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इन चार वर्षों में कैसी रही विपक्ष की भूमिका, सरकार के साथ एक मूल्‍यांकन इनका भी जरूरी

मोदी सरकार के चार वर्षों की चर्चा तो हर जगह हो रही है लेकिन इस दौरान विपक्ष की भूमिका पर भी चर्चा करनी बेहद जरूरी है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 29 May 2018 11:26 AM (IST)Updated: Tue, 29 May 2018 12:14 PM (IST)
इन चार वर्षों में कैसी रही विपक्ष की भूमिका, सरकार के साथ एक मूल्‍यांकन इनका भी जरूरी

[रीता सिंह]। केंद्र की मोदी सरकार की चार साल की उपलब्धियों और चुनौतियों की मीमांसा के बीच यह भी आवश्यक है कि विपक्ष के भी चार साल की भूमिका का परीक्षण और मूल्यांकन हो। लोकतंत्र की संसदीय व्यवस्था में जितना महत्व सत्तारूढ़ दल का होता है उतना ही विपक्ष का भी। लिहाजा दोनों को कसौटी पर कसे जाने का मूल्य-मापदंड एक जैसा ही होना चाहिए न कि अलग-अलग। यह सही है कि संविधान ने दोनों समूहों को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी है और दोनों की भूमिका अलग-अलग है, लेकिन दोनों ही अपनी शीर्ष प्राथमिकता में जनहित के सवरेपरि होने की सच्चाई और जनता की कसौटी पर खरा उतरने की जवाबदेही से इन्कार नहीं कर सकते। किसी भी सरकार की सफलता और असफलता में उसकी नीतियां और कार्यसंस्कृति जितना महत्व रखती हैं उतना ही विपक्ष का विरोध और सहयोग भी।

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विपक्ष का काम केवल सरकार की हर नीतियों का विरोध करना नहीं, बल्कि जनहित के मसले पर विरोध के केंचुल से बाहर निकल सरकार का सहयोग करना भी है। मौंजू सवाल यह है कि क्या इन चार वर्षो में विपक्ष ने अपनी भूमिका का जिम्मेदारीपूर्ण निर्वहन किया है? क्या वह जनहित के मसले पर सरकार का सहयोग व समर्थन किया है? गौर करें तो इस कसौटी पर विपक्ष का रवैया भी बहुत अधिक सकारात्मक नहीं रहा, बल्कि सच कहें तो उसने हर मौके पर विरोध ही किया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण के दिन से ही विपक्ष उनकी आलोचना का प्रण ठाने हुए है और देश को लगातार भ्रमित करता रहा है। प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण के दिन उनके बुलावे पर जब पड़ोसी मूल्क के शीर्ष नेतृत्व उपस्थित हुए तो विश्व समुदाय अभिभूत हुआ, लेकिन विपक्ष उसकी सराहना के बजाय सरकार का उपहास उड़ाया। यही नहीं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद की दहलीज पर माथा टेककर देश को बदलने का इरादा जाहिर किया तब भी विपक्ष का रवैया हैरान करने वाला रहा। वह तारीफ के बजाय खिल्ली उड़ाता नजर आया।

देखा जा रहा है कि सकारात्मक मसलों पर भी वह संसद को बाधित करता रहा है और इस बार तो उसने हद ही कर दी। संसद को चलने ही नहीं दिया। कर्नाटक में कन्नड़ लेखक कलबुर्गी और उत्तर प्रदेश में अखलाक की हत्या के बाद जिस तरह विपक्ष ने मोदी सरकार की घेरेबंदी की और देश में असहिष्णुता का वातावरण निर्मित करने की कोशिश की उससे देश हतप्रभ रह गया। हद तो तब हो गई जब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में कुछ अराजक छात्रों द्वारा देश विरोधी नारे लगाए जाने के बाद जब पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी की तो विपक्ष ने इसे सरकार का तानाशाही रवैया करार दे दिया।

जीएसटी को लेकर भी सरकार को विपक्ष को अनेकों बार मनाना पड़ा। राज्यसभा में विपक्ष के पास बहुमत है। लिहाजा वह ताकत लगाकर सरकार के कई महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित होने से रोकने में कामयाब हो रहा है। आर्थिक मोर्चे पर भी सरकार की सफलता को विपक्ष नाकामियों के तौर पर देख रहा है। सरकार के जनहितकारी योजनाओं पर सवाल खड़ा कर रहा है। नोटबंदी के सवाल पर जिस तरह विपक्ष ने देश को गुमराह करने की कोशिश की उससे देश भर में उसकी छवि नकारात्मक बनी। सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर भी अनावश्यक हमला बोला गया।

वैदेशिक मोर्चे पर भी विपक्ष का रवैया सहयोगात्मक नहीं है। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने शपथ ग्रहण के बाद से ही पड़ोसी देशों की यात्र कर संबंधों में मिठास घोलने का प्रयास कर रहे हैं। बात चाहे नेपाल में भूकंप के दौरान बढ़-चढ़कर मदद की हो अथवा बांग्लादेश देश से सीमा विवाद सुलझाने की, पाकिस्तान से संबंध सुधारने की हो या भूटान-म्यांमार से रिश्ते मजबूत करने की, मोदी सरकार की पहल प्रशंसनीय है। पड़ोसी देशों के अलावा प्रधानमंत्री मोदी वैश्विक महाशक्तियों को भी साधने में सफल साबित हो रहे हैं। लेकिन बिडंबना है कि विपक्ष को इसमें भी खोट नजर आ रहा है। उचित होगा कि विपक्ष मोदी सरकार के चार साल के कार्यकाल की आलोचना के साथ-साथ अपनी भूमिका का भी परीक्षण-मूल्यांकन करे।

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