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...तो सुजाता के काम से इसलिए नाखुश थे पीएम मोदी

सरकार की ओर से सुजाता सिंह को करीब तीन महीने पहले ही पर्याप्त संकेत दे दिए थे कि वह उनके कामों से खुश नहीं है और उनकी जगह एस जयशंकर को विदेश सचिव बनाया जा सकता है। जानिए सुजाता सिंह से क्‍यों खुश नहीं थे पीएम मोदी?

By Jagran News NetworkEdited By: Published: Fri, 30 Jan 2015 01:43 PM (IST)Updated: Fri, 30 Jan 2015 04:53 PM (IST)

नई दिल्ली। सरकार की ओर से सुजाता सिंह को करीब तीन महीने पहले ही पर्याप्त संकेत दे दिए थे कि वह उनके कामों से खुश नहीं है और उनकी जगह एस जयशंकर को विदेश सचिव बनाया जा सकता है। उन्हें विदेश प्रमुखों के डेलिगेशन लेवल की कई अहम बैठकों से और अन्य कई मौकों पर अलग रखा गया।

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अमेरिका में भारतीय राजदूत सुब्रमण्यम जयशंकर 31 जनवरी को रिटायर हो रहे थे। ऐसे में मोदी सरकार ने सुजाता सिंह पर आखिरकार सख्त रुख अपनाते हुए उन्हें बर्खास्त करने का फैसला किया। भारतीय विदेश सेवा के नियमों के अनुसार, 60 वर्ष की आयु पूरी होने के बाद किसी अधिकारी को विदेश सचिव नहीं बनाया जा सकता।

इसलिए मोदी सरकार चाहती थी कि जयशंकर को नया विदेश सचिव 31 जनवरी को रिटायर होने से पहले बना दिया जाए। यदि ऐसा नहीं होता को जयशंकर को विदेश सचिव बनाने के लिए सरकार को अध्यादेश का रुख करना पड़ता।

काम से नहीं थे संतुष्ट
पिछले छह महीनों से विदेश मंत्रालय और खासतौर पर सुजाता सिंह के नेतृत्व से प्रधानमंत्री मोदी खुश नहीं थे। वे बड़े हितों में प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ कदम ताल नहीं कर पा रही थीं। सुजाता सिंह के नेतृत्व में विदेश मंत्रालय और पीएमओ के बीच शुरुआती समस्या उस वक्त हुई जब ब्रिक्स बैठक की घोषणा, इजरायल की आलोचना के साथ हुई। मोदी इजरायल को प्राथमिक साझेदार घोषित कर चुके हैं।

इसके बाद भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में इजरायल के विरोध में वोटिंग की। हालांकि, ऐसा विदेश मंत्रालय की पारंपरिक रुख की तर्ज पर किया गया गया था, लेकिन यह नई सरकार के रुख से काफी अलग था। यहां तक कि गैरहाजिर रहने के विकल्प पर ध्यान तक नहीं दिया गया था, जिसका विदेश मंत्रालय ने विरोध किया था। इसके चलते मोदी ने न्यूयॉर्क में बेंजामिन नेतनयाहू से मुलाकात करना पसंद किया।

जापान यात्रा का भी लाभ नहीं
पीएमओ का मत है कि सुजाता सिंह सितंबर में मोदी की जापान यात्रा के परिणामों को लागू करने में असफल रही हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि इन चीजों से संबंधों में उतनी गर्मजोशी नहीं रही, जिसके लिए मोदी का विशेष निवेश किया था।

डेनमार्क मामले में फंसा पेंच
डेनमार्क में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मामूली निजी नुकसान उठाना पड़ा था। गुजरात सरकार ने डेनमार्क के प्रधानमंत्री को वाइब्रेंट गुजरात के लिए न्योता दिया था। लेकिन यह यात्रा नहीं हो सकी क्योंकि विदेश मंत्रालय ने अपने उस रुख से हटने से इंकार कर दिया था कि जब तक वे किम डेवी के मामले को हल नहीं करते, कोई उच्च स्तरीय संबंध नहीं बनाया जाएगा। जबकि डेनमार्क में मोदी का निजी रुझान था। नतीजतन डेनमार्क के प्रधानमंत्री नहीं आए और द्विपक्षीय संबंधों में दरार आ गई।

सुजाता सिंह और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने काम करने के लिए बेहतर तालमेल बना लिया था, लेकिन पीएमओ के साथ इसका कोई सार्थक संबंध नहीं बन पा रहा था। ऐसे में विदेश नीति पर होने वाले बड़े फैसलों में विदेश मंत्रालय को नजरअंदाज किया जाने लगा।

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साभार - नई दुनिया


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