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Exclusive : 20 साल पहले बेड से उठने की दिखाई हिम्मत, खेल रत्न पाकर खुश हैं-दीपा मलिक

लगभग दो दशक पहले बिस्तर से उठकर खेल मैदान पर पहुंचीं और देश को पैरा कॉमनवेल्थ से लेकर एशियन खेल विश्व चैंपियनशिप और रियो पैरालंपिक में पदक दिलाए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 23 Aug 2019 10:06 AM (IST)Updated: Fri, 23 Aug 2019 11:19 AM (IST)
Exclusive : 20 साल पहले बेड से उठने की दिखाई हिम्मत, खेल रत्न पाकर खुश हैं-दीपा मलिक
Exclusive : 20 साल पहले बेड से उठने की दिखाई हिम्मत, खेल रत्न पाकर खुश हैं-दीपा मलिक

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। दीपा मलिक भारत की ऐसी पैरा एथलीट हैं जिन्होंने विश्व स्तर पर कई पदक जीतकर पहली भारतीय महिला खिलाड़ी होने का गौरव प्राप्त किया। उन्हें अब देश के सर्वोच्च खेल अवार्ड खेल रत्न से नवाजा जाएगा। लगभग दो दशक पहले बिस्तर से उठकर खेल मैदान पर पहुंचीं और देश को पैरा कॉमनवेल्थ से लेकर एशियन खेल, विश्व चैंपियनशिप और रियो पैरालंपिक में पदक दिलाए। उनके इस सफर को लेकर अनिल भारद्वाज ने दीपा मलिक से विशेष बातचीत की। पेश हैं मुख्य अंश-

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प्रश्न- अर्जुन व पद्मश्री अवार्ड के बाद आपको खेल रत्न से नवाजा जा रहा है। तीन बड़े सम्मान पाकर कैसा लग रहा है?
-बहुत लंबा सफर रहा और बहुत खुश हूं। आज एक यात्रा पूरी होने जैसा अहसास हो रहा है। वर्ष 1999 से संघर्ष शुरू हुआ था और आज 49 वर्ष की आयु में खेल रत्न का सम्मान मिल रहा है।

प्रश्न- आपका आधा शरीर लकवा ग्रस्त हुआ और उसके बाद आप खेलों में आईं। आपकी दृढ़ इच्छाशक्ति तो रही होगी, लेकिन किनसे प्रेरित होकर यह सफर तय किया?
-बात वर्ष 2000 के आस पास की है। उन दिनों मैं महाराष्ट्र के अहमदनगर में रहती थी और वहां पर छोटा सा रेस्तरां चलाती थी। वहां पर सभी को पता था कि मैं दिव्यांग हूं। एक दिन विलास डोने नाम के एक व्यक्ति रेस्तरां में आए और उन्होंने मुझे खेलों में आने के लिए प्रेरित किया। वह स्वयं पैरा पावर लिफ्टर थे। उन्होंने मुझे बहुत हौसला दिया और प्रेरित किया, जिसके बाद मैं मैदान पर उतरी। राष्ट्रीय स्तर पर महाराष्ट्र के लिए पदक जीता, तो वर्ष 2009 में महाराष्ट्र सरकार ने शिव छत्रपति अवार्ड से सम्मानित किया। यह मेरा पहला अवार्ड था जिसे लेकर बहुत खुश हुई। इस अवार्ड ने मुझे बहुत कुछ पाने की भूख जगा दी।

प्रश्न- आपके जीवन सुख और दुख से भरा रहा लेकिन किस दिन को अपने लिए सबसे बड़ा दिन मानती हैं?
-सही कहा आपने, जीवन में दुख आए तो सुख भी बहुत आए और मेरे जीवन का सबसे बड़ा दिन उस दिन आया, जब मैंने रियो पैरालंपिक 2016 में पदक जीता। यह दिन मेरे व परिवार के लिए बड़ा दिन था।

प्रश्न- इस क्षेत्र में कठिनाइयां तो बहुत आईं होंगी?
-उन दिनों भारत में दिव्यांग होना अपने आपमें एक कठिनाई थी। भारत में दिव्यांग खिलाड़ी के लिए आज कुछ सुविधाएं मिल रही हैं। मोदी सरकार के ध्यान देने के बाद सुविधाएं बढ़ी हैं। एक समय था जब दिव्यांग खिलाड़ी को कोई नहीं पूछता था। दिव्यांग खिलाड़ी सुविधा के अभाव में दो-तीन साल तक एक खेल स्पर्धा का प्रशिक्षण लेता और बाद में सूचना मिलती कि यह खेल स्पर्धा एशियन या ओलंपिक खेलों में शामिल नहीं है। फिर खिलाड़ी दूसरे खेल स्पर्धा में तैयारी करता इसीलिए आपने देखा होगा कि मैंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग खेल स्पर्धा में पदक जीते हैं। मेरे लिए सबसे बड़ी कठिनाई रही कि मैं अपने बच्चों की उम्र के एथलीटों के साथ प्रशिक्षण लेती थी। इस दौरान बच्चों का बहुत सहयोग मिला।

प्रश्न- अक्सर किसी को दूसरों के लिए काम करते, बहुत कम देखा जाता है। आप स्वयं खेलीं भी और दिव्यांगों को जागरूक करने का अभियान भी चलाया। यह प्रेरणा कहां से मिली ?
-आपको पता है, मेरे पिता सेना में अधिकारी रहे हैं और मेरे पति भी सेना में ही हैं। आर्मी परिवार में यही सिखाया जाता है कि स्वयं के साथ दूसरों के लिए काम करो। मैंने लक्ष्य बनाया था कि खेलने और घर संभालने के साथ देश में दिव्यांग बच्चों, खासकर लड़कियों को प्रेरित करूंगी ताकि वह घर से निकलें और स्वयं ऊंचाइयों को छू लें। मुझे खुशी है कि आज खेलों में सुविधा और खिलाड़ियों की संख्या बढ़ रही है।

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