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आज भी दिलों में जिंदा है चीन से हार की कसक

नई दिल्ली। भारत और चीन के बीच युद्ध को 20 अक्तूबर को 50 साल पूरे हो रहे हैं। भारत और चीन के बीच हुए 1

By Edited By: Published: Thu, 18 Oct 2012 02:20 PM (IST)Updated: Thu, 18 Oct 2012 06:22 PM (IST)

नई दिल्ली। भारत और चीन के बीच हुए युद्ध को 20 अक्तूबर को 50 साल पूरे हो रहे हैं। भारत और चीन के बीच हुए 1962 के युद्ध को आजतक कोई नहीं भुला पाया है। यह एक ऐसी टीस है जो हर बार उभर कर सामने आ ही जाती है। इसकी कसक आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है। इस युद्ध में भारत को जबरदस्त हानि उठानी पड़ी थी। इस युद्ध का असर आज भी दोनों देशों के रिश्तों पर साफतौर से दिखाई देता है।

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अंग्रेजों से मिली आजादी के बाद भारत का यह पहला युद्ध था। एक माह तक चले इस युद्ध में भारत के 1383 सैनिक मारे गए थे जबकि 1047 घायल हुए थे। 1696 सैनिक लापता हो गए थे और 3968 सैनिकों को चीन ने गिरफ्तार कर लिया था। वहीं चीन के कुल 722 सैनिक मारे गए थे और 1697 घायल हुए थे। 14 हजार फीट की ऊंचाई पर लड़े गए इस युद्ध में भारत की तरफ से महज बारह हजार सैनिक चीन के 80 हजार सैनिकों के सामने थे। इस युद्ध में भारत ने अपनी वायुसेना का इस्तेमाल नहीं किया जिसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कड़ी आलोचना भी हुई।

एशिया की इन दो ताकतों के बीच जंग के हालात क्यों बने, रणनीति तौर पर इसके क्या नतीजे हुए, ऐसे तमाम मुद्दों पर आज भी चर्चा जोरों पर है। लेकिन चीन के ही एक रणनीतिकार इसके पीछे माओ का हाथ मानते हैं। चीन के सीसीपी नेता माओ त्से तुंग ने 1962 में भारत के खिलाफ युद्ध का आदेश दिया था ताकि सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी पर उनकी पकड़ बनी रहे।

चीन और भारत के बीच एक लंबी सीमा है जो नेपाल और भूटान द्वारा तीन अनुभागो में फैला हुआ है। यह सीमा हिमालय पर्वतों से लगी हुई है जो बर्मा एवं तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान (आधुनिक पाकिस्तान) तक फैली है। इस सीमा पर कई विवादित क्षेत्र अवस्थित हैं। ज्यादातर लड़ाई ऊंचाई पर हुई थी। अरुणाचल प्रदेश एक पहाड़ी क्षेत्र है जिसकी कई चोटियां 7000 मीटर से अधिक ऊंची है। चीन इन पहाड़ी इलाकों का लाभ उठाने में सक्षम था और चीनी सेना का उच्चतम चोटी क्षेत्रों का कब्जा था। दोनों पक्षों को ऊंचाई और ठंड की स्थिति से सैन्य और अन्य लोजिस्टिक कायरें में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और दोनों के कई सैनिक जमा देने वाली ठंड से मर गए।

पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका, को पहले से ही चीनी नजरिए, इरादों और कायरें पर शक हुआ करता था। इन देशों ने चीन के लक्ष्यों को विश्व विजय के रूप में देखा और स्पष्ट रूप से यह माना की सीमा युद्ध में चीन हमलावर के रूप में था। चीन की अक्तूबर 1964 में प्रथम परमाणु हथियार परीक्षण करने और 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान को समर्थन करने से कम्युनिस्टों के लक्ष्य तथा उद्देश्यों एवं पूरे पाकिस्तान में चीनी प्रभाव के अमेरिकी राय की पुष्टि हो जाती है।

भारतीय सेना में बदलाव

युद्ध के बाद भारतीय सेना में व्यापक बदलाव आए और भविष्य में भारत को इसी तरह के संघर्ष के लिए तैयार रहने की जरुरत है। युद्ध के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर दबाव आया जिन्हें भारत पर चीनी हमले की आशका में असफल रहने का जिम्मेदार ठहराया गया। भारतीयों देशभक्ति में भारी लहर उठनी शुरू हो गई और युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों के लिए कई स्मारक बनाए। भारत पर चीनी आक्रमण की आशका की अक्षमता के कारण, प्रधानमंत्री नेहरू को चीन के साथ होने शातिवादी संबंधों को बढ़ावा के लिए सरकारी अधिकारियों से कठोर आलोचना का सामना करना पड़ा।

भारतीय राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने कहा कि नेहरू की सरकार अपरिष्कृत और तैयारी के बारे में लापरवाह थी। नेहरू ने स्वीकार किया था कि उस वक्त भारतीय अपनी समझ की दुनिया में ही रहते थे। भारतीय नेताओं ने आक्रमण कारियों को वापस खदेड़ने पर पूरा ध्यान केंद्रित करने की बजाय रक्षा मंत्रालय से कृष्ण मेनन को हटाने पर काफी प्रयास बिताया। भारतीय सेना कृष्ण मेनन के कृपापात्र को अच्छी नियुक्ति की नीतियों की वजह से विभाजित हो गई थी, और कुल मिलाकर 1962 का युद्ध भारतीयों द्वारा एक सैन्य पराजय और एक राजनीतिक आपदा के संयोजन के रूप में देखा गया।

सेना के पूर्ण रूप से तैयार नहीं होने का सारा दोष रक्षा मंत्री मेनन पर आ गया, जिन्होंने अपने सरकारी पद से इस्तीफा दे दिया ताकि नए मंत्री भारत के सैन्य आधुनिकीकरण को बढ़ाबा दे सकें। स्वदेशी स्त्रोतों और आत्मनिर्भरता के माध्यम से हथियारों की भारत की नीति इस युद्ध ने पुख्ता किया गया। भारतीय सैन्य कमजोरी को महसूस करके पाकिस्तान ने जम्मू और कश्मीर में घुसपैठ शुरू कर दी जिसकी परिणिति अंतत: 1965 में भारत के साथ दूसरा युद्ध से हुआ। कुछ सूत्रों का तर्क है कि चूंकि भारत ने पाकिस्तान से अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था इसलिए भारत स्पष्ट रूप से जीता था। लेकिन, दूसरों का तर्क था कि भारत को महत्वपूर्ण नुकसान उठाना पड़ा था।

मौजूदा हालात

चीन ने एक बार फिर भारत को नसीहत देते हुए कहा है कि भारत को 1962 के युद्ध से सबक लेना चाहिए। चीन भले ही शाति चाहता है, लेकिन वह अपनी जमीन की सुरक्षा पूरी दृढ़ता के साथ अमल करेगा। चीन के हाव भाव से यी लगता है। 1962 के युद्ध का मकसद भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को अमेरिका और सोवियत संघ के प्रभाव से जगाने के लिए गहरा धक्का पहुंचाना था। चीन के नेता माओत्से तुंग के गुस्से का असली निशाना वाशिगटन और मॉस्को था। 'चाइना वॉन, बट नेवर वाटेड सिनो-इंडियन वार (चीन जीता, लेकिन वह भारत-चीन युद्ध नहीं चाहता)' शीर्षक से छपे इस लेख के लेखक हाग युआन चीन की समाज विज्ञान अकादमी के सेंटर ऑफ वर्ल्ड पॉलिटिक्स के उप महासचिव हैं।

युआन ने लेख में कहा है कि पाच दशक पहले जब चीन कई तरह की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं से जूझ रहा था तब 1959 से 1962 के बीच नेहरू ने भारत-चीन सीमा पर और मुश्किलें पैदा कीं। लेखक के मुताबिक चीन ने यह युद्ध भारत से शाति बनाने के लिए छेड़ा था। इसके मुताबिक, 'युद्ध समझौते की एक रणनीति थी न कि लक्ष्य। 50 साल पहले भारतीय सरकार स्वार्थ में अंधी हो गई थी और चाहती थी कि चीन कॉलोनियल शक्तियों की तय की गई सीमा को स्वीकार ले। लेकिन उसे नामंजूर कर दिया गया। लेख में आगे कहा गया है कि आज दोनों देशों को इस युद्ध के सबक और अपने प्राचीन संबंधों से सीखना चाहिए। वे अपनी जमीन की रक्षा भी करेंगे। लेख से यह बात तो साफ हो गई थी कि सीसीपी के माओ नेता सत्ता पर पकड़ बनाने के लिए ही यह युद्ध कराया था।

1962 की लड़ाई के बाद, चीन ने भारत के साथ कूटनीतिक संपर्क सामान्य करने के लिए कुछ शतर्ें थोप दीं थी। पहली यह कि वह आधिकारिक तौर पर इस जुमले का इस्तेमाल नहीं करेगा कि भारत को चीन से खतरा है। दूसरी यह कि ताइवान के साथ भारत किसी भी तरह का संबंध विकसित नहीं करेगा। दोनों के बीचसंबंधों की बेहतरी के लिए शाति को मौका दिया जाना चाहिए।

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