एस.के. सिंह, नई दिल्ली। धरती से अब तक लगभग साढ़े पांच हजार सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजे गए हैं। इनके साथ अंतरिक्ष में मलबे के करीब 10 लाख टुकड़े भी हैं। एक टुकड़ा भी किसी सैटेलाइट से टकराया तो सिर्फ सैटेलाइट भेजने पर आने वाले करोड़ों रुपए के खर्च का नुकसान नहीं होगा, बल्कि उस सैटेलाइट के जरिए मिलने वाली सेवाएं भी अचानक रुक जाएंगी। संभव है कि हम मोबाइल फोन पर बात न कर सकें, व्हाट्सएप पर चैट न कर सकें। कम्युनिकेशन से लेकर मौसम और कृषि क्षेत्र में भविष्यवाणी तक हर क्षेत्र में सैटेलाइट के बढ़ते इस्तेमाल को देखते हुए अनुमान है कि अगले 10 वर्षों में और 50,000 सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजे जाएंगे। तब उनके मलबे से टकराने का खतरा भी बहुत ज्यादा होगा। लेकिन दिगांतरा नाम के एक भारतीय स्टार्टअप ने अंतरिक्ष में मलबों की लोकेशन बताने वाला सेंसर डेवलप किया है। इससे पहले ही पता चल जाएगा कि किसी सैटेलाइट को कहां रखना सुरक्षित होगा।

सामान्य बोलचाल में ‘रॉकेट साइंस’ शब्दों का इस्तेमाल मुश्किल कामों के लिए होता है, लेकिन भारतीय स्टार्टअप्स ने रॉकेट साइंस को भी जैसे आसान बना दिया है। अंतरिक्ष से जुड़े लगभग हर डोमेन में ये काम कर रहे हैं। अंतरिक्ष के क्षेत्र में सबसे मुश्किल काम रॉकेट लॉन्च करना होता है। लेकिन सिर्फ चार साल पुरानी (2018 में स्थापित) हैदराबाद की स्काईरूट जल्दी ही अपना रॉकेट लॉन्च करने वाली है। सॉलिड फ्यूल वाला यह ‘विक्रम-एस’ रॉकेट 3 सैटेलाइट लेकर जाएगा। इसे 15 नवंबर को लॉन्च किया जाना था, लेकिन खराब मौसम के कारण टालना पड़ा। विक्रम सीरीज में और भी रॉकेट लॉन्च करने की योजना है।

आईआईटी चेन्नई में इनक्यूबेट हुई अग्निकुल ने पिछले दिनों 3D प्रिंटेड इंजन का स्टैटिक ट्रायल थुंबा स्थित विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर में किया है। दुनिया में पहली बार 3D प्रिंटेड इंजन का ट्रायल हुआ है। इस टेक्नोलॉजी पर आधारित रॉकेट अगले साल लॉन्च होने की संभावना है। 2012 में स्थापित भारत के पहले स्पेस स्टार्टअप ध्रुव स्पेस ने 30 जून को पीएसएलवी सी53 (PSLV C53) रॉकेट से अपने सैटेलाइट डिप्लॉयर का परीक्षण किया। अब पीएसएलवी सी54 (PSLV C54) से वह इसी महीने के अंत तक दो सैटेलाइट लॉन्च करने वाली है। स्टार्टअप बिलाट्रिक्स रॉकेट के लिए ग्रीन फ्यूल बना रही है। जब सैटेलाइट अंतरिक्ष में जाता है तो उस पर नियंत्रण के लिए बैटरी का इस्तेमाल होता है। बिलाट्रिक्स ऐसी बैटरी बना रही है जो हल्की होगी और लंबे समय तक चलेगी।

निजी क्षेत्र को अनुमति से आई तेजी

सरकार ने 2020 में स्पेस सेक्टर को प्राइवेट सेक्टर के लिए खोला, उसके बाद इसमें स्टार्टअप काफी तेजी से बढ़े। आज देश में सौ से ज्यादा स्टार्टअप काम कर रहे हैं। इंडियन स्पेस एसोसिएशन के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल (रि.) ए.के. भट्ट जागरण प्राइम से कहते हैं, “अमेरिका में जब स्पेस को निजी क्षेत्र के लिए खोला गया तो कई बड़ी कंपनियां आईं। इसका फायदा यह हुआ कि जो काम पहले नासा जैसी संस्थाएं करती थीं, वह प्राइवेट कंपनियां भी करने लगीं।” भारतीय स्टार्टअप्स की खास बात यह है कि इन्हें स्थापित करने वाले 25 से 30 साल की औसत उम्र के युवा हैं।

शुरू में अंतरिक्ष सेक्टर सिर्फ रणनीतिक यानी रक्षा के लिए था। तब अमेरिका और रूस के बीच काफी प्रतिस्पर्धा थी। लेकिन भारत में अंतरिक्ष विज्ञान के अग्रणी वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई ने शुरू में ही कहा था कि हमारे लिए अंतरिक्ष का मतलब आम आदमी का फायदा है। साराभाई के उस सपने को इसरो (ISRO) के बाद स्टार्टअप भी साकार करने में जुटे हैं।

सैटकॉम इंडस्ट्री एसोसिएशन के डायरेक्टर जनरल अनिल प्रकाश कहते हैं, भारतीय स्पेस स्टार्टअप्स के पास प्रोफेशनल विशेषज्ञता है, उम्दा विचार हैं और वे उत्साह से लबरेज हैं। वे स्पेस इकोनॉमी के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं। इन्होंने लॉन्च, पेलोड, सैटेलाइट मैन्युफैक्चरिंग, थ्रस्टर, रॉकेट इंजन और ग्रीन फ्यूल के साथ सैटेलाइट डाटा एनालिटिक्स में भी अच्छा काम किया है। इनका फायदा कृषि, इंश्योरेंस, फिशरीज, जलवायु, लॉजिस्टिक्स जैसे सामाजिक क्षेत्रों में मिल रहा है।

अंतरिक्ष में मलबे की मैपिंग

दिगांतरा के सह-संस्थापक राहुल रावत कहते हैं, “अंतरिक्ष में मौजूद हर चीज की हम मैपिंग करेंगे। इससे सैटेलाइट भेजने वाले को मालूम होगा कि कहां खतरा है। या कोई सैटेलाइट किसी मलबे से टकराने वाला है तो पहले ही पता चल जाएगा और सैटेलाइट को वहां से हटाया जा सकता है।”

राहुल ने 2018 में जर्मनी में एक कांफ्रेंस में हिस्सा लिया था। वहां नासा और इसरो जैसी अनेक बड़ी संस्थाओं के प्रतिनिधि थे। उन सबने अंतरिक्ष में जमा हो रहे मलबे के खतरे के बारे में बात की। तभी राहुल के दिमाग में इसका समाधान तलाशने का विचार किया। राहुल के अनुसार अंतरिक्ष में मौजूद 10 लाख मलबे के टुकड़ों में से सिर्फ 34-36 हजार के बारे में ही आंकड़े उपलब्ध हैं। वे कहते हैं, “आज अगर कोई सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजता है तो वह सिर्फ उन 36000 ऑब्जेक्ट के बारे में सोच सकता है कि उनसे कैसे बचना है। बाकी ऑब्जेक्ट की जानकारी ही नहीं है तो हम बचाव कैसे कर सकते हैं।” उन्होंने तनवीर अहमद और अनिरुद्ध शर्मा के साथ दिगांतरा की स्थापना की।

रेडिएशन पकड़ने वाला सेंसर

दिगांतरा ने इसी साल एक सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजा है। वह अंतरिक्ष में रेडिएशन पकड़ने के लिए है। राहुल के अनुसार उस सेंसर के जरिए हम बता सकते हैं कि किस ऑर्बिट में रेडिएशन ज्यादा है और किस ऑर्बिट में कम। अगर अंतरिक्ष में कुछ ऐसा बड़ा घटित होने वाला है जिससे बड़े पैमाने पर रेडिएशन हो, तो पहले से अनुमान लगाकर सैटेलाइट को बचाया जा सकता है।

भारत के पहले स्पेस स्टार्टअप ध्रुव स्पेस के हेड ऑफ स्ट्रैटजी क्रांति चंद कहते हैं, “सैटेलाइट आज हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं। इसरो की टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए हमने उसे आम लोगों के लिए ज्यादा उपयोगी बनाया। सैटेलाइट ज्यादा होने पर लोगों के लिए सुविधाएं भी बढ़ेंगी। चाहे वह मौसम की बात हो या खेती की, अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी कंपनियों के आने से बड़ा बदलाव आएगा। हम भारत के साथ दूसरे देशों के लिए भी सैटेलाइट निर्माण कर सकते हैं।” ध्रुव स्पेस सैटेलाइट बनाने के साथ लॉन्च और ग्राउंड सर्विस उपलब्ध कराती है। क्रांति के अनुसार, हम सैटेलाइट बनाने से लेकर उससे मिलने वाले डाटा तक पूरी सर्विस देते हैं।

आम लोगों के लिए उपयोगी

ले. जनरल भट्ट ने कुछ और उपयोगी स्टार्टअप्स के बारे में बताया। ‘पिक्सल’ कुछ सैटेलाइट अगले साल और उसके बाद 36 छोटी सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजने वाली है। रिमोट सेंसिंग में इसकी काबिलियत सबसे उच्च क्वालिटी की है। इसकी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल डिजास्टर मैनेजमेंट, खदानों और ऑयल रिग्स की मॉनिटरिंग जैसे क्षेत्र में किया जा सकता है। एक और स्टार्टअप ‘तथ्य’ कृषि क्षेत्र में मदद कर रहा है। वह बताता है कि मिट्टी कैसी है, उसमें नमी कितनी है, मौसम के हिसाब से फसल कब लगाई जानी चाहिए। बैंक और बीमा कंपनियां इसका काफी इस्तेमाल कर रही हैं। पहले बैंक मैनुअली मॉनिटरिंग करते थे। अब इस कंपनी के जरिए उन्हें पता चल जाता है कि किसी खास इलाके में फसल लगाई गई है या नहीं, या फिर कितना नुकसान हुआ है। इसी तरह मछुआरों को यह बताकर मदद की जा सकती है कि समुद्र में कहां पर ज्यादा मछलियां हैं।

अनिल प्रकाश के मुताबिक परिस्थितियां काफी तेजी से बदल रही हैं। अग्निकुल और अनंत टेक्नोलॉजी जैसी कंपनियां अत्याधुनिक मैन्युफैक्चरिंग सुविधाओं के साथ बाजार के सारे नियम तोड़ रही हैं। उन्होंने बताया कि अनंत टेक्नोलॉजी ने भारत की पहली प्राइवेट स्पेसक्राफ्ट मैन्युफैक्चरिंग फैसिलिटी तैयार की जहां एक साथ चार बड़े स्पेसक्राफ्ट असेंबल, इंटीग्रेट और टेस्ट किए जा सकते हैं। अग्निकुल कॉसमॉस ने चेन्नई में भारत की पहली प्राइवेट रॉकेट इंजन फैक्ट्री खोली है। आगे यह हर सप्ताह दो रॉकेट इंजन बना सकती है। इसी तरह स्काईरूट कॉमर्शियल सैटेलाइट के लिए लॉन्च व्हीकल बना रही है।

भारत में सैटेलाइट की लागत कम

भारत में कुछ समय पहले तक निजी क्षेत्र इसरो के लिए सिर्फ सप्लायर का काम करता था, पहली बार ये कंपनियां स्वतंत्र रूप से काम कर रही हैं। ले. जनरल भट्ट के अनुसार हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) और एलएंडटी (L&T) मिलकर पीएसएलवी बनाएंगी। कॉन्ट्रैक्ट के तहत दो से तीन साल में उन्हें पांच रॉकेट बनाने हैं। एयरटेल की 40% हिस्सेदारी वाली वनवेब पहले दूसरे देशों से अपने सैटेलाइट लॉन्च करती थी, लेकिन पिछले महीने उसने भारत से अपने 36 सैटेलाइट लॉन्च किए और जल्दी ही और 36 सैटेलाइट लॉन्च करने वाली है।

यह संभव हो सका है कम खर्च के कारण। इसरो तो पहले ही अमेरिका और यूरोप की तुलना में बहुत कम खर्च पर रॉकेट लॉन्च करता रहा है। ले. जनरल भट्ट के अनुसार स्पेसएक्स ने अंतरराष्ट्रीय कीमतों को काफी कम कर दिया है। वर्ष 1970 से 2000 तक प्रति किलो पेलोड अंतरिक्ष में भेजने का औसत खर्च 18,500 डॉलर था। स्पेसएक्स के फालकन 9 रॉकेट ने इसे घटाकर 2,720 डॉलर प्रति किलोग्राम कर दिया है।

भारतीय स्टार्टअप्स को टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में इसरो से मदद मिल रही है, इसलिए उनकी लागत भी कम है। उनके सामने घरेलू बाजार तो है ही, दुनिया के उन देशों का बाजार भी खुला है जिनके पास अंतरिक्ष में आगे बढ़ने लायक संसाधन नहीं हैं। सैटकॉम इंडस्ट्री एसोसिएशन के अनुसार 2020 में ग्लोबल स्पेस मार्केट 447 अरब डॉलर का था और उसमें भारत की हिस्सेदारी 11 अरब डॉलर यानी सिर्फ 2.4% थी। 2047 तक ग्लोबल मार्केट 1.5 लाख करोड़ डॉलर का होगा और भारत उसमें 50% हिस्सेदारी हासिल करना चाहता है।

ले. जनरल भट्ट कहते हैं, “स्पेस इकोनामी में रॉकेट और सैटेलाइट का हिस्सा 6 से 7 प्रतिशत ही है। बड़ा पैसा एप्लीकेशन, ग्राउंड स्टेशन और डीटीएच जैसे क्षेत्र में है। एप्लीकेशन डेवलप करने में भारत अग्रणी बन सकता है क्योंकि यहां आईटी सेक्टर काफी विकसित है।”

स्पेसएक्स के रॉकेट का इस्तेमाल नासा भी कर रहा है। भारत में इसरो चेयरमैन एस. सोमनाथ ने घरेलू स्टार्टअप्स से पिछले दिनों कहा था, “संभव है आगे चलकर हम आपको सैटेलाइट बनाने का ऑर्डर दें।” इसे संकेत बताते हुए ले. जनरल भट्ट कहते हैं कि प्राइवेट इंडस्ट्री में वह काबिलियत है।

स्पेस स्टार्टअप्स के लिए अवसर

दिगांतरा के राहुल कहते हैं, “तीन-चार सालों में स्पेसटेक स्टार्टअप के लिए अच्छे अवसर पैदा हुए हैं। आज स्पेस के हर डोमेन में निजी कंपनियां काम कर रही हैं। चाहे वह लॉन्चिंग हो, सैटेलाइट मैन्युफैक्चरिंग हो, पेलोड हो, रिमोट सेंसिंग हो। हर डोमेन में कोई न कोई कंपनी मौजूद है। ये स्टार्टअप आने वाले दिनों में अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत को काफी आगे लेकर जाएंगे।”

ध्रुव स्पेस के क्रांति कहते हैं, “हम आज भी विदेशी कंपनियों पर निर्भर हैं। इसरो ने हमारी प्रमुख समस्याओं का समाधान किया, सभी समस्याओं का नहीं। जैसे कम्युनिकेशन और इमेजरी के लिए हम अंतरराष्ट्रीय सैटेलाइट का इस्तेमाल करते हैं। राज्य सरकारें दूसरे देशों से इमेजरी खरीदने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करती हैं। इससे अवसरों का पता चलता है।”

क्रांति के अनुसार अभी भारत के 55 से 60 सैटेलाइट ऑपरेशनल हैं। तुलनात्मक रूप से देखें तो चीन के 450 सैटेलाइट हैं। अमेरिका के 1500 सैटेलाइट सरकारी और तीन हजार से ज्यादा निजी कंपनियों के हैं। भारत जैसे विशाल देश के लिए अनेक सैटेलाइट की जरूरत है। यह सैटेलाइट कंपनियों के लिए प्रमुख बाजार होगा। भारत में निर्माण लागत बहुत कम आती है, इसलिए अगले 10 वर्षों में जो 50 हजार सैटेलाइट छोड़े जाएंगे उनमें से भारत को कम से कम 5000 सैटेलाइट का निर्माण करना चाहिए। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि सरकार पॉलिसी लेकर आए और सैटेलाइट निर्यात को प्रमोट करे- इससे पहले कि लिथुआनिया और क्रोएशिया जैसे पूर्वी यूरोप के देश इसमें लीड ले लें। ध्रुव स्पेस 26 नवंबर को अगला सैटेलाइट लॉन्च करने वाली है।

अनिल प्रकाश कहते हैं, भारत उन चुनिंदा देशों में है जहां महामारी के मुश्किल दिनों में भी लोगों ने अंत्रप्रेन्योरशिप दिखाया। माइक्रो सैटेलाइट, एडवांस रॉकेट प्रोपल्शन, लॉन्च व्हीकल, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, डीप इंटेलिजेंस जैसे क्षेत्रों में वे नई टेक्नोलॉजी और बिजनेस मॉडल लेकर आए। जिन देशों ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में अभी तक कदम नहीं बढ़ाया है, भारत उन्हें अमेरिका या यूरोप की तुलना में काफी सस्ती दर पर सैटेलाइट लॉन्च करने की सुविधा दे सकता है। खासकर छोटे सैटेलाइट बनाने और उसे लॉन्च करने, दोनों की लागत भारत में बहुत कम आती है। अनिल प्रकाश के मुताबिक सरकार को इस क्षमता का इस्तेमाल करने के लिए अलग रणनीति बनानी चाहिए। सरकार इसरो के जरिए मदद जारी रखे तो निजी क्षेत्र सैटेलाइट निर्माण, लॉन्च, ग्राउंड सेगमेंट और इक्विपमेंट में विदेशी बाजारों के लिए अपने आप को तैयार कर सकता है।

फंडिंग सबसे बड़ी समस्या

भारतीय स्टार्टअप्स के सामने सबसे बड़ी समस्या फंडिंग की है। अनिल प्रकाश कहते हैं, पश्चिमी देशों में निवेशक और सरकारें भारत की तुलना में ज्यादा जोखिम लेने को तैयार हैं। फाइनेंस की सुविधा बढ़ने पर भारतीय स्टार्टअप भी तेजी से आगे बढ़ सकते हैं और ग्लोबल मार्केट में प्रवेश कर सकते हैं। हालांकि फाइनेंस की दिक्कत के बावजूद उन्होंने काफी अच्छी प्रगति की है। अनेक देश इन स्टार्टअप्स के लिए रेड कारपेट बिछाने को तैयार हैं।

ध्रुव स्पेस ने अभी तक 26 करोड़ रुपए की फंडिंग हासिल की है। दिगांतरा को जुलाई 2021 में कलारी कैपिटल से 25 लाख डॉलर की फंडिंग मिली। राहुल के अनुसार शुरू में हमने सरकारी ग्रांट की मदद से ही टेक्नोलॉजी डेवलप की। एक स्तर तक पहुंचने के बाद हम निवेशकों तक गए। कलारी कैपिटल से निवेश मिलने के बाद हमने अपना पहला लॉन्च किया है। अब हम दूसरे चरण की फंडिंग का प्रयास करेंगे और उसकी मदद से आने वाले दिनों में सैटेलाइट लॉन्च करेंगे।

स्पेस में खासकर लॉन्च टेक्नोलॉजी काफी जटिल होती है। उसके काफी इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है। ले. जनरल भट्ट कहते हैं, हमारे स्टार्टअप्स ने छोटा-मोटा प्रयोग तो कर लिया, उसे आगे बढ़ाने के लिए काफी पैसे चाहिए। इसलिए जरूरी है कि बड़ी इंडस्ट्री मदद के लिए आगे आए, सरकार इन्सेंटिव के जरिए मदद करे। अभी तो सिर्फ वेंचर कैपिटलिस्ट इन स्टार्टअप्स में पैसा लगा रहे हैं, लेकिन वह निवेश बहुत थोड़ा है। अनिल प्रकाश के अनुसार निवेशकों की रुचि निश्चित रूप से बढ़ रही है, फिर भी सरकार की तरफ से आर्थिक मदद आवश्यक है। पश्चिमी देशों से तुलना करें तो वेंचर कैपिटल फंडिंग बहुत कम है, दूसरी तरफ कर्ज पर ब्याज की दरें विकसित देशों की तुलना में 3 गुना है।

अनिल प्रकाश कुछ और समस्याएं बताते हैं। इनक्यूबेशन की लंबी अवधि, ज्यादा निवेश और कम रिटर्न भी ऐसी दिक्कतें हैं जो इन कंपनियों की सस्टेनेबिलिटी को प्रभावित करती हैं। सैटेलाइट कम्युनिकेशन स्पेक्ट्रम की उपलब्धता को लेकर अभी कोई स्पष्टता नहीं है। कोई नहीं जानता कि ये स्टार्टअप रूटीन टेलिमेटरी, टेलीकमांड और पेलोड डाटा ऑपरेशन के लिए स्पेस फ्रीक्वेंसी कैसे हासिल करेंगे। अंतरिक्ष विभाग अभी लाइसेंस देने के साथ-साथ मार्केट रेगुलेटर और सैटेलाइट ऑपरेटर की भी भूमिका निभा रहा है। यह हितों का टकराव है।

स्पेस पॉलिसी और बिल

स्पेस पॉलिसी और स्पेस एक्टिविटीज बिल के जरिए सरकार इन चुनौतियों का समाधान कर सकती है। लेकिन क्रांति कहते हैं, “ध्रुव स्पेस की स्थापना के 10 साल हो गए और आज भी हमें स्पेस पॉलिसी का इंतजार है। इसरो इतना बड़ा संस्थान बन सका क्योंकि उसके पीछे सरकार थी। किसी प्राइवेट कंपनी के लिए सरकार की मदद के बिना वैसा करना बहुत मुश्किल है। अनेक उद्यमी देश के लिए अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम करना चाहते थे, लेकिन उन्हें बाहर जाना पड़ा और दूसरे देशों में कंपनी स्थापित करनी पड़ी।” वे कहते हैं, मान लीजिए आज कोई निवेशक ध्रुव स्पेस में 10 करोड़ रुपए लगाना चाहता है, तो वह सबसे पहले यह जानना चाहेगा कि कंपनी अपना प्रोडक्ट किसे बेचेगी। यह पॉलिसी निर्णय है। लेकिन अब उम्मीद है कि दो महीने में स्पेस पॉलिसी आ जाएगी।

ले. जनरल भट्ट के मुताबिक स्पेस पॉलिसी काफी एडवांस स्टेज में है। इसमें सैटेलाइट कम्युनिकेशन, रिसर्च समेत हर क्षेत्र में प्राइवेट सेक्टर को अवसर दिए जाने की उम्मीद है। निजी क्षेत्र के लिए नोडल एजेंसी ‘इनस्पेस’ होगी। उन्होंने बताया कि इस पॉलिसी के बाद स्पेस एक्टिविटीज बिल का ड्राफ्ट आएगा। डिपार्टमेंट ऑफ स्पेस उस पर भी काम कर रहा है। यह 2017 के बिल से बिल्कुल अलग होगा। पुराने बिल में सख्त सजा का भी प्रावधान था, उसे नए बिल में लॉजिकल बनाया जा सकता है। जैसे टेलीकॉम क्षेत्र में टीआरएआई (TRAI) है, उसी तरह स्पेस सेक्टर में सरकार रेगुलेटर ला सकती है।

ले. जनरल भट्ट के अनुसार दो साल पहले पांच प्रमुख समस्याएं थीं। कोई रेगुलेशन नहीं था, स्टार्टअप इसरो की सुविधाओं का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे, उन्हें यह नहीं मालूम था कि किससे और कैसे अनुमति ली जाए, फाइनेंस और इंश्योरेंस की भी समस्या थी। इनमें से तीन समस्याओं का समाधान लगभग हो गया है। रेगुलेशन पर सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि क्या होने वाला है। आवेदनों पर विचार करने के लिए सरकार ने नोडल एजेंसी के तौर पर ‘इनस्पेस’ का गठन किया है जो केस आधार पर मंजूरी दे रहा है। जहां तक फाइनेंस की बात है तो अभी तक वेंचर कैपिटलिस्ट ने ही उनमें पैसा लगाया है। इसके अलावा ग्रांट दी जाती है, लेकिन वह बहुत कम राशि होती है। कॉमर्शियल मैन्युफैक्चरिंग के लिए सरकार और बैंकों का समर्थन जरूरी है। 60 साल तक सिर्फ इसरो ने स्पेस सेक्टर में काम किया, निजी क्षेत्र ने अब कदम रखा है। अभी यह बाजार विकसित हो रहा है, इसका बिजनेस मॉडल डेवलप होने में थोड़ा समय लगेगा।

अनिल प्रकाश के अनुसार स्पेस एक्टिविटीज बिल और स्पेस कम्युनिकेशन पॉलिसी में मौजूदा डेवलपमेंट के साथ तारतम्य होना चाहिए। वह भविष्य के रोडमैप के मुताबिक हो। अंतरिक्ष अभी एक उभरता सेक्टर है। इसे एक फोकस्ड और इंटीग्रेटेड स्पेस पॉलिसी की जरूरत है ताकि देश में मैन्युफैक्चरिंग क्षमता स्थापित की जा सके और ग्लोबल वैल्यू चैन में महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया जा सके। इनोवेशन की गति के साथ रेगुलेशन में भी बदलाव का सैंडबॉक्स तरीका आज की जरूरत है।

सैटकॉम डीजी के मुताबिक स्टार्टअप इकोसिस्टम को प्रमोट करने के लिए सरकार ने कई एक्सेलरेटर कार्यक्रम चला रखे हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या उससे फायदा मिला है। कई सर्वे रिपोर्ट बताती हैं कि सरकारी मदद लेने के लिए नियम काफी सख्त हैं और आवेदन प्रक्रिया भी काफी जटिल है। सरकार को कंपनी रजिस्ट्रेशन, बैंकरप्सी कानून और विफल होने वाले उद्यमियों को वापस सिस्टम में लाने के लिए रेगुलेशन आसान बनाने चाहिए।

वे कहते हैं, “देश में अनेक स्पेस स्टार्टअप हैं जिनके पास बहुत अच्छा काम करने की क्षमता है। लेकिन लगभग 60% स्टार्टअप एक निश्चित मुकाम तक पहुंचने से पहले ही बंद होने के करीब पहुंच जाते हैं। इसरो के पास 60 साल का अनुभव होने के बावजूद स्पेस मिशन और सैटलाइट कम्युनिकेशन के क्षेत्र में भारत कई मोर्चों पर पीछे रह जाता है। निजी कंपनियां अब इसरो के इंफ्रास्ट्रक्चर, वैज्ञानिक और तकनीकी संसाधनों और उसके डाटा का भी इस्तेमाल कर सकती हैं। लेकिन प्रक्रिया, मंजूरी की समय सीमा आदि को लेकर अभी स्पष्टता नहीं है। सरकार को एक फैसिलिटेशन सेंटर गठित करना चाहिए जो समयबद्ध तरीके से स्टार्टअप्स की मदद कर सके।”

अनिल प्रकाश के अनुसार इन चुनौतियों के बावजूद भारतीय स्पेस स्टार्टअप तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। ले. जनरल भट्ट को इन स्टार्टअप से काफी उम्मीदें हैं। वे कहते हैं, “स्पेस सेक्टर को निजी क्षेत्र के लिए खोलने का फायदा यह हुआ कि नासा जैसे दूसरे देशों के संगठनों में काम करने वाले भारतीय अब लौट रहे हैं। वे अपने देश में काम करना चाहते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि जिस तरह भारत में आईटी क्रांति, फार्मा क्रांति हुई, उसी तरह स्पेस क्रांति होगी।”