एस.के. सिंह, नई दिल्ली। बढ़ती आबादी के साथ खाद्य पदार्थों की मांग तो बढ़ रही है, लेकिन खेती लायक जमीन कम होती जा रही है। पैदावार बढ़ाकर और नुकसान कम करके इस अंतर को काफी हद तक दूर किया जा सकता है। इसके लिए नई सोच के साथ आगे आने की जरूरत है। यहां हम 10 ऐसे एग्री-स्टार्टअप के बारे में बता रहे हैं जिन्होंने पैदावार बढ़ाने से लेकर फसलों के इस्तेमाल तक में अनेक सफल प्रयोग किए हैं। किसानों को उनके प्रोडक्ट का फायदा भी मिल रहा है। एग्री-स्टार्टअप सीरीज के इस लेख का उद्देश्य युवाओं को यह बताना है कि कृषि क्षेत्र में किस तरह के प्रयोग हो रहे हैं और उनके लिए क्या संभावनाएं हैं।

बायोप्राइमः पौधों को जलवायु परिवर्तन के प्रति सहनशील बनाना

फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए कई तरह के प्रोडक्ट बनाने वाली प्रमुख स्टार्टअप कंपनी बायोप्राइम एग्रीसॉल्यूशंस की सह-संस्थापक डॉ. रेणुका दीवान ने जागरण प्राइम को बताया, “हमने अभी तक जितने प्रोडक्ट लॉन्च किए हैं वे सब पौधों को क्लाइमेट रेसिलियंट यानी जलवायु के प्रति सहनशीलता बढ़ाने के काम आते हैं। हम ऐसे मॉलिक्यूल ढूंढ़ते हैं जो पौधों में अलग-अलग प्रक्रियाओं को मॉडिफाई कर सकते हैं।”

डॉ. रेणुका के अनुसार, “बायोप्राइम करीब दो महीने में नया प्रोडक्ट लॉन्च करने वाली है। वह भी मॉलिक्यूल आधारित होगा। वह न्यूट्रिएंट्स (फर्टिलाइजर) के इस्तेमाल से जुड़ा है। इससे फर्टिलाइजर की जरूरत 50% तक कम हो सकती है।” उन्होंने बताया कि इसके परीक्षण को आईआईएचआर ने भी प्रमाणित किया है। उसने भी कहा है कि फर्टिलाइजर का इस्तेमाल 50% तक कम हो सकता है।

उन्होंने बताया कि यह प्रोडक्ट कई तरीके से पौधों की मदद करेगा। एक तो यह पौधों में न्यूट्रिएंट्स जाने की प्रक्रिया को ज्यादा सक्षम बनाता है और दूसरा, पौधों में न्यूट्रिएंट्स के इस्तेमाल की प्रक्रिया को तेज करता है। इस साल खरीफ में 25 हजार एकड़ क्षेत्र में इसका इस्तेमाल करने का लक्ष्य है। अगले साल से उत्पादन बढ़ाया जाएगा।

पुणे स्थित बायोप्राइम प्लांट एसोसिएटेड माइक्रोब की लाइब्रेरी भी बना रही है। यह अपनी तरह की देश की सबसे बड़ी लाइब्रेरी होगी। इस लाइब्रेरी से पता चलेगा कि हम सबसे अच्छे स्ट्रेन, सबसे अच्छे माइक्रोब कहां खोज सकते हैं। डॉ. रेणुका ने बताया कि इससे जैव विविधता भी संरक्षित की जा सकेगी।

अनन्य सीड्सः जरूरत के मुताबिक सब्जियों के बीज

दिल्ली की अनन्य सीड्स के एमडी डॉ. लक्ष्मीकांत पांडे ने बताया कि उनकी कंपनी मुख्य रूप से सब्जियों के बीज और चुनिंदा फील्ड क्रॉप पर काम करती है। उन्होंने फूल गोभी, पत्ता गोभी, बैंगन, टमाटर समेत 26 फसलों की करीब 110 वैरायटी विकसित की हैं। उन्होंने बताया, “नई वैरायटी विकसित करते समय तीन-चार बातों पर ध्यान दिया जाता है- समय कम लगे, पैदावार ज्यादा हो, बीमारी कम लगे और उसमें हीट टॉलरेंस की भी क्षमता हो।”

बैंगन का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया, “आम तौर पर एक एकड़ में 80-90 क्विंटल की पैदावार होती है। हमारे बीज से यह 120-125 क्विंटल तक हो जाती है। इन किस्मों का हार्वेस्टिंग टाइम भी अधिक होता है। यानी किसान लंबे समय तक खेत में इन्हें रख सकते हैं और थोड़ा-थोड़ा तोड़कर बेच सकते हैं।

डॉ. पांडे के अनुसार, हमने दो बातों पर फोकस किया। एक तो यह कि हम जो भी वैरायटी लाएं उसमें कुछ न कुछ अतिरिक्त पोषण हो और दूसरा, उसमें जलवायु परिवर्तन को बर्दाश्त करने की क्षमता होनी चाहिए। वह थोड़ी सर्दी भी सह सके और थोड़ी गर्मी भी। आज अगर कोई किस्म जलवायु परिवर्तन को सहने में सक्षम नहीं है तो वह किसान के लिए फायदेमंद नहीं होगी।

डॉ. पांडे ने बताया, हमने कंज्यूमर की जरूरतों के मुताबिक भी वैरायटी विकसित की है। उदाहरण के लिए, कुछ साल पहले पत्ता गोभी दो-ढाई किलो तक की आती थी। आज शहरों में परिवार छोटे हो गए हैं। वे ढाई किलो की पत्ता गोभी नहीं खरीदना चाहेंगे। उनके लिए हमने 400-500 ग्राम वजन वाली गोभी की किस्में तैयार की हैं। इसी तरह बैंगन, करेला तथा अन्य सब्जियों की भी वैरायटी हैं। हम यह सोच कर तैयारी करते हैं 10 साल बाद उपभोक्ताओं को किस तरह की जरूरत होगी। एक वैरायटी विकसित करने में 6 से 8 साल लग जाते हैं। अगर हम आज नहीं सोचेंगे तो 10 साल बाद लोगों की जरूरत के मुताबिक आपूर्ति नहीं कर सकेंगे। डॉ. पांडे ने 2011 में कंपनी रजिस्टर्ड कराई थी और 2013 में काम शुरू किया। अपनी सफलता का बड़ा श्रेय वे पूसा को देते हैं।

क्रूज़ डायनेमिक्सः ग्राफीन से बुलेटप्रूफ जैकेट, सैनिटरी पैड

किसानों के पराली जलाने की समस्या से हम हर साल दो-चार होते हैं। लेकिन मेकैनिकल इंजीनियर और मेरठ स्थित स्टार्टअप क्रूज़ डायनेमिक्स के सह-संस्थापक आकाश पांडे तथा उनकी टीम ने पराली और बगास से ग्राफीन बनाकर इसका समाधान निकाला है। इस ग्राफीन का इस्तेमाल उन्होंने बुलेटप्रूफ जैकेट, सीमेंट की ईंट, गद्दे और सैनिटरी पैड समेत कई चीजों में किया है। आकाश की टीम में सचिन गुप्ता, राहुल लाकड़ा, राजेश सिंह और दीपक कश्यप हैं।

आकाश ने बताया कि ग्राफीन से बने बुलेटप्रूफ जैकेट का वजन करीब सवा किलो है, जबकि सामान्य बुलेटप्रूफ जैकेट का वजन तीन किलो से अधिक होता है। उनका दावा है कि यह जैकेट कई परीक्षणों में खरा उतरा है। इस टीम ने सीमेंट की ईंटों में भी ग्राफीन का प्रयोग किया जो सामान्य सीमेंट ईंटों से डेढ़ से दो गुना ज्यादा मजबूत पाया गया। ग्राफीन से बनी ईंट में 15% कम सीमेंट का इस्तेमाल हुआ। एक किलो सीमेंट बनाने में करीब 20 किलो कार्बन डाइऑक्साइड गैस निकलती है। इस तरह सीमेंट की बचत से पर्यावरण को भी फायदा होगा। 1000 किलो बगास से लगभग 350 किलो ग्राफीन बनाई जा सकती है।

ग्राफीन में एंटी बैक्टीरियल और एंटी फंगल गुण होते हैं। इस गुण के कारण उन्होंने ग्राफीन युक्त सेनेटरी पैड भी बनाया है। उन्होंने बताया कि Miry नाम से यह पैड अप्रैल में लॉन्च होने की उम्मीद है। इन्हीं गुणों के कारण टीम ने ग्राफीन युक्त फोम भी बनाया है। आकाश ने बताया कि गाड़ियों में इस्तेमाल होने वाले फाइबर में अगर ग्राफीन मिला दिया जाए तो उसकी मजबूती भी दोगुनी हो जाएगी।

यह टीम ऐसी डिवाइस पर भी काम कर रही है जिससे फल-सब्जियों की शेल्फ लाइफ बढ़ जाएगी। सचिन गुप्ता ने बताया कि पत्ते वाली सब्जियों की शेल्फ लाइफ 10 दिन, गोभी की 30 दिन और गाजर, चुकंदर, मूली आदि की 15 दिन बढ़ सकती है। किसानों को यह डिवाइस करीब 15 हजार रुपये में पड़ेगी और इसमें वे 500 किलो तक सब्जी रख सकते हैं। इसका मेंटिनेंस का खर्च भी बहुत कम होगा।

ईडेन हॉर्टिकल्चरः बागवानी के क्षेत्र में कंसल्टेंसी

इजराइल कृषि क्षेत्र में इनोवेशन के लिए जाना जाता है। वहां 2010 से 2014 तक विजिटिंग साइंटिस्ट के रूप में काम कर चुके डॉ. अखिलेश कुमार पहले हरियाणा के करनाल स्थित सेंटर ऑफ एक्सीलेंस में थे। इन केंद्रों पर आम तौर पर टेक्नोलॉजी का डेमोंसट्रेशन किया जाता है। वहां उनकी मुलाकात ऐसे लोगों से हुई जो टेक्नोलॉजी लेकर काम तो करना चाहते थे, लेकिन कैसे करना है यह नहीं जानते थे। तब डॉ. अखिलेश को कंसल्टेंसी देने का आइडिया आया। उन्होंने बागवानी पर फोकस किया और ईडेन हॉर्टिकल्चर सर्विसेज नाम की कंपनी खोली।

वे जागरण प्राइम से कहते हैं, “कृषि में कोई रणनीति कॉपी-पेस्ट नहीं होती। जैसे, करनाल में मिट्टी अलग है, यहां का वातावरण अलग है। यहां से कुछ दूर चले जाएं तो वहां सब कुछ बदल जाएगा। इसलिए हर जगह के हिसाब से अलग रणनीति अपनानी पड़ती है।” ईडेन हॉर्टिकल्चर सर्विसेज प्रोजेक्ट विजिबिलिटी रिपोर्ट तैयार कर बताती है कि किस जगह पर कौन सी फसल हो सकती है, उसकी आर्थिक व्यवहार्यता कितनी है। जाहिर है कि कॉरपोरेट और बड़े किसान ही उनके क्लाइंट हैं। डॉ. अखिलेश ने 2017 में काम शुरू किया था और अभी तक करीब 15 राज्यों में 50 से ज्यादा एग्री प्रोजेक्ट पर काम कर चुके हैं।

डॉ. अखिलेश कहते हैं, भारत से अनेक लोग स्टडी टूर के लिए इजरायल जाते हैं। लेकिन जाने वालों को पता नहीं होता कि वहां से क्या सीखकर आएं जिनका भारत में इस्तेमाल किया जा सके। अखिलेश यहां से इच्छुक लोगों को इजरायल लेकर जाते हैं, वहां उनके मतलब की चीजें दिखाते हैं और बी2बी एग्रीमेंट भी कराते हैं। उनका स्टार्टअप आरएंडडी का भी काम करता है। अभी ग्रीनहाउस के डिजाइन पर काम कर रहे हैं ताकि उसकी लागत कम की जा सके।

शुभोराज एग्रोः औषधीय पौधों का बिजनेस

पश्चिम बंगाल में मुख्य रूप से चावल और सब्जियों की ही खेती होती है। वहां औषधीय पौधों की खेती का कोई चलन नहीं रहा है, जबकि सामान्य फसलों की तुलना में इनकी खेती से किसानों को ज्यादा फायदा होता है। औषधीय पौधों की मांग भी लगातार बढ़ रही है। अश्वगंधा की खेती वाले इलाके मुर्शिदाबाद के रहने वाले शुभोदीप राय घटक और उनके साथी राजू सरकार को औषधीय पौधों का बिजनेस शुरू करने का विचार आया और उन्होंने शुभोराज एग्रो प्रा. लि. नाम से कंपनी शुरू की।

अश्वगंधा तो उन्हें आसानी से मिल जाता था, जिन्हें खरीदकर वे फार्मा कंपनियों को सप्लाई करते थे। लेकिन बहुत से ऐसे पौधे हैं जिनकी बाजार में डिमांड तो बहुत थी पर उनकी खेती नहीं होती थी। जैसे, चिया सीड (chia seed) का भारत से निर्यात भी होता है, लेकिन पश्चिम बंगाल में इसकी खेती बहुत कम होती है। जबकि वहां की मिट्टी और वहां का मौसम इसके अनुकूल है। शुभोदीप ने स्थानीय किसानों को ऐसे पौधों की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया।

शीतकालीन फसल चिया के बारे में उन्होंने पिछले साल किसानों को जानकारी दी। किसानों से उसे तय कीमत पर खरीदने के लिए बायबैक एग्रीमेंट भी किया। किसानों को यह पसंद आया और उन्होंने लगभग 200 एकड़ में इसकी खेती की है। अभी इसकी पहली फसल का इंतजार है। शुभोदीप के अनुसार, हम तीन-चार साल से अश्वगंधा का बिजनेस कर रहे थे, लेकिन दो साल से बाकी औषधीय पौधों पर भी फोकस किया है। अभी तक 500 से ज्यादा किसान उनसे जुड़ चुके हैं।

उन्होंने औषधीय पौधों की प्रोसेसिंग यूनिट भी लगाई है। अपने प्रोडक्ट वे ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरीके से बेचते हैं। शुभोदीप ने बताया कि केंद्र सरकार ने एग्री इंफ्रा फंड से कुछ मदद राशि मंजूर की है। जल्दी ही वह रकम मिल जाने की उम्मीद है। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि फसल तैयार होने के बाद किसानों से खरीदते समय बड़ी रकम की जरूरत पड़ती है।

विला ऑर्गेनिक्सः घर-घर में सब्जी की खेती

कभी आपने सोचा था कि किचन गार्डन भी स्टार्टअप का विषय हो सकता है? मध्य प्रदेश के देवास के देवेंद्र कुलकर्णी ने इसी आइडिया को विस्तार देते हुए 2017 में विला ऑर्गेनिक्स स्टार्टअप की शुरूआत की थी। उन्होंने कहा, “आम तौर पर लोग घरों में मटका या प्लास्टिक के कंटेनर में सब्जियां उगाते हैं। हमने हाइजीन और सौंदर्य, दोनों का ख्याल रखते हुए ग्रो बैग्स बनाए हैं।” ग्रो बैग हाई डेंसिटी पॉलीएथिलीन (एचडीपीई) से बने कंटेनर होते हैं, जिनमें पौधे लगाए जाते हैं। एक बार ग्रो बैग लगाने पर वह 4 से 5 साल तक चलता है। विला ऑर्गेनिक्स ग्रो बैग के अलावा ग्राहकों को ऑर्गेनिक मिट्टी, पौधे और अन्य इनपुट भी मुहैया कराती है।

कुलकर्णी के अनुसार, हम पूरी तरह सॉयल-लेस मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। यानी इसमें मिट्टी नहीं होती। नारियल के रेशे, वर्मी कंपोस्ट, गोबर खाद, नीम का खाद यह सब मिलाकर मिट्टी तैयार करते हैं। उसमें ऑर्गेनिक फर्टिलाइजर मिलाते हैं। हम लोगों के घर की जरूरत के हिसाब से सब्जियां लगाने का सुझाव देते हैं। मान लीजिए किसी घर में रोजाना आधा किलो सब्जी की जरूरत है, तो हम उन्हें 4-5 तरह की सब्जियां लगाने का सुझाव देते हैं ताकि रोजाना कोई न कोई सब्जी उन्हें मिलती रहे। इसमें पत्तेदार, जड़ वाली, बेल वाली और पौधे वाली सब्जियों का मिक्स होता है।

उन्होंने बताया, “हम ग्राहकों को ऑर्गेनिक इनपुट भी उपलब्ध कराते हैं। उन्हें बताते हैं कि कब, कितना और किस तरह पानी देना है, किस तरह खाद देनी है। अभी हम इंदौर और आसपास तो बिक्री करते ही हैं, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के जरिए दूसरी जगहों पर भी अपने प्रोडक्ट की सप्लाई करते हैं। हम ग्राहकों को यह भी बताते हैं कि पौधों को कीड़े-मकोड़ों से बचाने के लिए किस तरह घरेलू तरीके अपना सकते हैं।”

किबबज ग्रुपः रोग-रोधी और अधिक पैदावार वाले बीज

पौधों में बीमारी लगना या ज्यादा सर्दी अथवा गर्मी में पौधों का नष्ट हो जाना किसानों की आम समस्या है। इसी समस्या के निदान के लिए राजस्थान के मनोज गोयल ने फसलों की ऐसी वैरायटी विकसित की है जिनमें रोगों के प्रति सहनशीलता हो और पैदावार ज्यादा हो। दो साल पहले स्थापित उनकी किबबज ग्रुप ऑफ कंपनीज अब तक धान, गेहूं, सोयाबीन और सरसों की नई वैरायटी लांच कर चुकी है। ऑर्गेनिक प्रोडक्ट पर सरकार के फोकस को देखते हुए वे कोटा में ऑर्गेनिक फर्टिलाइजर यूनिट लगा रहे हैं।

बीज उपलब्ध कराने के अलावा वे किसानों की और कई समस्याओं के समाधान में लगे हैं। जैसे, किसी किसान ने ऑर्गेनिक फसल की खेती कर ली तो उसे सर्टिफिकेशन दिलवाना, बाजार में उसके उचित दाम नहीं मिल रहे तो यह बताना कि कहां उन्हें अच्छी कीमत मिल सकती है। उनकी कंपनी किबबज इन दिनों एक ऐप पर काम कर रही है। इससे किसानों को मौसम समेत कई तरह की जानकारी मिल जाएगी। अप्रैल-मई तक इसके भी शुरू हो जाने की उम्मीद है। उन्होंने सरकारी नौकरी से रिटायर हुए कृषि वैज्ञानिकों को अपने साथ लिया है, जिनके पास लंबा अनुभव है। कोटा क्षेत्र में वे 4.5 हजार किसानों को अपने साथ जोड़ चुके हैं। जल्दी ही मध्य प्रदेश में भी विस्तार की योजना है।

न्यूट्रीसर्किलः प्रोटीन की कमी दूर करने की कोशिश

लोगों के शरीर में प्रोटीन की कमी आम समस्या बनती जा रही है। इसलिए प्रोटीन सप्लीमेंट की बिक्री भी बढ़ी है। मांसाहारी लोगों के लिए तो एनिमल प्रोटीन के अनेक विकल्प हैं, लेकिन शाकाहारी, खासकर वेगन के लिए विकल्प थोड़े हैं। प्लांट प्रोटीन इनकी समस्या का निदान हो सकता है। हैदराबाद की स्टार्टअप कंपनी न्यूट्रीसर्किल के सीईओ सीएस जाधव प्लांट प्रोटीन यानी पौधों और दाल, मिलेट जैसी फसलों से प्रोटीन निकालने पर काम कर रहे हैं। जाधव 10 वर्षों से ज्यादा समय से मिलेट पर काम कर रहे हैं। कुछ समय पहले तक वे इनर बीइंग नाम की कंपनी से जुड़े थे।

जागरण प्राइम से बातचीत में वे कहते हैं, “हम चावल या गेहूं अधिक खाते हैं। हमारे खाने में कार्बोहाइड्रेट अधिक होता है। दूसरी तरफ, हम मिलेट, दाल समेत कई चीजों के दुनिया में सबसे बड़े उत्पादक हैं जो माइक्रोन्यूट्रिएंट्स और प्रोटीन से भरपूर होते हैं। मूंगफली में भी काफी प्रोटीन पाया जाता है। कई फसलों से प्रोटीन निकालने का काम आखिरी चरण में है। यह जल्दी ही पूरा हो जाएगा।” जाधव इस तरह निकाले गए प्रोटीन को न्यूट्रास्यूटिकल और फार्मा इंडस्ट्री को सप्लाई करेंगे जिन्हें इसकी काफी जरूरत रहती है। यह प्रोटीन प्राकृतिक और केमिकल-फ्री होगा।

इससे किसानों को क्या फायदा होगा, यह पूछने पर उन्होंने बताया कि किसान ड्राई लैंड इलाकों में दाल, मिलेट, तिलहन आदि की अधिक खेती कर सकते हैं। इससे उनकी आमदनी बढ़ेगी। गेहूं-धान की तुलना में इनके लिए बहुत कम पानी और फर्टिलाइजर की जरूरत पड़ेगी। हम सीधे एफपीओ से ये उपज खरीदेंगे तो किसानों को भी बेहतर मार्जिन मिलेगा।

ट्रॉपिकल फार्म्सः सात गुना अधिक उपज देने वाला पॉलीटनल

खेती में पॉलीहाउस का चलन हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ा है। लेकिन सामान्य ग्रीन हाउस का डिजाइन यूरोपीय मौसम के मुताबिक रहता है जहां तापमान बहुत अधिक नहीं होता। भारत में मौसम गर्म और उमस भरा होता है, इसलिए यहां पॉलीहाउस के भीतर तापमान बहुत अधिक हो जाता है। इससे कई बार पौधों को नुकसान भी होता है। कर्नाटक के धारवाड़ के रहने वाले राघवेंद्र जीवन्नावार और इजराइल में प्रशिक्षित एग्री साइंटिस्ट उनके साथी येलप्पा गौड़ा ने इसके समधान के लिए स्मार्ट पॉलीटनल बनाया है।

राघवेंद्र ने बताया कि स्मार्ट पॉलीटनल के भीतर का तापमान बाहर की तुलना में 5 से 6 डिग्री कम रहता है। उनका दावा है कि सामान्य परिस्थितियों की तुलना में पॉलीटनल में खेती से उपज कम से कम 7 से 8 गुना अधिक होती है। यह कीटाणुओं के हमले से सुरक्षित रहता है और मजदूरों की जरूरत भी कम पड़ती है। इसलिए खर्च भी कम आता है।

2021 में स्थापित राघवेंद्र की ट्रॉपिकल फार्म्स एंड एग्रो सॉल्यूशंस अभी कर्नाटक और तमिलनाडु में पॉलीटनल सप्लाई कर रही है। गोवा सरकार ने भी उन्हें आमंत्रित किया है। इसने किसानों के अलावा कुछ बड़े होटल समूह और रिसॉर्ट के साथ पॉलीटिकल लगाने का भी समझौता किया है। इस पॉलीटनल का इस्तेमाल फसल को सुखाने, नर्सरी और पशुपालन में भी किया जा सकता है। किसान इसके भीतर अपनी उपज रख भी सकते हैं। हाल ही उन्होंने बीज तैयार करने के लिए भी एक पॉलीटनल बनाया है। ट्रॉपिकल फार्म्स कृषि में इस्तेमाल होने वाले सभी तरह के इनपुट भी किसानों को उपलब्ध कराती है।

ग्रीन ग्लोबः इंफेक्शन रोकने वाला टेक्सटाइल

अस्पतालों में बेडशीट या तकिए के कवर से इन्फेक्शन फैलने का डर रहता है। महाराष्ट्र की प्रतिमा उके की स्टार्टअप कंपनी ग्रीन ग्लोब ने इसके समधान के तौर पर करीब तीन साल पहले मेडिकेटेड टेक्सटाइल बनाना शुरू किया था। उन्होंने बताया कि इसमें आईसीएआर की नैनो टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया है। विशेष फॉर्मूले के तहत कपड़े को ट्रीट किया जाता है।

अभी ग्रीन ग्लोब बेडशीट, तकिए के कवर, डॉक्टरों के एप्रन बनाती है। नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से सीट के ऊपर ऐसी कोटिंग हो जाती है कि किसी को इंफेक्शन नहीं फैलता। एक बेडशीट 100 बार की धुलाई तक मेडिकेटेड बनी रहती है। उसके बाद उसे फेंक देना पड़ता है। इस बेडशीट का इस्तेमाल घरों में भी किया जा सकता है।

ग्रीन ग्लोब ने हाल ही माइनर फॉरेस्ट प्रोड्यूस की प्रोसेसिंग का काम भी शुरू किया है। जैसे बांस, महुआ के फूल, जामुन आदि। गढ़चिरौली में उनकी प्रोसेसिंग की जाती है। जामुन का सिरप और पाउडर बनाने के अलावा इसने कुछ दिनों पहले महुआ के फूल की कुकीज भी बनाना शुरू किया है।