नई दिल्ली। इस साल उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग से 1300 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल जल गए। वैज्ञानिक इस आग के लिए जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी को जिम्मेदार मान रहे हैं। ऐसे में इस विश्व पर्यावरण दिवस पर हमने जंगलों में बढ़ती आग, तेजी से पिघलते ग्लेशियर, जल संकट और जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर मुद्दों पर पर्यावरणविद और पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित अनिल जोशी से बात की। बता दें, विश्व पर्यावरण दिवस पर इस साल की थीम है 'भूमि बहाली, मरुस्थलीकरण और सूखा सहनशीलता'।

गर्मी बढ़ने के साथ ही उत्तराखंड के जंगलों की आग और भयावह होती जा रही है। इसका क्या कारण है। इसे रोकने के लिए क्या कोई सफल मॉडल है?

जंगलों में आग लगने के कई कारण है। सर्दियों में बारिश की कमी, अलनीनो के प्रभाव और गर्मियों में बढ़ती गर्मी ने जंगलों में आग को फैलने के लिए अनुकूल माहौल प्रदान किया है। निश्चित तौर पर जलवायु परिवर्तन के चलते ऐसी परिस्थितयां बन रहीं हैं कि आने वाले दिनों में जंगलों में आग के मामले और बढ़ते देखे जा सकते हैं। ऐसे में इस आग को रोकने के लिए तत्काल बड़े पैमाने पर कदम उठाने की जरूरत है। देहरादून के पास जंगल में समुदायिक भागीदारी से पानी रोकने के प्रयोग किए जलछिद्र बनाए गए हैं। ये जलछिद्र जंगल में जमीन में नमी और पेड़ों के लिए पानी की उपलब्धता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जंगल की जमीन में नमी रहने से जंगल में आग लगने या आग के बढ़ने की संभावना लगभग खत्म हो जाती है।

जंगलों में आग के लिए चीड़ के पेड़ों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन समस्या का समाधान क्या है?

चीड़ के पेड़ों की पत्तियां काफी ज्वलशील होती है। ऐसे में किसी भी तरह से आग लगने पर इन पत्तियों के चलते आग तेजी से फैलती है। दरअसल हमें ये समझना होगा की चीड़ के पेड़ों की जड़ें गहरी नहीं होती हैं। ऐसे में गर्मियों के मौसम में जहां ये पेड़ जहां ज्यादा होते हैं वहां जमीन में नमी बनी नहीं रह पाती। हमें चरणबद्ध तरीके से जंगलों में बांज और देवदार जैसे पेड़ों को बढ़ाना होगा। ये पेड़ लम्बे समय तक जमीन में नमी को बना के रखते हैं। वहीं इस तरह के प्रयास करने होंगे की जमीन की नमी को बनाए रखा जा सके। जंगलों को हरा भरा बनाए रखने के लिए जमीन में नमी होना बेहद जरूरी है। दरअसल जंगल भी उन्हीं इलाकों में फले फूले जहां जमीन में पानी और नमी की कमी नहीं थी। इंसानों की ओर से लगाए जाने वाले सिर्फ 20 फीसदी पौधे ही हरे भरे रह पाते हैं। बाकी पानी की कमी से सूख जाते हैं।

पर्यावरण के लिहाज से आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौतियां क्या हैं?

आज बढ़ता वायु प्रदूषण और घटते जल संसाधन सबसे बड़ी चुनौतियां बन कर हमारे सामने खड़े हैं। शहरों में बढ़ता वायु प्रदूषण अब जानलेवा होने लगा है। ये प्रदूषण कई बीमारियों का भी जनक है। वहीं अंधाधुंध दोहन के चलते हमारे जल श्रोत सूखते जा रहे हैं। पहाड़ों में बड़ी संख्या में बरसाती नदियां लगभग समाप्ती की कगार पर हैं। भूजल का स्तर भी लगातार नीचे जा रहा है। वहीं जमीन को रीचार्ज करने की कोई व्यवस्था की नहीं जा रही है। ऐसे में समय रहने कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले समय में देश के एक बड़े हिस्से के सामने जल संकट खड़ा होने की स्थिति है। हमें अपने शहरों में घरों या इमारतों के निर्माण के साथ ही अनिवार्य तौर पर वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने के लिए प्रेरित करना होगा। वहीं जल के प्रबंधन के लिए भी कदम उठाने होंगे। जलाशयों की संख्या बढ़ाने के लिए भी कदम उठाने होंगे।

पहाड़ों पर बढ़ते पर्यटकों की संख्या क्या किसी तरह की चिंता बढ़ाती है?

निश्चित तौर पर पहाड़ों पर पर्यटकों की बढ़ती संख्या डराती है। पहाड़ एक सीमित संख्या में भी लोगों का बोझ बरदाश्त कर सकते हैं। लोगों का बोझ लगातार बढ़ने से पहाड़यों की इकोलॉजी तो बिगड़ेगी ही समय रहते कदम न उठाए गए तो हमें किसी भी दिन किसी बड़ी आपदा का सामना करना पड़ सकता है। सरकार को एक निश्चित समय में सीमित संख्या में ही लोगों को पर्यटक स्थलों पर आने की अनुमति देनी चाहिए। वहीं इकोनॉमी और इकोलॉजी में संतुलन बनाना होगा।

बढ़ती गर्मी से ग्लेशियरों को किस तरह का नुकसान पहुंच रहा है। पहाड़ में रहने वाले लोगों को इससे किस तरह का खतरा है?

साल दर साल बढ़ती गमी से पिंडारी, पारवती, गंगोत्री सहित कई ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार कई गुना बढ़ गई है। इन ग्लेशियरों का पानी इकट्ठा होने से पूरे हिमालय में लगभग 200 ऐसी झीलें बन चुकी हैं जो कभी भी फट सकती हैं। और किसी झील के फटने से कितनी तबाही हो सकती है ये केदारनाथ की घटना से समझा जा सकता है। ग्लेशियरों के तेज गलने से नदियों का जल स्तर भी बढ़ रहा है ऐसे में निचले हिस्सों में बाढ़ का भी खतरा बना रहता है। ऐसे में हमें ऐसे कदम उठाने होंगे जिनसे पर्वतीय इलाकों में गर्मी के प्रभाव को कुछ कम किया जा सके।

उत्तरकाशी सहित पहाड़ के कई हिस्सों में भूस्खलन के मामले तेजी से बढ़े हैं इन्हें आप कैसे देखते हैं ?

हिमालय लगभग पांच करोड़ साल पहले बना था लेकिन अभी ये युवा पहाड़ हैं और अभी इनके बनने की प्रक्रिया चल रही है। ऐसे में यहां पर बड़े पैमाने पर निमार्ण कार्य करना या इन्हें छेड़ना किसी भी दिन बड़ी मुसीबत ला सकता है।

बढ़ती गर्मी से पहाड़ों में रहने वाले लोगों के जीवन पर किस तरह का प्रभाव पड़ा है ?

जलवायु परिवर्तन से पहाड़ों में रहने वाले लोगों के जीवन पर कई तरह से प्रभाव पड़ा है। पहाड़ों में कई जगहों पर जल संकट बढ़ा है। जंगलों की आग तो एक बड़ी मुश्किल है ही। पहले पहाड़ों में मच्छरों से होने वाली बीमारियां जैसे डेंगू के मरीज नहीं पाए जाते थे। लेकिन जलवायु परिवर्तन से पहाड़ों में गर्मी बढ़ी है जिससे इस तरह की बीमारियां भी यहां बढ़ी हैं।

विश्व पर्यावरण दिवस पर लोगों के लिए आपका क्या संदेश होगा ?

विश्व पर्यावरण दिवस पर मैं लोगों से कहना चाहूंगा कि लोग इस बात को समझें कि जल, जंगल, जमीन से ही हमारा अस्तित्व है। ऐसे में हमें प्रकृति को सम्मान देना चाहिए। वहीं हमें विकास की योजनाओं को बनाने समय प्रकृति या पर्यावरण का प्राथमिक्ता के आधार पर ध्यान रखना चाहिए।