आतंकियों की 'स्टील बुलेट' से बचाव का जवानों के पास क्या है कोई विकल्प
आतंकियों द्वारा इस्तेमाल की गई स्टील बुलेट ने सुरक्षाबलों की नींद उड़ा दी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह बुलेट प्रूफ शील्ड को भेद सकती है।
नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क]। कश्मीर में आतंकियों ने अपनी रणनीति बदल ली है। इस रणनीति में उनकी मदद पाक आर्मी कर रही है। यह मदद आतंकियों की सिर्फ रणनीति बनाने तक ही सीमित नहीं है बलिक उन्हें हाईटैक वैपन और बुलेट मुहैया करवाने तक है। इसी मदद के चलते अब इन आतंकियों के पास घातक स्टील बुलेट पहुंच गई हैं। आतंकियों द्वारा इस्तेमाल की जा रही स्टील बुलेट (Armour Piercing, AP)अब भारतीय सुरक्षाबलों के लिए घातक साबित हो रही है। यह बुलेट जवानों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली बुलेट प्रूफ शील्ड को भेदने में कारगर हैं। यह इसलिए भी बेहद खतरनाक हैं क्योंकि देश के जवानों के अलावा देश के गणमान्य लोग भी बचाव के लिए बुलेट प्रूफ शील्ड का ही इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यह भी है कि इससे बचाव के लिए भारत के पास मौजूदा समय में क्या विकल्प हैं।
जवानों की बुलेट प्रूफ शील्ड चीरकर पार हुई बुलेट
आपको बता दें कि 31 दिसंबर 2017 को आतंकियों से मुकाबले के दौरान सीआरपीएफ के जो पांच जवान शहीद हुए थे उनके शरीर से यही बुलेट बरामद हुई हैं। ये बुलेट उनके द्वारा इस्तेमाल की गई बुलेट प्रूफ शील्ड को पार करती हुई उनके शरीर में घुस गई थी। यह इसलिए भी खास है क्योंकि इस तरह की बुलेट का सेनाओं के पास भी होना कोई आम बात नहीं है। ऐसा पहली बार हुआ है कि आतंकियों ने इस तरह की बुलेट का इस्तेमाल किया हो।एक इंटेलिजेंस रिपोर्ट के मुताबिक इन बुलेट को बनाने में जिस स्टील का इस्तेमाल किया गया वह चीन द्वारा पाकिस्तान ऑर्डिनेंस फैक्टरी को दिया गया था।
आतंकियों के पास कहां से आई स्टील बुलेट
स्टील बुलेट की बात सामने आने के बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि आतंकियों के पास इस तरह की बुलेट पाकिस्तान आर्मी की तरफ से आई होंगी। मुमकिन है कि चीन की तरफ से इस तरह की बुलेट की सप्लाई की गई हो। पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल राज काद्यान भी इससे इत्तफाक रखते हैं। दैनिक जागरण से बात करते हुए उन्होंने कहा कि बहुत हद तक इस तरह की बुलेट की सप्लाई चीन ने पाकिस्तान आर्मी को की होगी। इसके बाद ही यह आतंकियों के पास पहुंची होगी।
पाक आर्मी बेनकाब
उनका कहना था कि यह इस बात का भी पुख्ता सुबूत है कि कश्मीर में आतंकियों का साथ पाकिस्तान की सेना सीधेतौर पर दे रही है। उनके मुताबिक इस तरह की बुलेट नाटो सेना जरूर करती हैं। इसके अलावा जो देश जिनेवा कंवेंशन का हिस्सा हैं उनको भी इस तरह की बुलेट का इस्तेमाल करने की इजाजत होगी। जनरल काद्यान ने बताया कि इस तरह की बुलेट आमतौर पर हथियारों के बाजार में नहीं मिलती हैं। हालांकि उनका कहना था कि बहुत हद तक मुमकिन है कि इस तरह की बुलेट पर भारत में भी रिसर्च का काम चल रहा हो या इसकी प्रक्रिया आगे पहुंचे गई हो। जनरल,काद्यान का कहना था कि इस तरह की तकनीक को हासिल करना बहुत मुश्किल बात नहीं है। आने वाले समय में भारत इसके बचाव के भी तरीके निकाल लेगा। हालांकि मौजूदा समय में भारत को इससे बचाव के विकल्प तलाशने होंगे।
इस तरह की बुलेट की खासियत
एके 47 से निकलने वाली स्टील बुलेट बुलेट प्रूफ शील्ड को भी भेदने में सफल होती है। सामान्य तौर पर एके 47 राइफल में इस्तेमाल की जाने वाली गोली का अगला हिस्सा तांबा का होता है। अभी तक कश्मीर में आतंकी भी तांबे वाली गोली का इस्तेमाल कर रहे थे। सुरक्षा बल के जवानों को जो बुलेट प्रूफ जैकेट और शील्ड दिए गए थे, वे तांबे वाली गोली को रोकने के लिए पर्याप्त थे। आतंकियों की स्टील बुलेट के आगे ये नाकाफी साबित हुए हैं।
किसी से छिपे नहीं है पाक-चीन संबंध
यहां पर ध्यान देने वाली बात यह भी है कि चीन और पाकिस्तान के बीच कूटनीतिक, रणनीतिक और सामरिक संबंध किसी से छिपे नहीं हैं। चीन लगातार पाकिस्तान को हथियारों की सप्लाई से लेकर दूसरे कई मोर्चों पर सीधेतौर पर मदद करता आया है। यहां यह जान लेना भी जरूरी होगा कि चीन दुनिया में तीसरे नंबर का सबसे बड़ा हथियारों का सप्लायर है और उसके बड़े खरीददारों में पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा ग्राहक है।
चीन का एक्सपोर्ट दोगुना
बीते दशक में चीन ने अपने हथियारों के एक्सपोर्ट को दोगुना कर लिया है। इतना ही नहीं दुनिया में हथियारों के बाजार के मामले में उसका शेयर करीब 6 फीसद से भी ज्यादा का है। सिपरी की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016 में चीन ने पाकिस्तान को 35 फीसद, बांग्लादेश को 20 फीसद म्यांमार 16 फीसद हथियार बेचे थे। इसके अलावा वह पाकिस्तान को आठ और बांग्लादेश को दो सबमरीन भी देगा।
ये है स्टील बुलेट का इतिहास
स्टील बुलेट को लेकर यदि इतिहास को खंगाला जाए तो पता चलता है कि स्विस आर्मी के कर्नल एडवार्ड रुबिन ने इसको पहली बार 1882 में बनाया था। हालांकि इसका पहली बार इस्तेमाल 1886 में फ्रांस में विद्रोहियों के खिलाफ किया गया था।
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