नई दिल्ली, एस.के.सिंह। भारत, चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे अधिक मोबाइल फोन बनाने वाला देश बन चुका है। हाल में सरकार ने जो प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) स्कीम की घोषणा की है, उससे आने वाले वर्षों में हम ऑटोमोबाइल कंपोनेंट, मेडिकल डिवाइस, सेमीकंडक्टर, टेलीकॉम उपकरण, सोलर मॉड्यूल और इलेक्ट्रिक वाहन बैटरी के मामले में भी चीन को टक्कर देने की स्थिति में आ सकते हैं। दरअसल, भारत विश्व पटल पर मैन्युफैक्चरिंग में चीन की जगह लेता जा रहा है। चीन में मैन्युफैक्चरिंग की बढ़ती लागत, ताइवान के साथ संबंधों में तनाव और कोविड-19 के प्रति जीरो टॉलरेंस नीति के कारण सप्लाई चेन में दिक्कतें आने से अनेक देश और उनकी कंपनियां दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी पर निर्भरता कम करना चाहती हैं। इस बदलते माहौल में भारत उनका नया ठिकाना बन रहा है।

हाल के दिनों में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में निवेश की घोषणा की है, कुछ ने इसकी शुरुआत भी कर दी है। जैसे, फॉक्सकॉन और वेदांता ने 1.5 लाख करोड़ रुपये की लागत से चिप प्लांट लगाने का ऐलान किया है। पहले से मैन्युफैक्चरिंग प्लांट स्थापित कर चुकीं सैमसंग और एपल जैसी कंपनियां अब विस्तार योजना पर काम कर रही हैं। लेकिन अब भी कई ऐसे इंडस्ट्री सेक्टर हैं जिनमें निवेश की काफी गुंजाइश है। इससे न सिर्फ आयात पर निर्भरता कम होगी, बल्कि निर्यात बढ़ाने में भी मदद मिलेगी। इस लेख में विशेषज्ञों के हवाले से हम बता रहे हैं कि वे सेक्टर कौन से हैं, उनमें निवेश में क्या अड़चनें हैं और उनका समाधान क्या है।

भारत के लिए यह सही समय

निर्यातकों के संगठन फियो (FIEO) के महानिदेशक और सीईओ डॉ. अजय सहाय ने जागरण प्राइम से बातचीत में कहा, “यह बात तब भी आई थी जब रूस और अमेरिका के बीच 2018 में टैरिफ युद्ध शुरू हुआ था। उस समय सबसे ज्यादा फायदा वियतनाम को मिला। लेकिन निवेश जुटाने में वियतनाम की एक सीमा है। इस बार ताइवान की वजह से दुनिया में चीन विरोधी सेंटिमेंट काफी मुखर है। एशिया-प्रशांत देशों की कंपनियां या तो चीन से अपना निवेश निकाल रही हैं या वहां नया निवेश नहीं करना चाहती हैं।”

एनआईटी जालंधर के चेयरमैन और पूर्व फियो प्रेसिडेंट एस.सी. रल्हन भी कहते हैं, “भारत के लिए आगे बढ़ने का यह सही समय है। चाहे अमेरिकी निवेशक हों या यूरोपीय, वे चीन नहीं जाना चाहते। वे भारत, ताइवान, कंबोडिया जैसे देशों की तरफ देख रहे हैं।” एसबीआई रिसर्च ने हाल ही एक रिपोर्ट में कहा है कि चीन में नया निवेश कम होने का भारत को फायदा मिल सकता है।

चीन भले अमेरिका के बाद दुनिया की सबसे बड़ी इकोनॉमी हो, सबसे बड़ा निर्यातक और दूसरा बड़ा आयातक हो, लेकिन फिलहाल उसकी आर्थिक स्थिति पहले जैसी नहीं लग रही। उसका कंस्ट्रक्शन सेक्टर संकट में है, जिससे बैंक प्रभावित हो रहे हैं। लगातार 11 महीने घरों की बिक्री घटी है। कोविड-19 महामारी के कारण लॉकडाउन से चीन अप्रैल-जून 2022 तिमाही में किसी तरह निगेटिव ग्रोथ से बचा है। पिछली तिमाही में उसकी जीडीपी ग्रोथ सिर्फ 0.4% थी। गोल्डमैन साक्स ने इस साल चीन की ग्रोथ का अनुमान 3.3% से घटाकर 3% और नोमुरा ने 3.3% से घटाकर 2.8% किया है।

कोविड-19 को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति के कारण सितंबर की शुरुआत में चीन के करीब 75 शहरों में पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन था, जिससे 31 करोड़ लोग प्रभावित थे। इससे पहले 2.5 करोड़ आबादी वाले शहर शंघाई में अप्रैल-मई में दो महीने का लॉकडाउन लगा था। चेंगदू में एपल कंपनी का आईपैड और मैकबुक प्रोडक्शन हब है। दो करोड़ आबादी वाले इस शहर में भी पिछले दिनों कई बार लॉकडाउन की अवधि बढ़ाई गई।

सहाय कहते हैं, “चीन की जीरो टॉलरेंस नीति से अन्य देशों को लगने लगा है कि पता नहीं कब-कहां लॉकडाउन लग जाए और हमारी सप्लाई रुक जाए।” वे लागत बढ़ने की बात भी कहते हैं, “लोगों का वेतन बढ़ने से वहां मैन्युफैक्चरिंग महंगी होती जा रही है। चीन ने इसकी कुछ हद तक भरपाई तो प्रोडक्टिविटी बढ़ाकर की, लेकिन प्रोडक्टिविटी बढ़ाने की भी एक सीमा है।”

भारत के लिए मौके कहां

सेमीकंडक्टर, टेक्सटाइल और गारमेंट, इंजीनियरिंग गुड्स, कंस्ट्रक्शन में इस्तेमाल होने वाले टाइल्स और इलेक्ट्रिकल सामान कुछ ऐसे सेगमेंट हैं जिनमें भारत न सिर्फ आयात पर निर्भरता कम कर सकता है, बल्कि इनका निर्यात भी बढ़ा सकता है। जाने-माने अर्थशास्त्री नयन पारिख कहते हैं, “हमारे पास टेक्सटाइल की पूरी श्रृंखला है। यहां कॉटन उत्पादन से लेकर मैन्युफैक्चरिंग तक सारी सुविधाएं हैं। इसलिए हमें रेडीमेड गारमेंट पर फोकस बढ़ाना चाहिए।” पारिख का सुझाव है कि रेडीमेड गारमेंट में थोड़े महंगे सेगमेंट में पैठ बनाने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि सस्ते कपड़ों के मामले में वियतनाम, बांग्लादेश और श्रीलंका से चुनौती मिलेगी।

पारिख फार्मा, इंजीनियरिंग गुड्स और सेरेमिक इंडस्ट्री पर भी फोकस करने की बात कहते हैं। वे कहते हैं, “फार्मा में भारत के पास एफिशिएंसी है, लेकिन कच्चा माल चीन से आता है। पहले भारत में सरकारी कंपनियां बल्क ड्रग बनाती थीं। चीन से प्रतिस्पर्धा मिलने के कारण हमारी इकाइयों में उत्पादन बंद होने लगा और हम चीन से आयात करने लगे। दोबारा घरेलू उत्पादन शुरू करने में जो भी अड़चनें हैं, उन्हें दूर करना पड़ेगा।”

पारिख के अनुसार, जिस तरह तमिलनाडु के तिरुपुर ने टेक्सटाइल क्षेत्र में नाम बनाया है, उसी तरह गुजरात के मोरबी का सेरेमिक क्लस्टर चीन को टक्कर देने की स्थिति में आ गया है। भारत से सेरेमिक टाइल्स का बड़े पैमाने पर निर्यात किया जा सकता है। इसके लिए इंडस्ट्री को टेक्नोलॉजी पर काम करना पड़ेगा, सरकार को कम कीमत पर गैस उपलब्ध करानी पड़ेगी।

PLI स्कीम वाले सेक्टर में फायदा

सहाय कहते हैं, “सरकार ने जिन सेक्टर के लिए प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) की घोषणा की है, उन्हें चीन की बदलती स्थिति का फायदा मिल सकता है। मोबाइल मैंन्युफैक्चरिंग में इस स्कीम का काफी फायदा मिलता दिख रहा है। हम बड़े पैमाने पर निर्यात भी करने लगे हैं। यह स्थिति दूसरे सेक्टर में भी हो सकती है।”

अभी तक सेमीकंडक्टर, टेक्नोलॉजी, टेक्सटाइल, ऑटोमोबाइल, फार्मास्युटिकल और स्पेशलिटी स्टील समेत 15 सेक्टर के लिए यह स्कीम घोषित की जा चुकी है, जिनका कुल इन्सेंटिव 2.7 लाख से तीन लाख करोड़ रुपये तक होगा। कैबिनेट ने 21 सितंबर को देश में सोलर पावर मॉड्यूल बनाने के लिए 19,500 करोड़ रुपये की पीएलआई स्कीम को मंजूरी दी। फैसले से आयात पर निर्भर इस सेक्टर में 94,000 करोड़ रुपये का निवेश होने की उम्मीद है। कैबिनेट के फैसले से एक दिन पहले वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने बताया कि सरकार कई और सेक्टर के लिए पीएलआई पर विचार कर रही है।

फिलहाल पीएलआई स्कीम बड़ी कंपनियों के लिए है। रल्हन का कहना है कि यह सुविधा एमएसएमई को भी मिलनी चाहिए। उन्होंने बताया कि सरकार इस पर विचार भी कर रही है। वे कहते हैं, “भारत के पास लगभग हर सेगमेंट में आगे बढ़ने का मौका है। मुझे 2024 में भारत के लिए काफी संभावनाएं नजर आ रही हैं।”

क्या किया जाना चाहिए

सहाय के अनुसार, हमारी नीति यह होनी चाहिए कि चीन में जो नया निवेश नहीं हो रहा है या जो निवेशक वहां से निकल रहे हैं, उन्हें हम भारत कैसे लाएं। पीएलआई के अलावा सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स में जो कटौती की है, उसका भी फायदा मिल सकता है। अब राज्यों के बीच भी प्रतिस्पर्धा होने लगी है। हर राज्य विदेश जाकर निवेशकों को लुभा रहा है। यह निवेश सिर्फ बड़ी कंपनियों में नहीं आ रहा, बल्कि बल्कि मझोले आकार की कंपनियों के लिए भी साझा उपक्रम स्थापित करने के मौके खुल रहे हैं। भारत कई देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) कर रहा है, उसका भी फायदा मिलेगा। हालांकि सहाय यह भी कहते हैं कि हमें तत्काल बड़े निवेश की उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसे फैसलों में थोड़ा वक्त लगता है।

सहाय की बात से सहमति जताते हुए पारिख कहते हैं, “बांग्लादेश को प्रेफरेंशियल टैरिफ का फायदा मिलता है। यूरोपियन यूनियन समेत कई बाजारों में भारत को यह फायदा नहीं मिलता। इसलिए सरकार को ज्यादा से ज्यादा ट्रेडिंग ब्लॉक या बड़े देशों के साथ समझौता करना चाहिए। अभी चीन जिन बाजारों में अपना माल भेज रहा है, वहां भारतीय माल भेजने पर ज्यादा ड्यूटी ना लगे।”

सरकार मुहैया कराएगी इन्फ्रास्ट्रक्चर

सहाय के मुताबिक सरकार स्पेशल इकोनामिक जोन और इंडस्ट्रियल जोन की पॉलिसी में भी कुछ बदलाव करने जा रही है। इसमें यह प्रावधान हो सकता है कि सरकार इन्फ्राट्रक्चर मुहैया कराए और इंडस्ट्री आकर अपनी यूनिट लगाए। यह एसएमई के लिए अच्छा मौका होगा। अभी इन कंपनियों को जमीन और बिल्डिंग में काफी निवेश करना पड़ता है, टेक्नोलॉजी में निवेश करने के लिए ज्यादा पैसे नहीं बचते। सरकार इन्फ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराएगी तो कंपनियां टेक्नोलॉजी पर ज्यादा खर्च कर सकेंगी।

कर्मचारियों की स्किलिंग बड़ा मुद्दा

सहाय स्किलिंग को बड़ा मुद्दा मानते हैं। वे कहते हैं, कर्मचारियों की प्रोडक्टिविटी कम होगी तो उसका असर होगा ही। इसलिए इस पर फोकस होना चाहिए। मेरे विचार से इंडस्ट्री को भी इसमें आगे आना चाहिए। बजट में रीस्किलिंग का प्रावधान किया गया है। सरकार पॉलिसी बना सकती है, आखिरकार इंडस्ट्री को ही तय करना होगा कि उसे किस तरह की स्किलिंग चाहिए। इंडस्ट्री अगर सरकार के साथ कोऑर्डिनेशन में काम करे तो इस मुद्दे का भी हल निकाला जा सकता है।

पारिख एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं। “चीन में कर्मचारी अपना काम खुद कर लेते हैं, उनके ऊपर कोई सुपरवाइजर रखने की जरूरत नहीं पड़ती। काम की यह संस्कृति भारत में भी अपनानी पड़ेगी।”

सहाय के मुताबिक ग्लोबल प्रैक्टिस यही है कि विभिन्न सेक्टर के लिए कर्मचारियों को प्रशिक्षित करके रखा जाता है। इथोपिया का उदाहरण लें। वहां अपैरल सेक्टर के लिए काफी बड़ा जोन बनाया गया है, जिसके लिए 35 हजार कर्मचारियों को पहले से प्रशिक्षित करके रखा गया है। कोई भी कंपनी आए, उसे इन्फ्रास्ट्रक्चर के साथ प्रशिक्षित कर्मचारी भी मिलेंगे। उसे उत्पादन शुरू करने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। भारत में भी इस तरह की प्रैक्टिस अपनाई जा सकती है।

पारिख के अनुसार, निर्यातकों को कर्मचारियों के मामले में लचीला रुख अपनाने की अनुमति दी जानी चाहिए। कई बार बड़ा ऑर्डर मिल जाता है जिसे पूरा करने के लिए उन्हें अतिरिक्त कर्मचारी रखने पड़ते हैं। कई बार उनके पास ऑर्डर बहुत कम रहता है। इसलिए उन्हें जरूरत के मुताबिक ‘हायर एंड फायर’ की इजाजत होनी चाहिए।

पारिख इंडस्ट्री की एफिशिएंसी बढ़ाने की बात भी कहते हैं, “भारत में उत्पादन का स्केल बहुत छोटा होता है। चीन की फैक्ट्रियों में कितने बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है। उससे मुकाबला करने के लिए हमें भी अपना स्केल बढ़ाना पड़ेगा ताकि लागत कम हो। भारतीय मैन्युफैक्चरर्स के पास अब भी पुरानी मशीनरी है, उन्हें प्लांट और मशीनरी में भी निवेश करना पड़ेगा।”

भारत का विकल्प नहीं

एसबीआई रिसर्च के अनुसार अमेरिका और यूरोप चार दशक की सबसे ऊंची महंगाई दर से जूझ रहे हैं। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में गिरावट के कारण चीन के बैंकों की स्थिति कमजोर हुई है। महंगाई का स्तर भारत में भी ऊंचा है, लेकिन पश्चिमी देशों जितना नहीं। यहां जनवरी-जून 2022 में घरों की बिक्री एक दशक में सबसे ज्यादा हुई है। यहां के बैंक भी मजबूत स्थिति में हैं। चीन में लोगों की औसत उम्र बढ़ रही है और परिवार का आकार छोटा हो रहा है। इसलिए वहां घरेलू डिमांड भी कम बढ़ेगी। दूसरी तरफ भारत की आबादी जल्दी ही चीन से अधिक हो जाने की संभावना है। इसलिए यहां घरेलू डिमांड बढ़ने की पूरी संभावना है।

नई भू-राजनैतिक परिस्थितियों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां 'चाइना प्लस वन' मॉडल अपना रही हैं। वे कुछ मैन्युफैक्चरिंग ऐसे देश में शिफ्ट में करना चाहती हैं जो सस्ता लेकिन स्किल्ड लेबर उपलब्ध कराए, जहां ईज ऑफ डुइंग बिजनेस के साथ प्रतिस्पर्धा और इनोवेशन भी हो। ताइवान, वियतनाम, फिलिपींस और बांग्लादेश जैसे देश भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए विकल्प हैं, लेकिन भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का भी फायदा मिल रहा है।