एस.के. सिंह, नई दिल्ली। बढ़ती मानव आबादी, उनके भोजन की व्यवस्था के लिए ज्यादा इलाकों में खेती, आवास के लिए बढ़ता शहरीकरण, इन सबके लिए जंगलों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक इस्तेमाल - हमारे इन कदमों ने प्रकृति को अस्थिर कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार डायनासोर के लुप्त होने के बाद पृथ्वी पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं को खोने के सबसे बड़े खतरे से जूझ रही है और इसके जिम्मेदार हम हैं। खनन, प्रदूषण, खेती, निर्माण आदि के चलते लगभग 10 लाख प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है।

इसी पृष्ठभूमि में आज से कनाडा के मॉन्ट्रियल में बायोडाइवर्सिटी पर दुनिया के 195 देशों का 15वां सम्मेलन (COP 15) शुरू हो रहा है। COP 15 वर्ष 2020 में चीन के कुनमिंग में होना था, लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण सम्मेलन का एक हिस्सा ही हो सका। बाकी सम्मेलन कनाडा में हो रहा है, हालांकि इसकी अध्यक्षता चीन के पास ही है। 1992 में ब्राजील के रियो डि जनेरो में आयोजित अर्थ समिट में जलवायु परिवर्तन के साथ बायोडाइवर्सिटी यानी जैव विविधता पर भी कन्वेंशन को मंजूरी दी गई थी। दो हफ्ते पहले मिस्र के शर्म-अल-शेख में जलवायु परिवर्तन पर कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP 27) संपन्न हुआ था। बायोडाइवर्सिटी सम्मेलन 19 दिसंबर को खत्म होने की उम्मीद है। हालांकि COP 27 तय समय से दो दिन ज्यादा चला था।

अब तक कोई लक्ष्य पूरा नहीं

बायोडाइवर्सिटी की रक्षा के लिए दुनियाभर की सरकारें हर 10 साल में नए लक्ष्य तय करती हैं। जापान के नागोया में 2010 में आयोजित COP 10 में 2020 तक प्राकृतिक आवास का नुकसान आधा करने और प्राकृतिक रिजर्व का विस्तार बढ़ाकर विश्व के कुल भूक्षेत्र का 17% करने का लक्ष्य निर्धारित किया था। लक्ष्य और भी थे, लेकिन कोई भी पूरा न हो सका। COP 15 में भी 20 से ज्यादा लक्ष्य तय किए जाने की उम्मीद है।

द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (TERI) में लैंड रिसोर्सेज के सीनियर डायरेक्टर डॉ. जीतेंद्र वीर शर्मा जागरण प्राइम से कहते हैं, “जैसी उम्मीद पुरानी COP से रही, वैसी ही इससे भी रहेगी। होता यह है कि विकासशील देशों में जैव विविधता और प्राकृतिक संसाधन बचाने को अहमियत नहीं दी जाती। COP से इतना जरूर होता है कि लोग समस्या से वाकिफ हो जाते हैं।”

ग्लोबल टार्गेट के तहत हर देश ने उत्सर्जन कम करने का अपना लक्ष्य तय किया है, जिसे नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन (NDC) कहा जाता है। भारत ने अगस्त में यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCC) को संशोधित लक्ष्य दिया। इसके मुताबिक अतिरिक्त वन और पेड़ लगाकर 2030 तक 2.5 से तीन अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड का 'कार्बन सिंक' तैयार करना है। लेकिन शर्मा कहते हैं, “भारत में वन समवर्ती सूची में हैं। पॉलिसी केंद्र सरकार बनाएगी और उस पर अमल करना राज्यों का काम है। आज तक किसी राज्य को उसका लक्ष्य नहीं मालूम। राज्य अपनी मर्जी से जितना कर रहे हैं, वही हो रहा है।”

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (CSE) से जुड़ीं बायोडाइवर्सिटी रिसर्चर विभा वार्ष्णेय कहती हैं, “पुराने COP देखें तो कोई उम्मीद नहीं नजर आती, लेकिन हर नई बात नया अवसर लेकर आती है। अगर विचारधारा बदले और कम्युनिटी की मदद करने तथा जैव विविधता के संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाए जाएं तो काम हो सकता है।”

45% प्राकृतिक ईकोसिस्टम नष्ट

जैव विविधता के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि हमारा खाना, पीना और सांस लेना सब इस पर निर्भर करता है। बिना पेड़-पौधों के हमें ऑक्सीजन नहीं मिलेगी और मधुमक्खियां न हुईं तो फूलों का परागमन (pollination) नहीं होगा। मानव जीवन के लिए ईकोसिस्टम में पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के साथ सूक्ष्म जीवों

का भी होना जरूरी है।

मानवीय गतिविधियों से बायोडाइवर्सिटी को कितना नुकसान हुआ है, इस पर अलग-अलग रिपोर्ट हैं। जैव विविधता एवं ईकोसिस्टम सर्विसेज पर अंतर-सरकारी विज्ञान एवं पॉलिसी प्लेटफॉर्म (IPBES) के अनुसार हमारा प्राकृतिक ईकोसिस्टम 45% नष्ट हो चुका है। पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं की सभी प्रजातियों की बात करें तो 25% के सामने नष्ट होने का खतरा है।

इसी साल तीन हजार से ज्यादा विशेषज्ञों से बातचीत के आधार पर प्रकाशित फ्रंटियर्स इन ईकोलॉजी एंड एनवायरमेंट स्टडी रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 1500 से अब तक 30% प्रजातियां या तो खत्म हो गई हैं या उसके कगार पर हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार जीव-जंतुओं की 500 से अधिक प्रजातियां अगले 20 वर्षों में नष्ट हो जाएंगी। वैज्ञानिक मानते हैं कि सरीसृप वर्ग में हर पांच में से एक, पक्षियों की प्रजातियों में हर 8 में एक और पेड़-पौधों में 40% के सामने अस्तित्व का खतरा है।

वर्ल्ड वाइडलाइफ फंड (WWF) और जूलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन (ZSL) की अक्टूबर की ‘लिविंग प्लैनेट’ रिपोर्ट के अनुसार बीते 50 वर्षों में पृथ्वी पर वाइल्डलाइफ 69% कम हो गया। चार साल साल पहले यह औसत 60% था। अर्थात साल दर साल नष्ट होने की प्रक्रिया तेज हो रही है। इसलिए प्रकृति वैज्ञानिकों का मानना है कि धरती, डायनोसोर के नष्ट होने के बाद सबसे बड़े खतरे का सामना कर रही है।

इसी रिपोर्ट के अनुसार बीते 50 वर्षों में लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों में वाइल्डलाइफ आबादी 94%, अफ्रीका में 66%, एशिया प्रशांत में 55%, उत्तर अमेरिका में 20% और यूरोप में 18% कम हुई है। हालांकि यूरोप में भी कुछ देशों में स्थिति खराब है। जैसे इंग्लैंड में जैव विविधता 50% नष्ट हो चुकी है। इन आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि विकसित देशों ने अपने यहां तो प्रकृति का संरक्षण काफी हद तक किया है, लेकिन अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया में आर्थिक संसाधनों का दोहन अधिक हुआ है। प्रति व्यक्ति संसाधन इस्तेमाल में विकसित देश, विकासशील देशों से बहुत आगे हैं। इसलिए जैव विविधता किनके कारण नष्ट हुई यह सहज ही समझा जा सकता है।

प्रमुख कारण लैंड यूज में बदलाव

जैव विविधता कितनी नष्ट हुई इस पर भले अलग-अलग रिपोर्ट हों, इसकी वजह सबमें एक है। लैंड यूज में बदलाव जैव विविधता नष्ट होने का सबसे बड़ा कारण माना गया है। आबादी बढ़ने के साथ आवासीय इलाके बढ़ रहे हैं। भोजन का इंतजाम करने के लिए खेती का क्षेत्रफल बढ़ रहा है। इन सबके लिए जमीन उपलब्ध कराने के मकसद से जंगलों की कटाई हो रही है। नेचर सस्टेनेबिलिटी की एक स्टडी के अनुसार खेती के लिए जमीन का दायरा बढ़ने के कारण 2050 तक 17 हजार प्रजातियों का प्राकृतिक आवास नष्ट हो जाएगा। यही नहीं, नदियों पर बांध बनने से उनमें रहने वाले जीवों का का जीवन खतरे में है। दुनिया में 1000 किलोमीटर से अधिक लंबी सिर्फ 37% नदियों पर कोई बांध नहीं है।

जैव विविधता को प्राकृतिक रूप से भी नुकसान होता है। लेकिन उसकी तुलना में अभी 100 से 1000 गुना तक ज्यादा तेजी से नुकसान हो रहा है। IPBES ने 2019 में एक रिपोर्ट में औद्योगिक खेती को जैव विविधता नष्ट होने का सबसे बड़ा कारण बताया। वायु और ध्वनि प्रदूषण भी जीव-जंतुओं के लिए खतरा बन रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक ध्वनि प्रदूषण ने 50 से अधिक समुद्री जीवों को प्रभावित किया है।

खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के अनुसार हम जो खाना खाते हैं उसका 95% मिट्टी से उपजता है। मिट्टी में पोषक तत्वों को स्टोर करने और उनकी रीसाइक्लिंग की क्षमता होती है। लेकिन चिंता की बात है कि दुनिया में एक तिहाई मिट्टी खराब हो चुकी है। यानी उस जमीन पर उपजाए गए अनाज, फल-सब्जियां आदि में उतने विटामिन या अन्य पोषक तत्व नहीं होंगे जितने 70 साल पहले थे। मिट्टी के क्षरण से उनमें रहने वाले जीव भी खतरे में हैं।

जलवायु परिवर्तन से नुकसान

जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन में सीधा संबंध है। यूएन के अनुसार सदी के अंत तक जैव विविधता को सबसे अधिक नुकसान जलवायु परिवर्तन से ही होगा, और जलवायु परिवर्तन का असर कम करने के लिए ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना जरूरी है। 2015 में पेरिस जलवायु समझौते में यही तय किया गया था। प्रकृति का क्षरण रोकने के लिए COP15 को भी पेरिस समझौते के समकक्ष माना जा रहा है। इस साल नया ग्लोबल बायोडाइवर्सिटी फ्रेमवर्क (GBF) तय किया जाना है। हालांकि एक बड़ा अंतर यह है कि जलवायु परिवर्तन के असर को तो दीर्घकाल में बदला जा सकता है लेकिन अगर कोई प्रजाति धरती से पूरी तरह विलुप्त हो जाए तो उसे दोबारा नहीं लाया जा सकता। फूड चेन की एक कड़ी भी टूटी तो पूरी चेन नष्ट हो सकती है।

इन तथ्यों के आधार पर देखा जाए तो COP 15 का महत्व काफी बढ़ जाता है। जापान के आइची में 2010 में आयोजित COP 10 में जो 20 लक्ष्य तय किए गए थे, उनमें एक भी हासिल नहीं हो सका है। बावजूद इसके कि भोजन, ऊर्जा, दवा तथा अन्य रूपों में समूचा विश्व रोजाना प्रकृति का लाभ ले रहा है। UNEP के अनुसार COP 15 इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि जैव विविधता का संकट इतना पहले कभी नहीं था।

COP 15 में क्या हो सकता है

प्रकृति के संरक्षण के लिए हम अपने खान-पान और रोजमर्रा के कार्यों में किस तरह बदलाव करें, COP 15 में यह तय होने की उम्मीद है। इस दिशा में 2011 से 2020 तक हुए कार्यों के आधार पर जुलाई 2021 में पहला ड्राफ्ट जारी किया गया था। उसमें देश, क्षेत्र और विश्व स्तर पर उठाए जाने वाले कदमों के बारे में बताया गया था। ड्राफ्ट में प्रमुख बात 2030 तक 30% जमीन और समुद्र बचाने की है। इसे 30 बाय 30 नाम दिया गया है। ड्राफ्ट में 20 और बिंदु हैं। इनमें पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली सालाना 500 अरब डॉलर की सब्सिडी खत्म करना, कंपनियों के लिए यह बताना अनिवार्य करना कि प्रकृति के संरक्षण के लिए उन्होंने क्या किया, शामिल हैं। अनेक इलाकों में जैव विविधता को 80% नुकसान खेती और शहरीकरण से हो रहा है, इसलिए इसका समाधान निकालना जरूरी है। प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण को पूरी तरह बंद करने पर भी चर्चा हो सकती है। अन्य प्रस्तावों में जैव विविधता नष्ट होने की गति अभी की तुलना में 90% कम करना है।

लेकिन जैसा COP 27 में दिखा, जैव विविधता वार्ता में भी विकसित और विकासशील देशों के बीच काफी मतभेद हैं। मतभेद के चार प्रमुख बिंदु हैं- पैसा उपलब्ध कराना, 30 बाय 30 का लक्ष्य, लक्ष्यों की मॉनिटरिंग और बायोपायरेसी से जुड़ी सूचनाओं का आदान-प्रदान।

विकासशील देशों के सामने फंडिंग की समस्या

जैव विविधता को सबसे अधिक नुकसान विकासशील देशों में ही हुआ है। इसे बचाने के लिए उनके सामने सबसे बड़ी बाधा पैसे की है। वे विकसित देशों से आर्थिक संसाधनों की मांग कर रहे हैं। CSE की विभा के अनुसार जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकसित देश जो फंड दे रहे हैं, वे चाहते हैं कि विकासशील देश उसी में से बायोडाइवर्सिटी पर भी खर्च करें, जबकि विकासशील देश अलग फंड चाहते हैं। अभी तक सिर्फ जर्मनी ने क्लाइमेट फाइनेंस में जैव विविधता के लिए अलग से राशि देने की बात कही है। विभा कहती हैं, “अगर आप बायोडाइवर्सिटी को बचाएंगे तो जलवायु परिवर्तन अपने आप कम होगा, इसके बावजूद इसके लिए पर्याप्त फंड नहीं दिया जाता है।”

TERI के डॉ. जीतेंद्र वीर शर्मा कहते हैं, विकासशील देशों के सामने तीन समस्याएं आती हैं- पैसे की कमी, अपर्याप्त क्षमता और टेक्नोलॉजी का अभाव। विकसित देश ये चीजें देना नहीं चाहते। जर्मनी, नॉर्वे, अमेरिका जैसे देशों से द्विपक्षीय आधार पर जरूर कुछ पैसा आता है, लेकिन उसमें से लगभग 50% पैसा उन्हीं देशों को वापस चला जाता है। ये देश अपने संस्थानों के माध्यम से ही प्रोजेक्ट चलाते हैं। उन संस्थानों में उन देशों के अधिकारियों को ऊंची तनख्वाह पर नियुक्त किया जाता है।

भारत में संरक्षण में प्रगति

सीमित संसाधनों के बावजूद भारत ने संरक्षण की दिशा में कई महत्वपूर्ण काम किए हैं। शर्मा कहते हैं, हमने बाघ (Tiger) को बचाया। अब तो भारत में इनकी संख्या बहुत अधिक हो गई है। वे जंगल से निकल कर खेतों में, आवासीय इलाकों में जा रहे हैं। तेंदुआ (Leopard) की संख्या भी अच्छी खासी बढ़ी है। गैंडा (Rhino) पहले सिर्फ असम में पाए जाते थे, जबकि अब उत्तर प्रदेश में भी 48 गैंडे हैं। पन्ना और सरिस्का टाइगर रिजर्व में बाघ खत्म हो गए थे, वहां नए सिरे से बसाया गया है। अब हम चीता लेकर आए हैं। हालांकि इस प्रोजेक्ट की सफलता-विफलता का अंदाजा पांच साल बाद ही होगा।

शर्मा के अनुसार पौधों की प्रजातियों को बचाने की दिशा में भी काफी काम हुए हैं। सतपुड़ा टाइगर रिजर्व बाघ से ज्यादा पेड़-पौधों के लिए महत्वपूर्ण है। संरक्षण के मामले में भारत की नीति और नियामक व्यवस्था बहुत मजबूत है। नेशनल बायोडाइवर्सिटी अथॉरिटी (NBA) के अनुसार भारत उन चुनिंदा देशों में है जिसने जैव विविधता संरक्षण के कानून बनाए हैं। यहां 2004 में बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी रूल्स लागू किए गए थे।

आगे क्या करने की जरूरत

हालांकि भारत में भी अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। विभा कहती हैं, हमने कई बार देखा कि शोर ज्यादा होता है, काम कम। कई बार तो घोषणा के विपरीत जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं दिखता है। अगर कोई रिसर्चर या कंपनी बायोडाइवर्सिटी के लिए काम करती है तो नेशनल बायोडाइवर्सिटी अथॉरिटी उसे इंटरनेशनली रिकॉग्नाइज्ड सर्टिफिकेट ऑफ कंप्लायंस (IRCC) देती है। दुनिया में यह सर्टिफिकेट सबसे ज्यादा भारत ने ही दिए हैं, लगभग 75 प्रतिशत। लेकिन इससे किसी कम्युनिटी को फायदा होता नहीं दिखता। डेवलपमेंट के नाम पर किसी प्रोजेक्ट का जैव विविधता पर क्या असर होगा, इसका आकलन पहले नहीं किया जाता है।

हालांकि बिजनेस के लिए भी प्रकृति जरूरी है। बहुराष्ट्रीय बीमा कंपनी स्विस आरई (Swiss Re) का आकलन है कि ग्लोबल जीडीपी का आधा, यानी लगभग 42 लाख करोड़ डॉलर की इकोनॉमी प्रकृति के स्वस्थ तरीके से काम करने पर निर्भर है। इसलिए विभा कहती हैं, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर सदियों से कम्युनिटी ने प्रकृति का संरक्षण न किया होता तो आज वह इंडस्ट्री को भी नहीं मिलती।”

संरक्षण और सबकी बराबर की हिस्सेदारी वाला विकास ही टिकाऊ हो सकता है। लेकिन उस पर अमल नहीं होता है। ऐसा क्यों, यह पूछने पर विभा कहती हैं, “अगर किसी काम से कंपनियों का मुनाफा कम होता है तो वे उसे करने के लिए तैयार नहीं होती हैं। सरकारों को भी अगर जैव विविधता खत्म होने के बावजूद पैसा मिल रहा है तो वे तैयार हो जाती हैं। ऐसे में कन्वेंशन सिर्फ विचारों के स्तर पर रह जाता है।”