टोक्यो में नए भारत का उदय, ओलिंपिक में हुए कमाल ने कोविड महामारी की हताशा पर लगाया मरहम
Tokyo Olympics 2020 बीजिंग में अभिनव बिंद्रा का शूटिंग में गोल्ड मेडल जीतना सनसनीखेज था लेकिन नीरज चोपड़ा के जेवलिन थ्रो ने भरोसे की वह नींव रखी है जो खिलाड़ियों को एक पाठ के रूप में पढ़ाई जाएगी।
मनीष तिवारी। नीरज चोपड़ा का जेवलिन थ्रो में ओलिंपिक गोल्ड मेडल भारत के लिए गेम चेंजर है। टोक्यो में सात पदक हमारे देश को खेलों में शक्ति के रूप में नहीं दिखाते, लेकिन यह महसूस किया जा सकता है कि हम उस रेखा के काफी करीब आ गए हैं जो औसत और विलक्षण को विभाजित करती है। 23 जून, 1983 को लार्डस में गार्डन ग्रीनिज ने अगर बलविंदर सिंह संधू को हल्के में लेने की गलती नहीं की होती तो शायद न हम इस स्टेडियम की बालकनी में कपिल देव और उनके खिलाड़ियों को विश्वकप ट्राफी लिए देखते और न ही आज भारत की क्रिकेट टीम पावर हाउस के रूप में नजर आती।
ओलिंपिक खेलों के लिहाज से टोक्यो के नेशनल स्टेडियम में पिछले शनिवार को शाम सवा पांच बजे का वक्त उसी परिवर्तन की आहट लेकर आया है। बीजिंग में अभिनव बिंद्रा का शूटिंग में गोल्ड मेडल जीतना सनसनीखेज था, पर नीरज चोपड़ा के जेवलिन ने भरोसे की वह नींव रखी है जो खिलाड़ियों को एक पाठ के रूप में पढ़ाई जाएगी। यह वही टर्निग प्वाइंट है जिसका इंतजार था।
क्या बदला, क्या बदलेगा : रियो में हुए पिछले खेलों में भारत की तरफ से केवल 20 खिलाड़ियों ने क्वार्टर फाइनल और उससे आगे प्रवेश किया था, जिनमें पुरुष हाकी टीम भी शामिल थी। इसके मुकाबले टोक्यो में 55 खिलाड़ियों का इस स्तर तक पहुंचना बताता है कि हमारे खिलाड़ियों की पदक के पास जाने की क्षमता बढ़ी है। कम से कम दस ऐसी स्पर्धाएं हैं जिनमें भारत का प्रदर्शन विश्वस्तरीय रहा। यह व्यापकता गौर करने लायक है। इसका सरल मतलब है कि हमने इन खेलों में ओलिंपिक के लिए न केवल क्वालीफाई किया, बल्कि अपनी उपस्थिति भी महसूस कराई। सात पदक इतिहास में अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है, लेकिन इससे भी ऊपर लड़ने की क्षमता अधिक प्रभावशाली है। सुधार और क्षमता में वृद्धि सबसे अधिक हाकी में आनंद और राहत पहुंचाने वाली है। पतन को कोसते 35 साल बीते।
एस्ट्रो टर्फ की तेजी के मुकाबले भारतीयों का धीमापन सबसे बड़े कारण के रूप में सामने आया था और यह दलील इतनी घिस-पिट गई थी कि उससे इतर कुछ सोचा ही नहीं जा सका। इसके साथ ही कुछ चिर-परिचित कमियां भी गिनाई जाती थीं, जैसे पेनाल्टी कार्नर को गोल में बदलने की क्षमता का अभाव और आखिरी मिनट में गोल खा जाने की प्रवृत्ति। इन कमियों को दूर करने के लिए कोचों की लाइन लगा दी गई। आधा दर्जन तो केवल आस्ट्रेलिया से आए। इसके नतीजे पिछले चार-पांच साल में आए हैं। सुधार का सिलसिला फिटनेस के स्तर से शुरू हुआ। कुछ साल पहले सरदार सिंह की टीम को दुनिया में सबसे फिट टीम माना गया। संदीप सिंह और जुगराज सिंह के बाद कई ड्रैग फ्लिकरों ने बाजी ही पलट दी। टोक्यो में पुरुष टीम आस्ट्रेलिया वाले मैच को छोड़कर पूरे अधिकार के साथ खेलती नजर आई, जबकि महिलाओं ने लड़ने की अपनी क्षमता के कारण ध्यान खींचा। उन्हें भी कांस्य पदक मिल जाता तो यह लगभग परफेक्ट फिनिश माना जाता। जो भी हो, हाकी टीम ने भावनात्मक रूप से देश को बहुत कुछ दिया है। हाकी फिर से ताकतवर हो सकती है, क्योंकि इसकी जड़ें गहरी भी हैं और अभी कायम भी हैं।
पहले दिन का कमाल : पहले के ओलिंपिक में यह इंतजार करते-करते कई दिन बीत जाते थे कि पदक तालिका में भारत का नाम कब आएगा। अक्सर यह इंतजार खेल के आखिरी दिनों में पूरा होता था। इन खेलों में केवल एक पदक का लंबा रिकार्ड है। फिर दो या तीन मेडल भी आए। लंदन ओलिंपिक में यह सिलसिला टूटा, जब देश को छह पदक मिले। टोक्यो में जब इवेंट के पहले ही दिन मीरा बाई चानू ने वेटलिफ्टिंग में सिल्वर मेडल दिला दिया तो पूरा देश इससे चमक उठा। उम्मीदें बढ़ गईं। अगले 15 दिन लोगों ने टीवी के सामने बिताए। शूटिंग और तीरंदाजी में एक के बाद एक निराशा हाथ लगती गई, लेकिन भरोसा बना रहा। शूटिंग ने सबसे अधिक निराश किया-इतना कि जांच की जरूरत महसूस हो रही है।
तीरंदाजी में दीपिका कुमारी और उनके पति अतानु दास चैंपियन होकर भी बड़े आयोजनों में बिखर जाते हैं, यह टोक्यो में भी साबित हुआ। इसे सिर्फ इस तथ्य से समङिाए कि मिश्रित युगल में टीम को ओलिंपिक के बीच में अतानु दास की जगह प्रवीण जाधव को उतारना पड़ा, जो बेहतर फार्म में थे। इन दो स्पर्धाओं में उम्मीदें टूटने के बावजूद कोई भी खेल प्रेमी न तो श्रीलंका की ओर मुड़ा जहां भारत की एक और नेशनल क्रिकेट टीम सफेद गेंद की सीरीज खेल रही थी और न ही उसने इंग्लैंड की तरफ देखा, जहां विराट कोहली एंड कंपनी एक अहम टेस्ट सीरीज के लिए है। वीरेंद्र सहवाग इसे क्रांतिकारी बदलाव के रूप में देखते हैं।
उनका निष्कर्ष कुछ ज्यादा हो सकता है, लेकिन घरों और जगह-जगह आफिस में लगे टीवी के सामने लोग जिस तरह बजरंग पूनिया और नीरज चोपड़ा की जीत पर उछले, पीवी सिंधू, लवलीना के लिए तालियां बजाईं और हाकी टीम की जीत पर झूमे उससे उनके मनोभावों को समझा जा सकता है। इन्होंने ही युवा गोल्फर अदिति अशोक का दुख भी हल्का कर दिया, जो मात्र एक स्ट्रोक से इस इवेंट में पदक हासिल करने से वंचित रह गईं। गोल्फ में मेडल आता तो बहुत बड़ी बात होती। कबड्डी से लेकर क्रिकेट तक को यह देश अच्छे से जानता है, लेकिन गोल्फ खेलना तो दूर, उसके नियम-कायदों से भी लोग ज्यादा परिचित नहीं हैं। यह ध्यान देने लायक है कि इस खेल में भी हमने दोनों वर्गो में भाग लिया। शायद पेरिस में कोई अदिति टोक्यो की कसर पूरी कर देगी। गोल्फ में जो अदिति ने किया वही काम तलवारबाजी में भवानी देवी ने किया। वह इस स्पर्धा में उतरने वाली पहली भारतीय महिला हैं और उन्होंने भी वह सब कर दिया जो उन्हें रोल माडल बना सकता है।
पृष्ठभूमि भी देखिए : ओलिंपिक के हमारे हीरो अपने-अपने प्रदर्शन के साथ-साथ और भी बहुत कुछ सामने लाए हैं। जिनके खेल की चर्चा घर-घर में हुई उनकी कहानी भी बार-बार सुनाने लायक है। मीरा बाई चानू को अपने घर के लिए ईंधन की व्यवस्था में लकड़ियां इकट्ठी करनी पड़ती थीं, नीरज चोपड़ा मोटापा कम करने की कोशिश में संयोग से जेवलिन थ्रोअर बन गए, हरियाणा के हर पहलवान का सफर फिल्मी स्क्रिप्ट वाला है, किसी के घर में बिजली-पानी नहीं है तो कोई खेत से सीधे मैट पर पहुंच गया, लवलीना किक बाक्सर बनना चाहती थीं, रेस वाक में गए एथलीट के पिता बकरियां चराते थे। यह भारत है, यही उभर रहा है, यही जीतेगा भी।
कुछ क्षण खुशी के : ओलिंपिक में हुए कमाल ने कोविड से जन्मी हताशा पर कुछ मरहम लगा दिया। टोक्यो में नीरज चोपड़ा के थ्रो से लहराए तिरंगे ने आशा और खुशी की वैक्सीन उपलब्ध कराई है। कई दशक बाद लोग इन दिनों को इस तरह भी याद कर सकते हैं कि जब महामारी ने जिंदगी को और सियासत ने संसद को बांध दिया था तब हमारे एथलीटों ने बताया था कि देश को उत्साहित कैसे किया जाता है। पेरिस गेम्स इससे भी अच्छे हो सकते हैं। फिलहाल आप इंग्लैंड में क्रिकेट देखिए।