नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/विवेक तिवारी। फरवरी का महीना इस साल भी गर्म हो रहा है। कई जगहों पर पारा 37 डिग्री के पार जा चुका है। पर्यावरणविद इस महीने इतनी गर्मी की वजह क्लाइमेट चेंज को मानते हैं। इसी संदर्भ में द क्रॉस डिपेंडेंसी इनीशिएटिव (एक्सडीआई) की अध्ययन रिपोर्ट सामने आई है। यह रिपोर्ट चेतावनी जारी करने के साथ-साथ आगाह करने वाली भी है। रिपोर्ट में क्लाइमेट चेंज के खतरों का सामना करने में चीन के बाद भारत को रखा गया है। रिपोर्ट में प्रभावित होने वाले शीर्ष 50 राज्यों की सूची बनाई गई है, जिनमें भारत के नौ राज्य हैं। इनमें बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, राजस्थान, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और केरल शामिल हैं। अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 2050 तक जो राज्य सबसे ज्यादा खतरे से घिर जाएंगे उनमें शीर्ष 50 में से 80 प्रतिशत प्रदेश चीन, अमेरिका और भारत के होंगे।

क्लाइमेट रिस्क समूह का दावा है कि यह पहली बार है, जब दुनिया के हर राज्य, प्रांत और क्षेत्र की तुलना में विशेष रूप से निर्मित पर्यावरण पर केंद्रित भौतिक जलवायु जोखिम विश्लेषण किया गया है। अमेरिका में आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य कैलिफोर्निया, टेक्सास और फ्लोरिडा सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।

एक्सडीआई के घरेलू जलवायु जोखिम डेटा सेट ने इन राज्यों की रैंकिंग तटवर्ती क्षेत्र व मैदानी इलाकों में बाढ़, समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी, अत्यधिक गर्मी, जंगल की आग, सूखे के कारण मिट्टी का क्षरण, अत्यधिक तेज हवा व बर्फीले तूफान से इमारतों और संपत्ति को नुकसान के अनुमानों के आधार पर की है।

इस रिपोर्ट में टॉप 100 में पाकिस्तान के कई प्रांत शामिल हैं। विगत वर्ष जून और अगस्त के बीच विनाशकारी बाढ़ ने पाकिस्तान के 30 प्रतिशत क्षेत्र को प्रभावित किया था। सिंध प्रांत में नौ लाख से ज्यादा घर आंशिक या पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गए थे।

एशियाई क्षेत्रों को होगा नुकसान

सीईओ रोहन हम्‍देन ने कहा, अगर जलवायु परिवर्तन के कारण चरम मौसमी हालत उत्पन्न हुए तो क्षति के सम्‍पूर्ण पैमाने और जोखिम में वृद्धि के लिहाज से सबसे ज्यादा नुकसान एशियाई क्षेत्र को होगा। मगर यदि जलवायु परिवर्तन को बदतर होने से रोका गया और जलवायु के प्रति सतत निवेश में वृद्धि हुई तो इसका सबसे ज्यादा फायदा भी एशियाई देशों को ही होगा।

चीन के इन राज्यों पर अधिक खतरा

चीन के राज्य जियांगसू, शेनडोंग, हेबी, गुआंगडोंग तथा हेनान पर क्षति का सबसे ज्यादा खतरा है। ऐसा इसलिए क्योंकि ये सभी राज्‍य बड़े हैं और उनमें काफी ज्यादा औद्योगिक, कारोबारी, आवासीय तथा वाणिज्यिक विकास हुआ है। साथ ही साथ वे समुद्र के जलस्तर में वृद्धि और बाढ़ के खतरों के लिहाज से भी बहुत संवेदनशील हैं।

क्लाइमेट चेंज से बढ़े संक्रामक रोग

क्लाइमेट चेंज के प्रभावों के चलते आने वाले समय में संक्रामक रोग तेजी से बढ़ेंगे। मशहूर पत्रिका नेचर में छपी एक रिपोर्ट में अमेरिकी शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि अब तक ज्ञात लगभग 375 संक्रामक बीमारियों में से 58 फीसदी (लगभग 218 बीमारियां) बेहद गंभीर हो चुकी हैं। क्लाइमेट चेंज की वजह से इन बीमारियों के तेजी से फैलने का खतरा बढ़ा है। आने वाले दिनों में ये बीमारियां लोगों की सेहत के लिए तो मुश्किल पैदा करेंगी ही, इनसे बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान भी होगा। कोरोना के चलते बड़ी संख्या में लोगों ने अपनी जान गंवाई, साथ ही इस बीमारी से निपटने के लिए अकेले अमेरिका को लगभग 16 ट्रिलियन डॉलर खर्च करने पड़े।

आईसीएमआर में सेंटर ऑफ एक्सिलेंस फॉर क्लाइमेट चेंज एंड वेक्टर बॉर्न डिजीज के प्रिंसिपल इनवेस्टिगेटर रहे डॉक्टर रमेश धीमान बताते हैं कि जल जनित और वेक्टर जनित रोग पैदा करने वाले जीव जलवायु के प्रति संवेदनशील होते हैं। मच्छर, सैंड फ्लाई, खटमल जैसे बीमारी फैलाने वाले कीटों का विकास और अस्तित्व तापमान और आर्द्रता पर निर्भर करता है। ये रोग वाहक मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, जापानी एन्सेफलाइटिस, कालाजार जैसी बीमारी बहुत तेजी से फैला सकते हैं। आने वाले समय में संभव है कि जलवायु परिवर्तन के चलते कुछ इलाके जहां पर कोई विशेष संक्रामक बीमारी नहीं थी, अचानक बीमारी फैलने लगे। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भौगोलिक रूप से एक समान नहीं होगा क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग जलवायु विशेषताएं होती हैं। उदाहरण के लिए, भारत में हिमालयी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील है क्योंकि तापमान में वृद्धि के कारण ये इलाके मलेरिया और डेंगू के लिए उपयुक्त हो गए हैं। देश का दक्षिणी भाग कम प्रभावित होने की संभावना है क्योंकि यहां लगभग पूरा साल पहले ही वेक्टर जनित रोगों के फैलने के उपयुक्त होता है।

जलवायु परिवर्तन ने बढ़ाए 200 से अधिक संक्रामक रोग

शारदा अस्पताल के एमडी (जनरल मेडिसिन) डॉ श्रेय श्रीवास्तव का कहना है कि जलवायु परिवर्तन ने 200 से अधिक संक्रामक रोगों को बढ़ा दिया है, क्योंकि तापमान में अंतर लगभग 2 डिग्री सेल्सियस तक है। वेक्टर जनित, पानी और हवा से होने वाली बीमारियां विभिन्न प्रकार के जलवायु परिवर्तनों से जुड़ी हैं। जैसे सूखा पड़ने पर वायरल एन्सेफेलाइटिस, चिकनगुनिया, सांस से संबंधित रोगों के मामले बढ़ जाते हैं। बाढ़ में वायरल, गैस्ट्रोएंटेराइटिस, क्रिप्टोस्पोरिडियम, मलेरिया, डेंगू, हैजा, टाइफाइड, लसीका फाइलेरिया के मामले बढ़ते हैं। जलवायु परिवर्तन काफी तेजी से हो रहा है इसलिए भविष्य में इसके चलते कई संक्रामक रोगों का प्रकोप तेजी से बढ़ेगा।

तेज गर्मी से हुई मौत

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार अप्रैल से जून (2022) तक तेज गर्मी के आघात से 56 लोगों की मौत हुई है। अप्रैल माह में 44 लोग, मई माह में 10 लोग और जून माह में दो लोगों की मौत हुई। अप्रैल माह में तेज गर्मी से आघात के 1091 नए मामले सामने आए। मई माह में 1619 और जून माह में 750 मामले सामने आए।

हीट बेव है खतरनाक

पर्यावरण और डेवलपमेंट के मुद्दों पर काम करने वाली संस्था इंटीग्रेटेड रिसर्च एंड एक्शन फॉर डेवलपमेंट ने कनाडा की संस्था इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर के साथ हीट वेव पर एक रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में बढ़ती हीट वेव को काफी चिंताजनक बताते हुए इसे साइलेंट किलर बताया है। रिकॉर्ड बताते हैं कि हीट वेव्स से प्रभावित राज्यों की संख्या 2015 से 2019 के बीच लगातार बढ़ी है। 2015 में पूरे साल में औसतन 7 दिन हीट वेव दर्ज की गई जो 2019 में बढ़ कर पूरे साल में 32 दिन हो गयी। ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक क्लाइमेट चेंज के चलते दक्षिण एशिया के देशों में गर्मी और हीट वेव बढ़ेगी। रिपोर्ट के मुताबिक हीट वेव के चलते एक तरफ जहां लोगों के स्वास्थ्य और जीवन पर सीधा असर पड़ रहा है वहीं उनकी प्रोडक्टिविटी भी घट रही है।

क्लाइमेट चेंज के चलते बढ़ जाएगा घना कोहरा

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी (IITM) और कनाडा स्थित विक्टोरिया बीसी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने CMIP6 मॉडल के जरिए ये अध्ययन किया। इस अध्ययन में पाया गया कि 2015 से 2045 के बीच वायु प्रदूषण, क्लाइमेट चेंज और ग्रीन हाउस गैसों के चलते बढ़ती गर्मी से आने वाले सालों में सर्दियों में कोहरे भरे दिनों में 154 फीसदी की बढ़ोतरी होने की संभावना है। वहीं कोहरा 57 फीसदी ज्यादा घना होगा। शोध में शामिल कनाडा स्थित विक्टोरिया बीसी विश्वविद्यालय की वैज्ञानिक डॉ दीप्ति हिंगमिरे के मुताबिक गंगा के तराई वाले इलाकों मे सर्दियों के मौसम में नमी काफी रहती है। ऐसे में हवा में प्रदूषण के कण बढ़ने और क्लाइमेट चेंज के चलते गर्मी बढ़ने से आने वाले समय में कोहरा और अधिक घना होगा।

मक्का, गेहूं, धान की फसलों पर क्लाइमेट चेंज का असर

बिहार कृषि विश्वविद्यालय के एसोसिएट डायरेक्टर और रिसर्च प्रोफेसर फिजा अहमद कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज ने कृषि पर बड़ा प्रभाव डाला है। वह कहते हैं कि इससे मक्का जैसी फसल हर हाल में प्रभावित होगी क्योंकि वे तापमान और नमी के प्रति संवेदनशील हैं। उनके अनुमान के मुताबिक 2030 तक मक्के की फसल में 24 फीसदी तक गिरावट की आशंका है। वहीं गेहूं भी इसकी वजह से काफी प्रभावित हो रहा है। वह बताते हैं कि अगर तापमान में चार डिग्री सेंटीग्रेड का इजाफा हो गया तो गेहूं का उत्पादन पचास फीसद तक प्रभावित हो सकता है। इसके अलावा धान जैसी फसलों की पैदावार में भी गिरावट आ सकती है।

काम के घंटे हो रहे प्रभावित

नेचर जनरल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत में मौसम में बदलाव की वजह से काम में 14 वर्किंग दिन (आकलन 12 वर्किंग घंटों के आधार पर) का नुकसान हो जाता है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में मौसम में हो रहे परिवर्तन की वजह से तीस फीसद काम का घाटा उठाना पड़ता है। मौसम वैज्ञानिकों ने चेताया है कि अगर यहीं हालात बने रहे तो आने वाले समय में यह नुकसान बढ़ सकता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में ग्लोबल वार्मिंग की मौजूदा स्थिति के अनुसार सालाना 100 बिलियन घंटे का नुकसान होता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि रिपोर्ट में वर्किंग घंटों का आकलन दिन में 12 घंटे के आधार पर किया गया है। अध्ययन में इसे सुबह सात बजे से लेकर शाम सात बजे तक माना गया है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के विवेक चट्टोपाध्याय के मुताबिक मौसम परिवर्तन और प्रदूषण आपकी उत्पादकता को प्रभावित करता है क्योंकि अगर आप सेहतमंद नहीं होंगे तो कार्यक्षेत्र में बेहतर नहीं कर पाएंगे। विवेक कहते हैं कि वायु प्रदूषण को घटाने के लिए सरकार अगर सही कदम उठाए और इसको नियंत्रित कर सके तो इससे जीडीपी को होने वाले नुकसान को काफी कम किया जा सकता है।

जलवायु परिवर्तन से 43 साल में खत्म हो जाएगा अमेजन का जंगल

यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा की एक रिपोर्ट में सामने आया है कि दुनिया का सबसे बड़ा जंगल अमेजन अगले 43 सालों यानी साल 2064 तक पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। दुनिया को 20 फीसद ऑक्सीजन इसी जंगल से प्राप्त होता है।

ये उपाय किए जाने की जरूरत

शहरों तथा सरकारी अधिकारियों को पूर्व चेतावनी प्रणाली (वार्निंग सिस्टम), हीट वेव्स आपदा तैयारी से संबंधित प्रशिक्षण से लैस किए जाने की आवश्यकता है। हीट वेव के दौरान सहायता के लिए सामुदायिक आउटरीच कार्यक्रम और अत्यधिक गर्मी के सबसे बुरे प्रभावों से बचने के लिए सक्रिय शहरी नियोजन बनाए जाने की भी जरूरत है।

अहमदाबाद में सबसे पहले हीट एक्शन प्लान (एचएपी) 2013 में विकसित किया गया था। इसके तहत लोगों को मोबाइल फोन पर एसएमएस के जरिये मौसम संबंधी अलर्ट भेजा जाता था। चिकित्सकों को हीट वेव्स से निपटने के लिए विशेष तौर पर प्रशिक्षित किया गया। 2018 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, इस पहल ने एक वर्ष में 1,190 मौतों को टाला।

पानी के भंडारण पर काम करना होगा

तेज गर्मी से वॉटरबॉडीज से पानी तेजी से भाप बन कर उड़ेगा। सीएसई की सुनीता नारायण के मुताबिक हमें तत्काल बड़े पैमाने पर पानी के भंडारण पर काम करने के साथ इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि पानी का वाष्पीकरण कम से कम हो। इसके लिए कदम उठाए जाने की जरूरत है। बढ़ते तापमान के साथ वाष्पीकरण की दर अब बढ़ेगी। उन्होंने कहा कि पानी के भंडारण के लिए सबसे बेहतर विकल्प भूमिगत जल भंडारण, या कुओं पर काम करना है। सीएसई के शोधकर्ताओं के अनुसार, भारत के सिंचाई योजनाकार और नौकरशाही काफी हद तक नहरों और अन्य सतही जल प्रणालियों पर निर्भर हैं, उन्हें भूजल प्रणालियों के प्रबंधन में छूट नहीं देनी चाहिए।