉ. लोहिया को गुजरे पचास वर्ष हो गए। उनके बिना देश की संसदीय राजनीति उत्तरोत्तर पतित होती गई। 57 साल की उम्र में डॉ. लोहिया का निधन हो गया, लेकिन इतने कम समय में उन्होंने संसदीय राजनीति और भारतीय जनमानस पर एक अमिट छाप छोड़ी।
नेपाल में राणाशाही के खिलाफ आंदोलन
डॉ. लोहिया ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में हिस्सा लिया, पड़ोसी देश नेपाल में राणाशाही के खिलाफ भी आंदोलन किया और गोवा मुक्ति संग्राम में उनके योगदानों की तो खैर कोई बात ही नहीं। उन दिनों लोकसभा में कांग्रेस विशाल संख्याबल में थी फिर भी सदन में लोहिया और उनके सहयोगियों की मजबूत दखल रहती थी। आज लोकसभा के दोनों सदनों में सरकार की नीतियों के खिलाफ हंगामे हो रहे हैं। लोहिया के जमाने में भी हुआ करता था। फर्क सिर्फ इतना था कि पहले विपक्ष की आपत्तियां तर्क आधारित होती थीं। दुर्भाग्य से आज संसद राजनीतिक दलों के लिए प्रचार का एक मंच रह गया है। मिसाल के तौर पर पिछले दिनों इराक के मोसुल शहर में 39 भारतीय कामगारों की हत्या के मामले में विदेश मंत्री संसद के दोनों सदनों में अपना वक्तव्य देना चाहती थीं, लेकिन लोकसभा में विपक्षी दलों के हंगामे की वजह से वह संपूर्ण बयान नहीं दे पाईं।
सरकार की मंशा पर सवाल
इसे लेकर सरकार की मंशा पर सवाल उठाए जा सकते हैं। लेकिन ऐसे अहम मुद्दों पर भी संसद की कार्यवाही को बाधित करना लोकतंत्र और जनता के हित में नहीं है। अपने सकारात्मक विरोध के लिए डॉ. लोहिया देश भर में मशहूर थे। पंडित नेहरू के अत्यंत करीबी होने के बावजूद वह कांग्रेस की नीतियों का विरोध करते थे। गैर बराबरी के खिलाफ वह हमेशा मुखर रहते थे। वैसे तो लोहिया फूलपुर और चंदौली से भी लोकसभा का चुनाव लड़े, लेकिन उन्हें जीत नहीं मिली। पहली बार 1963 में फरुखाबाद लोकसभा उपचुनाव जीतकर वह संसद पहुंचे थे। उनका संसदीय कार्यकाल काफी कम रहा, लेकिन उनकी मृत्यु के पांच दशक बाद भी उनके भाषणों और तार्किक बहसों को आज भी याद किया जाता है।
नेहरू के रोजाना खर्चे पर सवाल
छह सितंबर, 1963 का वह दिन जब संसद में प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के रोजाना खर्चे पर सवाल उठाते हुए लोहिया ने कहा था, जहां देश के गरीब आदमी की प्रतिदिन की आय तीन आना है, वहीं प्रधानमंत्री जी का दैनिक खर्चा पच्चीस हजार रुपये है। लोहिया हमेशा दलीय राजनीति से ऊपर उठकर जनहित की बात करते थे। उन्होंने केरल में संविद सरकार के दौरान किसानों पर हुई पुलिस फायरिंग के मामले में अपनी ही सरकार से इस्तीफा मांग लिया था। अपनी सरकार से इस्तीफे की मांग करना आजाद भारत में बुनियादी राजनीतिक ईमानदारी का एक बड़ा साक्ष्य है, जो मौजूदा समकालीन नेताओं में दुर्लभ ही नहीं, बल्कि असंभव है।
अधिकारों के प्रति गंभीर थे डॉ. लोहिया
स्त्रियों की आजादी और उनके अधिकारों के प्रति डॉ. लोहिया काफी गंभीर थे। बात 1963 के फरुखाबाद उपचुनाव की है। सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं ने लोहिया से आग्रह किया कि वे अपने भाषण में मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा और पर्दा प्रथा पर कुछ ना कहें। वरना मुसलमान उनके खिलाफ वोट करेंगे। इस पर लोहिया ने कहा मैं वहीं कहूंगा जो सच है और इस तरह उन्होंने मुस्लिम महिलाओं की आजादी के सवाल पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की नीतियों की जमकर आलोचना की। उनका मानना था कि चुनाव सिर्फ जीतने के लिए नहीं लड़ा जाना चाहिए। तुष्टीकरण से मुक्त अपने विचारों को फैलाने व जनता से राय लेने के लिए चुनाव लड़ना चाहिए।