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दीपा मलिक को 'खेल रत्न', कहा- एक मंजिल मिलती है तो अगली मंजिल पाने का बढ़ता है हौसला

खेल रत्‍न के बाद जोश से भरी पैरा एथलीट दीपा मलिक ‘फिट इंडिया मूवमेंट’ की सजग मिसाल हैं। अपने सकारात्‍मक सोच व उपलब्‍धियों के सहारे उन्‍होंने दिव्‍यांगता को गौण कर दिया।

By Monika MinalEdited By: Published: Thu, 29 Aug 2019 04:13 PM (IST)Updated: Fri, 30 Aug 2019 07:23 AM (IST)
दीपा मलिक को 'खेल रत्न', कहा- एक मंजिल मिलती है तो अगली मंजिल पाने का बढ़ता है हौसला

नई दिल्ली [यशा माथुर]। रियो पैरालंपिक में रजत पदक पाने वाली पैरा एथलीट दीपा मलिक को देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने खेल के सर्वोच्च पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से नवाजा है। पैरा खेलों में महत्वपूर्ण उपलब्धियों के लिए उन्हें यह सम्मान मिला है। खेल रत्न पाकर दीपा कहती हैं कि अब उनमें कुछ ज्यादा करने का जोश और बढ़ गया है...

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सीने के नीचे का हिस्‍सा संवेदन शून्‍य
दीपा मलिक के सीने के नीचे का हिस्सा संवेदनशून्य है। केवल हाथ काम करते हैं और सकारात्मक सोच उन्हें आगे ले जाती है। छह साल की छोटी सी उम्र में स्पाइनल कॉर्ड में ट्यूमर हुआ था लेकिन एक ऑपरेशन के बाद इसे निकाल लिया गया। शादी हुई और दो बेटियां भी हुईं। शादी के दस साल बाद वे 3 जून, 1999 को आखिरी बार अपने पैरों पर चलकर ऑपरेशन थियेटर में गईं। तीन ऑपरेशन और 183 टांकों के बाद उनकी छाती के नीचे के अंगों ने काम करना बंद कर दिया। लेकिन वे रुकी नहीं, थकी नहीं। इसी शरीर से उठना-बैठना सीखा और खेलों में नाम कमाकर एक उदाहरण बन गईं।

'फिट इंडिया मूवमेंट' की सजग मिसाल
दीपा मलिक ऐसी महिला हैं, जिन्होंने दिव्यांगता को अपनी उपलब्धियों से गौण कर दिया। अपना रास्ता खुद बनाकर देश में सबसे आगे रहने का गौरव कई बार प्राप्त किया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन किया। आज उनकी मेहनत को एक बार फिर से सम्मान मिला है। देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार 'राजीव गांधी खेल रत्न' पाकर उन्हें लगता है कि एक मंजिल तो मिली है लेकिन कुछ नया करना है। खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से फिट रखने के लिए कड़े अनुशासन का पालन करने वाली दीपा मलिक 'फिट इंडिया मूवमेंट' की एक सजग मिसाल हैं।

और ज्यादा जोश आ गया है
खेल रत्न पाकर कैसा लग रहा है? इस प्रश्न के जवाब में दीपा कहती हैं, 'लग रहा है जैसे एक मंजिल मिल गई है। लेकिन जब एक मंजिल मिलती है तो अगली मंजिल पाने का हौसला बढ़ जाता है। मुझे लग रहा था कि खेल रत्न मिल गया है तो मेरे अंदर के खिलाड़ी को लगेगा कि काफी कुछ पा लिया लेकिन इस सम्मान के मिलने के बाद तो मुझमें और ज्यादा जोश आ गया है। मुझे लगता है कि कुछ और करना चाहिए। तो कहीं खत्म होने का पड़ाव तो कहीं एक नई शुरुआत का पड़ाव लग रहा है।

दिव्यांग खेलों के आंदोलन को मिलेगा बल
दीपा को यह सम्मान मिलने से निश्चित रूप से उनके जैसे दिव्यांग खिलाड़ी आगे बढऩे के लिए प्रेरित होंगे। जब हमने पूछा उनसे कि इस उपलब्धि से आपके जैसे दिव्यांग खिलाडिय़ों को कैसे प्रेरणा मिलेगी? तो उनका कहना था कि मुझे खेल रत्न का जो सम्मान मिला है उससे दिव्यांग खेलों के आंदोलन को बल मिलेगा। दिव्यांग महिलाओं की भागीदारी खेलों में कम होती है। लोगों की सोच कुछ हद तक बदली है लेकिन अभी बहुत बदलना बाकी है। मैं तो विवाहित थी, मां थी, जब खेलना शुरू किया था तो उम्र भी ज्यादा थी। 46 साल की उम्र में पैरालंपिक मेडल जीता। 47 साल की उम्र में फिर से एशियन रिकॉर्ड बनाया, मेडल जीता। जब यह सब लोग पढ़ेंगे और सुनेंगे तो शायद समाज में बदलाव भी आएगा।

अब और 72 साल न लगे...
जब दीपा ने पैरालंपिक में मेडल जीता था तो देश की आजादी के 70 सालों के बाद किसी महिला पैरा एथलीट ने पहला मेडल जीता था। आज आजादी के 72 सालों में पहली बार किसी दिव्यांग महिला को खेल रत्न पुरस्कार से नवाजा गया है। अब वह चाहती हैं कि यहां तक आने में किसी और दिव्यांग खिलाड़ी को 70 या 72 साल नहीं लगने चाहिए। कहती हैं कि जल्दी-जल्दी और अधिक दिव्यांग महिलाएं खेलें। उम्मीद करती हूं कि यह पुरस्कार पूरे समाज को प्रेरणा देगा।

जब दिव्यांगता को बुरे कर्मों का फल कहा जाता था
खेलों का यह सफर तैराकी से शुरू किया था दीपा ने। यहां से होकर वे एथलेटिक्स में चरम पर पहुंच गईं। उनका सफर बेहद कठिन था। दीपा ने बताया, 'बहुत लोग सोचते हैं कि दीपा पढ़ी-लिखी थी, दीपा एक कर्नल की पत्नी थी या एक कर्नल की बेटी थी तो उसके लिए आसान था लेकिन ऐसा नहीं है कि इससे मेरी दिव्यांगता खत्म हो गई हो। छाती के नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त था, उसे तो मुझे ही झेलना था। इसी शरीर से मुझे खेलों की तैयारी करनी थी। जब मैंने खेलना शुरू किया था तब सुगम्य भारत की बात नहीं हो रही थी। दिव्यांगता को लेकर लोगों की सोच इतनी खुली हुई नहीं थी। दिव्यांगता को बुरे कर्मों का फल कहा जाता था। लोग कहते हैं पिछले जन्म के पाप भुगत रही है। ऐसी सोच को पलट देना और फिर कुछ अलग करना बहुत मुश्किल रहा।'

जिद ने दिलाया मुकाम
'मुझे नदी में उतर कर तैरना था जिसके लिए मुझे जिद पकड़नी पड़ी थी। क्योंकि हिंदुस्तान ने उस महिला को पहाड़ों में मोटर साइकिल चलाते, नदी में बहाव के विरुद्ध तैरते, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर मोटरसाइकिल चलाते हुए नहीं देखा था, जिसके केवल हाथ ही काम करते थे। गाड़ियों में अपने हिसाब से बदलाव करवाए, नए-नए शहर जाना पड़ा, बहुत ट्रैवल किया, बहुत लोगों की मदद मांगनी पड़ी। चुनौतियां बहुत थीं। इन सबमें पैसा भी लगता लेकिन दीपा ने न पति से और न ही पिता से पैसा लिया। खुद मोटिवेशनल टॉक्स कीं, रैलियों की स्पॉन्सरशिप से पैसा बचाया, रेस्टोरेंट चला कर पैसा जुटाया। इसी शरीर से कुछ करना चाहती थी। अब वे खुश हैं कि जो सोचती थी, वैसा कर पाई हैं।

12 से 14 हजार किलो का जिम सेशन
दीपा मलिक की गर्दन के नीचे बहुत बड़ी सर्जरी है लेकिन प्रैक्टिस में कोई रियायत नहीं है। उनकी प्रैक्टिस भी कठिन है। इस बारे में बताते हुए वे कहती हैं, 'अगर वर्ल्‍ड लेवल पर गोला फेंकना है तो 15 से 17 किलो का डंबल भी करना पड़ता है। 48 साल की उम्र में जब जिम से बाहर आती हूं तो 12 से 14 हजार KG का जिम सेशन करके आती हूं। 15 किलो के डंबल के तीन बार के दस सेट, 90 किलो के लैट्रल पुल के दस गुणा दस सेट करती हूं। पैसिव ट्रेनिंग भी करनी पड़ती है। मुझे स्पास्टिक पैराप्लेजिया है। शरीर में अकड़न आती है उसे खत्म करने के लिए फिजियोथेरेपी करनी पड़ती है। पानी में रहकर स्पाज्म का इलाज करवाना पड़ता है। फिर मुझे अपनी थ्रो प्रैक्टिस करनी पड़ती है।'

शौक को दिल से पूरा करें
'हर इंसान के अंदर एक प्रतिभा है, एक हुनर है, एक काबिलियत है या एक शौक है। अब आप अपने शौक को भी दिल से पूरा करेंगे तो अचीवर बन जाएंगे। मैंने क्या किया, मुझे तैरने का शौक था, गाड़ी, मोटरसाइकिल चलाने का शौक था। यह शौक ही तो थे जो अब मेरी उपलब्धियां बन गए। क्योंकि मैंने इन्हें अच्छी तरह से सीखा, निखारा, संवारा, मेहनत की और अव्वल दर्जे पर ले गई। दीपा मलिक अपने दिव्यांग साथियों को आगे बढ़ने के लिए कहती हैं।

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