महाराष्ट्र चुनाव के होंगे बड़े नतीजे
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव न सिर्फ जीत और हार, सत्ता पक्ष और विपक्ष तय करेगा बल्कि सभी प्रमुख दलों की राजनीतिक हैसियत भी तय कर देगा। यह शायद पहला मौका होगा जब प्रदेश में गठबंधन नहीं पार्टियां चुनाव लड़ेंगी। आत्म विश्वास से लबरेज भाजपा, भयभीत, लेकिन अड़ियल शिवसेना, पूरे देश में सिमट रही कांग्रेस या फिर दबाव बनाकर
नई दिल्ली [आशुतोष झा]। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव न सिर्फ जीत और हार, सत्ता पक्ष और विपक्ष तय करेगा बल्कि सभी प्रमुख दलों की राजनीतिक हैसियत भी तय कर देगा। यह शायद पहला मौका होगा जब प्रदेश में गठबंधन नहीं पार्टियां चुनाव लड़ेंगी। आत्म विश्वास से लबरेज भाजपा, भयभीत, लेकिन अड़ियल शिवसेना, पूरे देश में सिमट रही कांग्रेस या फिर दबाव बनाकर बड़ी पार्टी बनने की कोशिश कर रही राकांपा। चुनाव बाद हालांकि फिर समीकरण और संबंध बदलते दिखेंगे। संभव है कि चुनाव का नतीजा लंबे समय तक के लिए कुछ फार्मूले तय कर देगा।
विधानसभा चुनाव से पहले महाराष्ट्र में कई पुराने स्तंभ ध्वस्त हो गए। विचारधारा के स्तर पर 25 साल से साथ रही भाजपा और शिवसेना ने अलग-अलग राह अपना ली तो समय -समय पर आलोचना करने के बावजूद कांग्रेस के साथ खड़ी राकांपा ने भी संबंध विच्छेद कर लिया। जाहिर है कि चुनाव तो रोचक होगा ही, सभी दलों के लिए आत्मविवेचन भी होगा। खुद को बड़ी पार्टी के रूप में थोपती रही शिवसेना के लिए भी, आत्म विश्वास से लबरेज भाजपा के लिए भी और आत्म संतुष्ट कांग्रेस के लिए भी।
शिवसेना और भाजपा का अलग रास्ते चुनना अनोखी घटना नहीं है। इसकी नींव शायद पहले ही पड़ने लगी थी। महाराष्ट्र में मजबूत पकड़ और लोकप्रियता के बावजूद जहां भाजपा को छोटी पार्टी बनकर रहना और मंजूर नहीं था। वहीं शिवसेना प्रमुख ने अहं की ऐसी चादर ओढ़ रखी थी जिसमें भाजपा और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ केमिस्ट्री बनना मुश्किल था। ऐसे में लोकसभा चुनाव की तर्ज पर बड़े दलों के बजाय छोटे दलों के साथ आगे बढ़ने की रणनीति अपनाकर भाजपा ने महाराष्ट्र फतह करने का रास्ता चुना राह है। संभव है कि लोकसभा की तरह ही मोदी महाराष्ट्र में छह से सात रैलियां कर पूरे प्रदेश में फिर से लहर पैदा करने की कोशिश करें। हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में भी राजग में टूट की अलग-अलग व्याख्या हो सकती है, लेकिन कारण लगभग एक जैसे हैं। अपनी शक्ति आंकने में विफल रही भाजपा ने हरियाणा में ऐसे दल के हाथ में कमान देने की घोषणा कर दी जो खुद भाजपा को बैसाखी बनाए हुए था। गलती सुधारी गई। महाराष्ट्र में भी भाजपा ने महसूस किया कि वह खुद ही सीढ़ी है जिस पर दूसरे दल चढ़कर शीर्ष तक पहुंचना चाहते हैं। इस बार भाजपा ने शिवसेना के लिए सीढ़ी बनने से इन्कार कर दिया। यह किसी से नहीं छुपा है कि शिवसेना के साथ सीटों की लड़ाई सिर्फ मुख्यमंत्री पद के लिए थी। भाजपा शिवसेना को मुख्यमंत्री पद देने की बात करती तो वह बराबरी से सीटों के बंटवारे पर तैयार हो जाती। महाराष्ट्र जैसे अहम राज्य प्रदेश में पार्टी हित को छोड़कर शिवसेना की जमीन सींचना राजनीतिक लिहाज से सही भी नहीं होता। वैसे भी लोकसभा चुनाव में बड़े दलों की बजाय छोटे दलों के साथ चलना भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हुआ। यही कारण है कि शिवसेना से नाता तोड़ने के बावजूद भाजपा ने दूसरे छोटे दलों को साथ रखा है। भाजपा को विश्वास है कि सरकार उसकी ही बनेगी। वैसे नतीजों के बाद फिर से समीकरण बदलते दिखें तो आश्चर्य नहीं। यही नहीं नतीजे लंबे समय के लिए सभी प्रमुख दलों की जगह भी तय कर देंगे। गौरतलब है कि शिवसेना केंद्र की मोदी सरकार में शामिल है। नए फैसलों के बाद यह तय होना बाकी है कि अलग अलग रास्ता चलने का फार्मूला केंद्र पर भी लागू होगा या नहीं। राकांपा ने महाराष्ट्र सरकार से बाहर होने का निर्णय ले लिया है। शायद पार्टी कांग्रेस के दामन पर लगे रहे दाग से खुद को मुक्त करना चाह रही हो। भाजपा के सामने यह साबित करने की चुनौती होगी कि केंद्र में चार महीने होने के बावजूद लहर बरकरार है। बताते हैं कि मोदी महाराष्ट्र में छह से सात रैलियां करेगे और हरियाणा में चार से पांच।