एस.के. सिंह/अनुराग मिश्र, नई दिल्ली। जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों का सबसे अधिक उत्सर्जन इंडस्ट्री करती हैं। जाहिर है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए उनका उत्सर्जन घटाना बहुत जरूरी है, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है? नहीं। कंसल्टेंसी फर्म बेन एंड कंपनी के एक सर्वे में 75% बिजनेस लीडर्स ने माना कि उन्होंने अपने बिजनेस में सस्टेनेबिलिटी को प्रभावी तरीके से शामिल नहीं किया है। सर्वेक्षण में 67% कंपनियां ने बताया कि उन्होंने सस्टेनेबिलिटी के बड़े लक्ष्य तय किए हैं, लेकिन आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि सिर्फ तीन प्रतिशत कंपनियों को लगता है कि वे लक्ष्य हासिल करने की दिशा में बढ़ रही हैं। ऐसा तब है जब उपभोक्ता सस्टेनेबल प्रोडक्ट की अधिक कीमत चुकाने को तैयार हैं। औद्योगीकरण से पहले की तुलना में वातावरण का तापमान 1.5% डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए 2030 तक हर साल उत्सर्जन कम से कम 7% घटाना जरूरी है, लेकिन वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के अनुसार यह हर साल 1.5% बढ़ रहा है। दुनिया की शीर्ष 1000 कंपनियों में से 20% से भी कम ने 1.5 डिग्री के मुताबिक अपना लक्ष्य निर्धारित किया है।

स्टील और सीमेंट जैसी मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों में ग्रीन हाउस गैसों का बड़े पैमाने पर उत्सर्जन होता है। सामान की ढुलाई हो या फूड डिलीवरी, इनके ट्रांसपोर्टेशन में भी ग्रीन हाउस गैसें निकलती हैं। संयुक्त राष्ट्र की बॉडी जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2019 में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 34% योगदान ऊर्जा सप्लाई सेक्टर का, 24% इंडस्ट्री का, 22% कृषि का, 15% ट्रांसपोर्ट सेक्टर का और 6% बिल्डिंग का था। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) का आकलन है कि 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन हासिल करने के लिए साल 2030 तक हर साल ग्रीन ट्रांजिशन में 4.6 ट्रिलियन डॉलर निवेश करना पड़ेगा।

दुनिया में सामान की ढुलाई से काफी प्रदूषण फैलता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की ‘नेट जीरो चैलेंज: द सप्लाई चेन अपॉरच्युनिटी’ रिपोर्ट में कहा गया है कि सिर्फ आठ सामान की सप्लाई चेन 50% प्रदूषण का कारण है। ये हैं- फूड, कंस्ट्रक्शन, फैशन, एफएमसीजी, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल, प्रोफेशनल सर्विस (बिजनेस ट्रैवल और ऑफिस) और दूसरे फ्रेट सप्लाई चेन। अगर इनका प्रदूषण कम करने के उपाय किए जाएं तो सामान की कीमत मात्र एक से चार फीसदी बढ़ेगी, लेकिन प्रदूषण का बोझ काफी कम हो जाएगा। रिपोर्ट के मुताबिक किसी उत्पाद को बनाने की तुलना में उत्पाद को उपभोक्ता तक पहुंचाने में ज्यादा कार्बन उत्सर्जन होता है। इसलिए सप्लाई चेन से उत्सर्जन कम करना ज्यादा फायदेमंद होगा और यह बड़े बदलाव ला सकता है।

तेज विकास का दंश झेल रही धरती

बेन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, हमने विकास तो बहुत तेजी से किया लेकिन इसके नकारात्मक प्रभाव हमारे समाज के साथ पूरी धरती पर दिख रहे हैं। आम लोगों के साथ कॉरपोरेट जगत को भी जलवायु संकट का सामना करना पड़ रहा है। कंपनियों को नई पर्यावरण और सामाजिक सच्चाइयों के मुताबिक खुद को ढालने की जरूरत है। उन्हें ऐसे बदलाव करने पड़ेंगे जिससे भविष्य में संकट और न बढ़े। इसके लिए बिजनेस में सस्टेनेबिलिटी को अपनाना बेहद जरूरी है। यहां सस्टेनेबिलिटी का मतलब है मौजूदा पीढ़ी की संपन्नता को सुरक्षित रखते हुए भावी पीढ़ियों के लिए संतुलन बनाना।

बेन एंड कंपनी ने दुनिया के कई हजार एग्जीक्यूटिव के साथ इस विषय पर बात की। ये एग्जीक्यूटिव इस बात से तो वाकिफ हैं उन्हें क्या भूमिका निभानी है, लेकिन उनकी कई चिंताएं हैं। जैसे, जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल तत्काल कैसे बंद किया जा सकता है? उभरती अर्थव्यवस्थाओं में ये ईंधन विकास को गति दे रहे हैं।

उपभोक्ता ग्रीन प्रोडक्ट के लिए अधिक कीमत चुकाने को तैयार

ईंधन का सबसे ज्यादा इस्तेमाल सप्लाई चेन में होता है। वर्ल्ड ईकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के अनुसार फूड सप्लाई चेन 25% कार्बन उत्सर्जन का कारण है। मैन्युफैक्चरिंग (सीमेंट, स्टील और प्लास्टिक आदि) से 10%, फैशन से 5%, एफएमसीजी से 5%, इलेक्ट्रानिक्स से 5%, ऑटो से 2%, प्रोफेशनल सर्विस से (बिजनेस ट्रैवेल ऑफिस) 2% और अन्य फ्रेट से 5% उत्सर्जन होता है। बहुत मामूली कीमत पर नई तकनीक अपनाकर इस प्रदूषण को 40% तक कम किया जा सकता है। जैसे, कार और कपड़ों के दाम में सिर्फ दो फीसदी की वृद्धि होगी। खाने की चीजें 4% महंगी होंगी तो निर्माण लागत 3% बढ़ेगी। इलेक्ट्रॉनिक्स के दाम सिर्फ एक फीसदी बढ़ेंगे।

बेन के अनुसार, अनेक कंपनियों को लगता है कि लोग सस्टेनेबिलिटी की कीमत नहीं चुकाएंगे, लेकिन हमारे सर्वेक्षण में यह बात आंशिक रूप से गलत साबित हुई। सर्वेक्षण में अधिकतर उपभोक्ता तीन साल तक सस्टेनेबल प्रोडक्ट की अधिक कीमत देने के लिए तैयार दिखे। इसके लिए वे औसतन 12% प्रीमियम चुकाने को तैयार हैं। यही नहीं, लोगों में ऐसा सेंटीमेंट बढ़ रहा है। अनेक उपभोक्ताओं ने यह भी कहा कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी घटनाओं ने उनकी चिंता बढ़ा दी है।

सिर्फ तीन प्रतिशत कंपनियां उत्सर्जन लक्ष्य की दिशा में

बेन की रिपोर्ट के अनुसार, ज्यादातर बड़ी कंपनियों ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन घटाने का जो लक्ष्य तय किया था, उससे वे काफी पीछे हैं। करीब तीन-चौथाई कॉरपोरेट लीडर्स ने माना कि उन्होंने अपने बिजनेस में सस्टेनेबिलिटी को प्रभावी तरीके से शामिल नहीं किया है। बड़ी कंपनियों की बात करें तो 40% से भी कम कंपनियां सस्टेनेबिलिटी के लक्ष्य की दिशा में बढ़ रही हैं। पानी के इस्तेमाल, कचरा और जैव विविधता के संरक्षण जैसे मामलों में वे काफी पीछे हैं। सर्वेक्षण में 67% कंपनियों ने बताया कि उन्होंने सस्टेनेबिलिटी के बड़े लक्ष्य तय किए हैं, लेकिन सिर्फ तीन प्रतिशत कंपनियों को लगता है कि वे लक्ष्य हासिल करने की दिशा में बढ़ रही हैं। इसका कारण यह है कि कंपनियों ने अपने बिजनेस में जरूरी बदलाव नहीं किए हैं। शीर्ष प्रबंधन ने सस्टेनेबिलिटी के लक्ष्य बिजनेस यूनिट से इनपुट लिए बिना तैयार किए।

एग्री बिजनेस कंपनियों की चुनौतियां

दूसरी इंडस्ट्री की तरह फूड और एग्री बिजनेस कंपनियों के लिए भी जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां बढ़ रही हैं। कृषि क्षेत्र दुनिया का 70% ताजा पानी इस्तेमाल करता है, हमारी खाद्य प्रणाली एक-तिहाई ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। दूसरी तरफ दुनिया में हर साल 20% मौतें खराब डाइट के कारण होती हैं। इसलिए कृषि से जुड़ी कंज्यूमर प्रोडक्ट कंपनियों और रिटेलर्स को उसी नजर से देखा जा रहा है जिस नजर से तेल एवं गैस कंपनियों को। बेन एंड कंपनी का कहना है कि इस सेक्टर की कंपनियों को भविष्य में अपने बिजनेस को सुचारू बनाए रखने के लिए तत्काल सस्टेनेबिलिटी पर ध्यान देने की जरूरत है। देर करने वाली कंपनियों के लिए लागत बढ़ जाएगी। सेहतमंद खाद्य पदार्थ बनाने वाली नई कंपनियां पुरानी कंपनियों के बिजनेस पर कब्जा करेंगी।

इस बात का समर्थन करते हुए स्टार्टअप्स को कानूनी सलाह देने वाली फर्म लीगलविज.इन के संस्थापक श्रृजय शेठ कहते हैं, “नए जमाने के उद्यमी पर्यावरण के प्रति ज्यादा जागरूक दिखते हैं। अनेक डायरेक्ट-टू-कंज्यूमर स्टार्टअप ने अपना बिजनेस मॉडल सस्टेनेबिलिटी के इर्द-गिर्द ही खड़ा किया है। रिसाइकल की गई वस्तुएं, सामाजिक समावेश, पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाने वाले प्रोडक्ट और ग्रीन ऊर्जा की खपत- ये सब बातें इन स्टार्टअप को पारंपरिक कॉरपोरेट से अलग करती हैं।”

सस्टेनेबिलिटी के लिए समाधान

सटीक समाधान किसी के पास नहीं, लेकिन इस दिशा में काम करना जरूरी है। आईपीसीसी का आकलन है कि मौजूदा नीतियों, इंफ्रास्ट्रक्चर और टेक्नोलॉजी से 2050 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 40% से 70% तक कम हो सकेगा, लेकिन इसके लिए हमें अपनी जीवनशैली भी बदलनी पड़ेगी। आईपीसीसी 2023 सिंथेसिस रिपोर्ट में बताया गया है कि सस्टेनेबिलिटी की चुनौतियों का सामना करने के लिए टेक्नोलॉजी, पॉलिसी और व्यवहार में बदलाव, तीनों का समावेश जरूरी है।

डब्लूआरआई इंडिया की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर उल्का केलकर कई उपाय बताती हैं। वे कहती हैं, “ऊर्जा का बेहतर इस्तेमाल होना चाहिए, खास कर एसएमई सेक्टर में। पैसे की दिक्कत के कारण ये कंपनियां रिपेयर के काम जल्दी नहीं करती हैं, जिससे ऊर्जा की ज्यादा खपत होती है। ये सरकार की ग्रीन क्रेडिट स्कीम को भी अपना सकती हैं। दूसरा है मैटेरियल एफिसिएंसी, जिसमें एक फैक्टरी का आउटपुट दूसरे का इनपुट बन जाता है। जैसे स्टील और कंक्रीट की रीसाइक्लिंग की जा सकती है। इससे प्रक्रियागत उत्सर्जन कम होगा। केमिकल बनाने में जो उत्सर्जन होता है, उसमें भी सुधार किया जा सकता है।” इंडस्ट्री ने ग्रीन हाइड्रोजन का इस्तेमाल शुरू किया है, लेकिन इसका परिणाम आने में थोड़ा समय लगेगा।

उन्होंने बताया कि भारत में कई कंपनियों ने अपनी आंतरिक व्यवस्था में कार्बन प्राइसिंग को अपनाया है। टाटा स्टील ने भी ऐसा किया है। यूरोप ने स्टील आयात पर कार्बन टैक्स लगाया है। ऐसे में टाटा स्टील जैसी कंपनियों को लाभ होगा।

शारदा यूनिवर्सिटी में भौतिकी और पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ. प्रमोद कुमार सिंह कहते हैं, “स्टील, सीमेंट जैसे सेक्टर पर आनन-फानन में रोक लगाना असंभव है। परन्तु इनसे वातावरण के लिए हानिकारक जो गैसें निकलती हैं उनका ऊर्जा के क्षेत्र में इस्तेमाल कर हानिकारक प्रभाव को काफी हद तक रोक सकते हैं। इसके लिए हर उद्योग को विभिन्न वैज्ञानिक अनुसन्धान केंद्रों से मिल कर अलग-अलग परियोजनाओं में कार्य करना होगा। तब हमें उपभोक्ता के तौर पर भारी कीमत भी नहीं देनी होगी।”

आईपी यूनिवर्सिटी के एनवायरमेंट विभाग के प्रो. एन.सी. गुप्ता ऊर्जा के स्रोत पर फोकस करते हुए कहते हैं, कोयले का भंडार मुख्य रूप से भारत, चीन, अमेरिका और रूस के पास है। भारत के पास जो भंडार है उससे करीब 100 साल तक की जरूरत पूरी हो सकती है। ऐसी टेक्नोलॉजी विकसित की जानी चाहिए जिससे कोयले की ऊर्जा को ग्रीन किया जा सके। कार्बन कैप्चर, यूटिलाइजेशन एंड स्टोरेज (सीसीयूएस) ऐसी ही टेक्नोलॉजी है। इसमें कोयला जलाने के बाद निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों को कैप्चर किया जाता है। बाद में उसे मिथेनॉल में बदला जाता है। मिथेनॉल के इंडस्ट्री में कई प्रयोग हैं। इसके अलावा स्टील, सीमेंट जैसे उद्योगों को नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना होगा।

वे पनबिजली की ओर भी ध्यान देने की बात कहते हैं। “नीदरलैंड में 95% ऊर्जा पनबिजली से आती है, जिससे प्रदूषण नहीं होता। भारत में भी पनबिजली उत्पादन बढ़ाने की क्षमता है, हालांकि बीते कुछ सालों में इसमें कमी आई है। हमें पनबिजली का सस्टेनेबल तरीके से इस्तेमाल करना होगा।”

बेन के अनुसार, कंपनियों को तीन सवालों पर ध्यान देने की जरूरत है। पहला, हम दुनिया के लिए क्या अच्छा कर रहे हैं और एक कंपनी के रूप में हमारा उद्देश्य क्या है। दूसरा, कंपनी को आगे बढ़ाने के लिए मानवता को क्या कीमत चुकानी पड़ेगी। तीसरा, जलवायु परिवर्तन से कौन से जोखिम हमारे सामने आएंगे तथा हमें किस तरह के सामान की कमी होगी। कंपनियों को सस्टेनेबल इनोवेशन के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है। उचित रेगुलेटरी वातावरण के बिना ग्रीन टेक्नोलॉजी अफोर्डेबल नहीं होगी, इसलिए हर नई स्ट्रैटजी के साथ इस बात पर भी विचार करना जरूरी है कि सही रेगुलेटरी ढांचा कैसे बनाया जाए।

केलकर के अनुसार, राज्य सरकारों से जरूरत की 43% बिजली रिन्यूएबल स्रोतों से खरीदने को कहा गया। खेती के लिए अनेक राज्यों में बिजली मुफ्त है, रेजिडेंशियल इलाकों को भी बिजली कम दाम पर मिलती है। महंगी बिजली का बोझ मुख्य रूप से इंडस्ट्री पर ही पड़ता है। इससे उनकी लागत बढ़ जाती है और निवेश की रिकवरी में समय लगता है।

बेन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, इसके लिए नया माइंडसेट चाहिए। ज्यादातर कंपनियां सस्टेनेबिलिटी को बाधा के रूप में देखती हैं। जब तक वे इसे अवसर के रूप में नहीं देखेंगी तब तक वे लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएंगी। उपभोक्ता का व्यवहार भी महत्वपूर्ण है। श्रृजय शेठ कहते हैं, “यूजर को विकल्प मिले तो वे अधिक कीमत देने के लिए तैयार हैं। खास तरह की ऑफरिंग के लिए ऐसे कई केस स्टडी हैं। यह देखना रोचक होगा कि ये विकल्प आम लोगों तक किस तरह पहुंचते हैं। उबर और ओला जैसी बड़ी कंपनियों की मौजूदगी में इलेक्ट्रिक वाहन कैब ब्लूस्मार्ट की सफलता इसका बेहतरीन उदाहरण है।” गुप्ता भी कहते हैं, “सस्टेनेबल प्रोडक्ट की अगर सही तरीके से मार्केटिंग की जाए तो लोग अधिक कीमत भी देने को तैयार होंगे।”