अनिश्चित कालीन बंद, आर्थिक नाकेबंदी से आलू-भात, रोटी -अचार खाने पर है मजबूर

यहां एक बार फिर से साठ दशक की यादें ताजा हो गयी है। 1960 में भाषा के आधार पर देश में राज्यों का बंटवारा हुआ था।

By Preeti jhaEdited By: Publish:Fri, 07 Jul 2017 03:49 PM (IST) Updated:Fri, 07 Jul 2017 03:49 PM (IST)
अनिश्चित कालीन बंद, आर्थिक नाकेबंदी से आलू-भात, रोटी -अचार खाने पर है मजबूर
अनिश्चित कालीन बंद, आर्थिक नाकेबंदी से आलू-भात, रोटी -अचार खाने पर है मजबूर

सिलीगुड़ी, [अशोक झा] । अलग राज्य गोरखालैंड को लेकर चल रहे आंदोलन से जन जीवन अस्त व्यस्त है। आंदोलन के शुरुआती दौर से अबतक 300 राजनीतिक और 1200 आंदोलकारियों हत्याओं को गवाह बना है। सिलीगुड़ी शहीद नगर में इस आंदोलन के काली रात को हिल्स से पलायन कर आए लोग नहीं भुल पाते। सत्ता पक्ष हो या आंदोलनकारी सभी अपनी अपनी दलील दे रहे है। अनिश्चित कालीन बंद और आर्थिक नाकेबंदी से आंदोलनकारी आलू-भात और रोटी -अचार खाने पर मजबूर है।

आंदोलनकारियों का कहना है कि जिस प्रकार आपातकाल ने देश में नारा लगा था आधी रोटी खाएंगे कांग्रेस को हटाएंगे उसी प्रकार हिल्स का प्रत्येक परिवार आलू भात खाएंगे, अचार रोटी खाएंगे परंतु गोरखालैंड लाएंगे के नारे पर विश्र्वास करता है। ऐसी स्थिति का कारण है अचानक भाषा के आंदोलन पर शुरु हुआ आंदोलन लाठी चार्ज और ¨हसा के बाद अनिश्चित कालीन बंदी शुरु हो गयी। ऐसा लग रहा था कि बातचीत से मामला शांत हो जाएगा और कोई न कोई रास्ता निकलकर सामने आएगा। ज्यों ज्यों आंदोलन आगे बढ़ा गोरखालैंड के नाम पर सभी संगठन और पार्टियां एकजुट होती चली गयी। नौबत यहां तक पहुंच गयी कि अब आंदोलन कोई दल नहीं बल्कि गोरखालैंड को-ऑर्डिनेशन कमेटी के हाथ में चला गया है। सरकार ने आंदोलन का दबाने के लिए जब प्रशासनिक स्तर पर नाकाम रही तो इन दिनों अघोषित आर्थिक नाकेबंदी कर दी है। इसके कारण वहां सब्जियों और राशन की किल्लत होने लगी है। इन सब के बाद भी वहां उसके बाद भी उनके उत्साह में कोई कमी नहीं है। इस आंदोलन ने सन 1986 में लगातार 46 दिनों के लगातार बंद को झेल चुका है। आंदोलनकारियों को भोजन मिले इसके लिए गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की ओर से सांझा चौका तैयार किया गया है। इसमें हिल्स के मूली, गाजर और स्थानीय सब्जियों को तैयार किया जाता है। भात या रोटी के साथ इसे रैली व प्रदर्शन के बाद बांटा जाता है। ज्यादातर घरों में आंदोलनकारी आलू भात या फिर रोटी अचार खाकर अपने दिन काट रहे है। बच्चों को खुश करने के लिए मोमो या थुप्पा बनाकर दिया जाता है। यह उन्हें पड़ोसी राष्ट्र नेपाल से उपलब्ध सहज उपलब्ध होता है। सुबह से देर शाम तक आंदोलनकारी प्रदर्शन में व्यस्त रहते है। आंदोलन से जुड़ी नारी मोर्चा की सदस्या सविता राई का कहना है कि गोरखालैंड का आंदोलन ही बंद और भूख हड़ताल से प्रारंभ हुआ था। सरकार जितनी भी जोड़ लगा ले हम हिल्स के आंदोलनकारी झूकने वाले नहीं है। आंदोलन के नारों से हमें भूख नहीं सामने गोरखालैंड का सपना दिखाई देता है। खुकरी रैली में शामिल गोपाल सुब्बा का कहना है कि हमलोग पेट की भूख से परेशान नहीं है। परेशान है तो पुलिस की ज्यादतियों के कारण। सरकार के इशारे पर पुलिस प्रशासन दहशत का माहौल कायम कर रखा है। खुकरी जहां बचाव का रास्ता है वहीं इसके माध्यम से गोरखाओं को अपनी अस्मिता को याद दिलाता है। युवा आंदोलनकारी नवीन गुरुंग का कहना है कि हर नेपाली चरमपंथी का नाम दिया जा रहा है। ममता सरकार तो वामपंथी से तीन कदम आगे निकल गयी। दार्जिलिंग इंसेटिव के कार्यकर्ता अरिविंन सुब्बा का कहना है कि देश विदेश से मिल रहे सहायता राशि से हम युवाओं ने परिवार को राशन पानी मुहैया कराने का संकल्प लिया है। इसके तहत 78 परिवार को यह सुविधा मुहैया भी कराया है। शांति राई, गीता दहाल, मीना कुमारी, दीना छेत्री, सरिता मुखिया,प्रतिष्ठा प्रधान, रेखा लामा आदि का कहना है कि आंदोलन को दबाने के लिए जन स्वास्थ्य, जन व्यवस्था, जन सुरक्षा, नैतिकता, आर्थिक कल्याण जैसी सुविधाओं को प्राप्त करने का माध्यम भी बंद कर दिया गया है। इंटरनेट बंद होने से छात्रों और युवाओं का भविष्य अंधकार में है। निषेधाज्ञा के नाम पर एक जाति विशेष को कुचलने में लगे है। यह तो तय हो गया है कि आंदोलन अभी दूर तक चलेगा जबतक केंद्र इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता।

हमलोगों के साथ विदेशियों जैसा बर्ताव किया जाता है। हम किसी संप्रभुता संपन्न देश की मांग नहीं कर रहे है। हम भारत में रहते हुए अपने अधिकार की मांग कर रहे है। हमने भारत के लिए अपने कई पीढ़ी को देश की सीमा पर खोया है। गोरखालैंड आंदोलन तो शांत था। जीटीए के तहत जैसा भी हिल्स पटरी पर दौड़ रही थी। नगर पालिका चुनाव के बाद ही सरकार ने सरकारी स्कूलों में बंगाली भाषा पढ़ाने का फैसला लिया। इस फैसले के बाद आंदोलन की चिंगारी गोरखालैंड के आग के रुप में बदल गयी।

यहां एक बार फिर से साठ दशक की यादें ताजा हो गयी है। 1960 में भाषा के आधार पर देश में राज्यों का बंटवारा हुआ था। मराठी बोलने वालों के लिए महाराष्ट्र और गुजराती बोलने वाले को गुजरात बना। झारखंड, छत्तीसगढ़ तेलगांना जैसे राज्यों का गठन भी हुआ। गोरखाओं को चाहिए अपना प्रदेश गोरखालैंड जिससे उन्हें देश में विदेशी कहलाने से मुक्ति मिल सकें।

chat bot
आपका साथी