Move to Jagran APP

अयोध्या विवाद: तारीख बदल गई, तवारीख नहीं

राम मंदिर और विवादित ढॉचे को ढहा दिये जाने की घटना को एक युग बीत गया है। वक्त ने उस समय धधके ज्वालामुखी के मुख पर राख डाल दी है। लेकिन यह ज्वालामुखी अभी शांत नहीं हुआ है।

By Gunateet OjhaEdited By: Published: Tue, 05 Dec 2017 10:35 PM (IST)Updated: Tue, 05 Dec 2017 10:35 PM (IST)
अयोध्या विवाद: तारीख बदल गई, तवारीख नहीं
अयोध्या विवाद: तारीख बदल गई, तवारीख नहीं

राम मंदिर और विवादित ढॉचे को ढहा दिये जाने की घटना को एक युग बीत गया है। वक्त ने उस समय धधके ज्वालामुखी के मुख पर राख डाल दी है। लेकिन यह ज्वालामुखी अभी शांत नहीं हुआ है। तारीख बदल गई है, तवारीख नहीं। साथ ही क्षेत्रीय दलों की जातिवादी और अल्पसख्यकों के प्रति तुष्टीकरण की सोच नहीं बदली है। मसलन, मुलायम सिंह यादव उस वक्त की घटना पर आज भी सीना ठोंक कर गोली चलवाने के लिए गर्व महसूस कर रहे हैं। लालू यादव का भी वही हाल है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते वहां के राजकीय त्यौहार दुर्गापूजा की महत्ता को भी कम कर दिया है। जबकि वक्त के थपेड़े खाकर हासिये पर पहुंच गई देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को अब खुद को हिंदू साबित करना पड़ रहा है।

loksabha election banner

ढांचा ढहाने की घटना के बाद भाजपा ने उस समय रक्षात्मक रुख अख्तियार किया था, जबकि कांग्रेस आक्त्रामक हो गई थी। तब से अब तक राम भले ही कानूनी अखाड़ों मे फंसे हों, लेकिन राजनीति और समाज में उतार चढ़ाव के साथ बहुत बड़ा बदलाव दृढ़ता के साथ खड़ा हो गया है। एक पूरी नई पीढ़ी सामने खड़ी होकर हमारे राजनीतिक नेताओं और न्यायपालिका से प्रश्न पूछ रही है कि इसका हल अब तक क्यों नहीं निकला? वह युवा पीढ़ी जो आज इतिहास और श्रद्धा पर सवाल उठाने से नहीं हिचकती है। वह पीढ़ी जो अधिकार को बखूबी समझती है और मुखर होकर बदलाव के लिए दबाव बनाना भी जानती है।

छह दिसंबर 1992 का दिन भुलाये नहीं भूलता है। वातावरण में जैसे करंट हो। जैसे आंधी आई और सब कुछ बहाकर ले गई। वही वक्त था जब परिपक्वता सबसे जरूरी थी और वही वक्त था जब नेतृत्व को राजनीति से परे उठकर सोचना चाहिए था। पर अफसोस कि कई दिग्गज तुष्टीकरण की राजनीति से नहीं उबर पाए। खासतौर पर क्षेत्रीय दल। मुलायम सिंह समेत कई नेताओं ने इसकी तुलना आतंक और आतंकियों तक से कर दी। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इस पूरे मुद्दे से अपना दामन बचाने की कोशिश में जुटी रही। उसके बाद इतिहास में क्या कुछ हुआ यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है। राजनीति में किस तरह उथल पुथल आया यह बताने की भी जरूरत नहीं है। वोट बैंक की राजनीति और तुष्ट्रीकरण की अपनी नीति के कारण कांग्रेस ऐसे मोड़ पर खड़ी हो गई, जहां उसके शीर्ष नेतृत्व को अब यह साबित करना पड़ रहा है कि उनके दिल में राम और शिव बसते हैं। गुजरात चुनाव में कांग्रेस यही साबित करने की पूरजोर कोशिश कर रही है। शायद कांग्रेस यह भूल गई कि दस साल के अपने शासनकाल में उसने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर राम के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिया था। अब वह जनेऊ दिखाकर और तिलकलगाकर खुद राम और शिव का भक्त बताते फिर रही है।

पर भूल तब होगी जब हम यह मान बैठेंगे कि वक्त के साथ ज्वार खत्म हो गया और अब राम को ठंडे बस्ते में डालकर आगे बढ़ा जा सकता है। यह गलत होगा। समय की मांग है कि इस मुद्दे का निपटारा हो, जिसके लिए कोर्ट भी आगे आया है।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हो चुकी है। शिया समुदाय की ओर से यह प्रस्ताव भी आया है कि हाईकोर्ट के फैसले के अनुसार उनके हिस्से में आई जमीन वह मंदिर निर्माण के लिए देना चाहते हैं। बदले में दूसरी जमीन उन्हें उपलब्ध कराई जाए। यह सकारात्मक रुख है। जरूरत है ऐसी कोशिशों को नैतिक समर्थन देने की। पर कुछ राजनीतिक दलों की चुप्पी साफ संकेत है कि वे निपटारा नहीं चाहते हैं। उन्हें डर है कि उनकी दुकानें बंद हो सकती हैं। कुछ राजनीतिक दलों की यह सोच समस्या के समाधान की जगह उसे और उलझा सकती है। इस मुद्दे पर हो रही सारी राजनीति को दरकिनार करते हुए सुप्रीम कोर्ट को कानून सम्मत फैसला करना ही चाहिए, ताकि सात दशक से जारी विवाद का अंत हो सके।

(त्वरित टिप्पणी- प्रशांत मिश्र) 

यह भी पढ़ेंः राम मंदिर निर्माण अपना रुख साफ करें राहुल गांधी: अमित शाह

यह भी पढ़ेंः सुप्रीम कोर्ट में नहीं चली अयोध्या पर राजनीति, 8 फरवरी को होगी अगली सुनवाई


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.