पहले जिंदा फिर मरी होली : समय-संस्कृति बदली पर आज भी कायम है परंपराओं की रस्म

समय बदला संस्कृति बदली लेकिन बुजुर्गों की बनाई परंपराओं की रस्म आज के दौर में भी कायम है। थारू समाज की अनूठी स्वरूप होली का क्रेज आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में छाया है।

By Skand ShuklaEdited By: Publish:Mon, 18 Mar 2019 02:10 PM (IST) Updated:Mon, 18 Mar 2019 05:54 PM (IST)
पहले जिंदा फिर मरी होली : समय-संस्कृति बदली पर आज भी कायम है परंपराओं की रस्म
पहले जिंदा फिर मरी होली : समय-संस्कृति बदली पर आज भी कायम है परंपराओं की रस्म

राजू मिताड़ी, खटीमा। समय बदला, संस्कृति बदली लेकिन बुजुर्गों की बनाई परंपराओं की रस्म आज के दौर में भी कायम है। थारू समाज की अनूठी स्वरूप होली का क्रेज आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में छाया है। यह उल्लास होली के बाद तक मस्ती घोले रहता है। थारू समाज में होलिका दहन से पहले जिंदा फिर आठ दिन तक मरी होली खेली जाती है। थारू समाज के पुरुषों और महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले गीत बरबस ही लोगों को आकर्षित करते हैं। ढोल और झांझ की थाप पर महिलाएं और पुरुष बारी-बारी से गीत गाकर नृत्य करते हैं। थारू समाज के पुराने लोगों ने परंपराओं अब भी सजाए रखा हुआ है। जिसकी झलक यहां थरुवाट के गांव में देखी जा सकती है। थारू समाज आज भी होली का पर्व दो तरह से मनाता है। होलिका दहन से पहले ङ्क्षजदा होली मनाते हैं। दहन के बाद मरी होली भी आठ दिनों तक मनाई जाती है। इन दौरान मायके से विदा होकर बहू भी अपनी ससुराल आ जाती हैं। होली की शुरूआत उत्तर दिशा के घरों से करते और दक्षिणी दिशा में समापन किया जाता है। जिस घर में होली खेली जाती है, वह परिवार मिठाई के रूप में होल्यारों को गुड़ बांटने की परंपरा निभाते हैं।

इस तरह मनाते हैं जिंदा होली

होली थारू समाज का प्रमुख पर्व माना जाता है। जो पूरे फागुन चलता है। फागुन लगते ही गांवों में ङ्क्षजदा होली की धूम मच जाती है। प्रमुख रूप से खिचडिय़ा होली, ठडुवा-चलवा और झीं-झीं होली के रूप में मनायी जाती है। ज्यादा आकर्षण झीं-झीं होली होती है। महिलाएं मटका सिर पर रखकर नृत्य करती हैं। खिचडिय़ा होली में महिला,पुरूष बच्चे और वृद्घ सभी एक साथ मिलकर अबीर-गुलाल उड़ाते है।

थारू समाज में आज भी जिंदा है मरी होली

मान्यता है जिन गांव में आपदा व बीमारियों से मौत हो जाती थी उस गांव के लोग होली का त्योहार जलने के बाद मनाना शुरू करते हैं। दशकों पूर्व शुरू हुई इस परंपरा को अज भी थारू समाज के लोग मानते हैं।

इन गांव में होती जिंदा-मरी होली

क्षेत्र के गांव भूड, सुजिया महोलिया, उमरुखुर्द, नंदन्ना, गोसीकुआ भुडिया, कुटरी, बिगराबाग, गोहरपटिया, कुटरा, आलावृद्धि, छिनकी, श्रीपुर बिछवा, बनकटिया, उइन, बिरिया मझोला, दियां, चांदपुर, देवरी, सबोरा, रतनपुर, फुलैया, सड़ासडिय़ा, झनकट आदि गांव में जिंदा होली खेली जाती है। जबकि जादोपुर, बानूसी, चांदा, सैजना, चंदेली, गुरुखुडा, कुमराह, तिगरी, उल्धन आदि गांव में मरी होली खेली जाती है।

वक्त के साथ बदली परंपरा

कन्हैया गोपी के संग होली होली खेलों रै, तुजे आज भीगो डालूं गो, यह तोरों में सखी का हो होरी है री.......श्याम मोहे रंगजिन डालो मैं हूं दीनन की रेे छोटी....राम श्याम के स्वर अब मंद पडऩे लगे हैं। त्योहार मनाने की संस्कृति अब बदली-बदली है। पहले पूरे पारंपरिक परिधान घाघरा और चोली की जगह पुरुष कुर्ता पायजामा और महिलाओं में साड़ी ने स्थान ले लिया है। पूर्व विधायक गोपाल सिंह राणा बताते हैं कि समय के साथ ही होली मनाने का तरीका भी बदल गया है। पहले गांव के सभी लोग एक साथ मिलकर रंगबाजी करते थे। एक ही जगह पर खाना-पीना भी होता था। लेकिन अब ऐसा नहीं होता। खिचडिय़ा होली भी बहुत कम देखने को मिलती है। उन्होंने बताया कि होली थारू समाज का प्रमुख पर्व है। मरी होली होलिका दहन के बाद खेली जाती है।

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