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इंदौरः 42 साल से बच्चों को शिक्षित बनाने में जुटे हैं सुमेर सिंह

डेली कॉलेज में 13 साल प्रिंसिपल के पद पर रहकर उन्होंने इसे भारत के टॉप 10 स्कूलों की श्रेणी में पहुंचाया।

By Nandlal SharmaEdited By: Published: Fri, 27 Jul 2018 06:00 AM (IST)Updated: Fri, 27 Jul 2018 11:38 AM (IST)

देश के सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में से एक दून स्कूल और इसके बाद सेंट स्टीफंस कॉलेज से पढ़ाई करने वाले अधिकांश स्टूडेंट्स का सपना या तो विदेश जाकर जॉब करना होता है या बिजनेस स्थापित करना, लेकिन डॉ. सुमेर सिंह ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने कक्षा 9वीं की पढ़ाई के दौरान ही शिक्षक बनने का निर्णय ले लिया था। कई बार उन्हें राजनीति में जाने और अच्छे पदों पर काम करने का मौका मिला, लेकिन वे अपने पथ से भटके बिना आज 67 साल की उम्र में भी शिक्षा का उजियारा फैला रहे हैं।

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डेली कॉलेज में 13 साल प्रिंसिपल के पद पर रहकर उन्होंने इसे भारत के टॉप 10 स्कूलों की श्रेणी में पहुंचाया। बच्चों को क्लास रूम से निकालकर उन्हें जीवन के मूल्य सिखाएं। ऐसे बच्चे जिनका समाज के निचले तबके से कोई वास्ता नहीं था, उन्हें ग्रामीणों के साथ घुलना-मिलना सिखाया।

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डॉ. सिंह का मानना है कि जीवन की सच्चाई जानने के लिए अपने से नीचे वालों की तकलीफें जानना जरूरी है। उनके लिए शिक्षा का मतलब कक्षा में पढ़कर टॉप करना नहीं, बल्कि स्वयं एडवेंचर और अनुभवों से सीखना है। प्राकृतिक खूबसूरती, जंगल, नदियां, हरियाली, जानवरों को देखने के साथ ही विभिन्न देशों की संस्कृति, खानपान को जानना है। उनका मानना है कि बच्चों में स्पोर्ट्स के साथ ही कम्युनिकेशन स्किल्स, पर्सनलिटी डेवलपमेंट और नैतिक मूल्यों का विकास ज्यादा जरूरी है।

डॉ. सिंह ने जिस समय संस्थान की बागडोर संभाली थी, उस समय बच्चों में आत्मविश्वास काफी कम था। फ्रेंच-जर्मन तो दूर, अंग्रेजी भी ठीक से नहीं बोल पाते थे। बच्चों को विज्ञान के अलावा दूसरा विषय पैरेंट्स लेने नहीं देते थे। उन्होंने उन्हें समझाया कि बच्चों पर अपनी इच्छाएं न थोपें। अगर उन्हें इंजीनियर, डॉक्टर और डिफेंस फील्ड में नहीं जाना है तो विज्ञान पढ़ाने का फायदा क्या है। उन्होंने बहुत कोशिशों के बाद लिबरल आर्ट्स या ह्यूमेनिटीज विषय शामिल किए, जिसमें पहले साल सिर्फ 3 बच्चे आए, दूसरे साल 6 और तीसरे साल से बड़ी संख्या में आने लगे।

उन्होंने इंटरनेशनल एक्सपोजर के लिए दूसरे देशों के बच्चों को यहां बुलाने और यहां के बच्चों को बाहर भेजने की शुरुआत की। न सिर्फ डेली कॉलेज, बल्कि एमरल्ड हाइट्स जैसे दूसरे स्कूलों को भी प्रोत्साहित किया। इसके लिए डेली कॉलेज में रिसोर्स सेंटर बनाया। आसपास के गांवों में डेली कॉलेज और कनाडा के बच्चों ने पर्यावरण संरक्षण, वॉटर कंसर्वेशन जैसे कामों में हिस्सा लिया। ब्लाइंड स्कूल में डोरमेट्री बनवाई।

दक्षिण भारत में आई सुनामी के दौरान डेली कॉलेज के विद्यार्थियों ने 5 महीने रहकर वहां क्षतिग्रस्त स्कूल की मरम्मत की। इस मुहिम में अन्य देशों के बच्चे भी जुड़े। डॉ. सिंह ने प्रदेश के स्कूलों में लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए 102 सरकारी स्कूलों में विभिन्न योजनाएं शुरू करवाने में अहम भूमिका निभाई। यहां के बच्चों ने महेश्वर के बच्चों को कम्प्यूटर सिखाया और उनसे वीविंग सीखी।

फ्रांस के स्कूलों के साथ जुड़कर गांवों में आंखों के इलाज के लिए शिविरों की शुरुआत की। इनमें हर साल 25000 चश्मे बांटे जाते हैं। साथ ही केटेरेक्ट के ऑपरेशन कराए जाते हैं। इस मुहिम में एक भारतीय छात्र फ्रांस के बच्चे के साथ मिलकर काम करता है।

15 सरकारी स्कूलों में टॉयलेट बनवाए
यह जानने के बाद कि टॉयलेट न होने से सरकारी स्कूलों में लड़कियां पढ़ने नहीं जाती हैं, डॉ. सिंह ने 15 सरकारी स्कूलों में टॉयलेट बनवाने का काम बच्चों से शुरू करवाया। इसके लिए उन्होंने शर्त रखी कि पैसा विद्यार्थी खुद इकट्ठा करेंगे, पैरेंट्स से नहीं लेंगे। बाद में इस मुहिम के लिए इंग्लैंड और स्विट्जरलैंड से मदद आने लगी।

उन्होंने स्कूल में 40 क्लब शुरू किए। साथ ही बच्चों को अधिकार दिए कि 5 स्टूडेंट मिलकर क्लब बना सकते हैं। बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए उन्होंने असेंबली में हर बच्चे को तीन मिनट किसी भी विषय पर बोलने की शुरुआत कराई। वहीं ऐसे बच्चे जो किसी कारणवश फीस नहीं भर पाते थे, इनकी फीस खुद भरते थे।

आसान नहीं थी राह
22 साल की उम्र में जब डॉ. सिंह के पैरेंट्स ने उन्हें टीचिंग फील्ड में जाने से मना किया तो उन्होंने घर छोड़ दिया। तीन साल तक नौकरी ढूंढ़ने के लिए संघर्ष किया। फिर हिमाचल प्रदेश के सनावर के सेंट लॉरेंस स्कूल में टीचर की नौकरी मिली। वहां उन्होंने शिक्षा को रुचिकर बनाने के लिए कई कदम उठाए। कुछ साल बाद इनके काम से प्रभावित होकर दून स्कूल बुलाया गया।

इसके बाद देश के स्कूलों को बेहतर बनाने के लिए विदेश के स्कूलों में संचालित शिक्षा प्रणाली जानने के लिए वहां के कई स्कूलों में पढ़ाया। वेल्स के यूडब्ल्यूसी स्कूल में पढ़ाया, वहां उन्होंने देखा कि 70 देशों के 200 बच्चे बिना फीस के स्कॉलरशिप पर पढ़ रहे हैं, लेकिन उनमें से एक भी भारत का नहीं था। वापस आने पर सबसे पहले सरकार से बात कर नेहरू स्पॉन्सरशिप शुरू करवाई।

आज भी वे बच्चों के स्वर्णिम भविष्य के लिए काम करने में जुटे हैं। उन्हें पंजाब में शिक्षामंत्री बनने का मौका भी मिला तो राजीव गांधी ने सलाहकार बनने का प्रस्ताव रखा, लेकिन उन्होंने नहीं स्वीकारा, क्योंकि उनका मानना है कि बच्चों के साथ जो सुकून उन्हें मिलता है, वो किसी दफ्तर में बैठने से नहीं मिलता।

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