बजरंगी भाई जान के सिंगर ने क्‍या कहा कव्‍वाली के बारे में, सुनिए

अमीर खुसरो और हजरत निजामुद्दीन की दरगाह से ताल्लुक रखने वाले और बजरंगी भाईजान फिल्‍म में कव्‍वली गाने वाले दिल्ली के सुप्रसिद्ध कव्वाल चांद निजामी ने जागरण से की विशेष बातचीत।

By Skand ShuklaEdited By: Publish:Thu, 25 Oct 2018 12:51 PM (IST) Updated:Thu, 25 Oct 2018 12:51 PM (IST)
बजरंगी भाई जान के सिंगर ने क्‍या कहा कव्‍वाली के बारे में, सुनिए
बजरंगी भाई जान के सिंगर ने क्‍या कहा कव्‍वाली के बारे में, सुनिए

बृजेश तिवारी, अल्मोड़ा : मोहब्बत के दीन को फैलाने वाला कलाम अपने बोल, अंदाज, गायकी और दिल को छू लेने की क्षमता की वजह से पीरों के मजारों या सूफियों की मजलिसों तक ही सिमटा नहीं रहा। बल्कि आज यह इंसानियत की आवाज बन चुकी है। कव्वाली चंद साजो के साथ मिलकर ऐसी ताकत पैदा करती है कि उसके सामने बंदूकों की बोली बोलने वाले भी कमजोर पड़ जाते हैं।

अमीर खुसरो और हजरत निजामुद्दीन की दरगाह से ताल्लुक रखने वाले और बजरंगी भाईजान फिल्‍म में कव्‍वली गाने वाले दिल्ली के सुप्रसिद्ध कव्वाल चांद निजामी ने जागरण से विशेष बातचीत के दौरान यह बातें कहीं। उन्होंने कहा कि कव्वाली संगीत की एक लोकप्रिय विधा है। जिसका इतिहास करीब सात सौ साल से पुराना है। आठवीं सदी में ईरान और अफगानिस्तान में दस्तक देने वाली संगीत की अनोखी विधा शुरुआती दौर से ही सूफी रंगत में डूबी जो तेरहवीं सदी में भारत पहुंची। उन्होंने बताया कि यह इस्लाम का सूफी स्वर ही था जिसने उपेक्षा की शिकार निचली जातियों को अपनी ओर आकर्षित किया। लेकिन उस दौर में कव्वाली इंसानियत की आवाज बन चुकी थी। निजामी ने बताया कि कव्वाली सैंकड़ों साल पुरानी परंपरा का नाम है। वो परंपरा जो ईरान और अफगानिस्तान होते हुए आहिस्ता आहिस्ता दुनिया के बड़े हिस्से में फैल गई है। उन्होंने बताया कि कव्वाली का आगाज मुस्लिम धर्म के सूफी पीर फकीरों ने किया। आठवीं सदी में ईरान और दूसरे मुस्लिम देशों में धार्मिक महफिलों का आयोजन किया जाता था, जिसे समां कहा जाता था। समां का आयोजन धार्मिक विद्वानों यानी शेख की देखरेख में किया जाता था। जिसका मकसद कव्वाली के जरिए ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करना होता था।

आध्यात्मिक समाधि ही कव्वाली का चरम

आध्यात्मिक समाधि ही कव्वाली की चरम है। जैसे जैसे कव्वाल शब्दों को दोहराते जाते हैं, शब्द बेमायने होते जाते हैं। सुनने वालों के लिए एक पुरसुकून अहसास बांकी रह जाता है। कव्वाली गाते समय कव्वाल को ध्यान में रखना पड़ता है कि अगर कोई गाने वाला या सुनने वाला आध्यात्मिक समाधि तक पहुंच जाए तो उसकी जिम्मेदारी बन जाती है कि वो बिना रूके उन शब्दों को तक तक दोहराता रहे जब तक वह व्यक्ति वापस पूर्व अवस्था में न आ जाए।

शब्दों का असली खेल है कव्वाली

प्रार्थना और भजन की तरह कव्वाली भी शब्दों का असली खेल है। कव्वाली दर्शकों को लुभाने का खेल नहीं बल्कि सूफी संतों को न्यौता देने की परंपरा का हिस्सा भी है। मंच पर बैठे कव्वालों में वरिष्ठता का भी ख्याल रखा जाता है। सबसे वरिष्ठ सबसे दाएं और फिर घटता हुआ क्रम। मुख्य कव्वाल आलाप के साथ कव्वाली का पहला छंद गाते हैं। जो या तो अल्लाह की शान में होता है या फिर सूफी रहस्य के लिए। अमीर खुसरो, बुल्ले शाह, बाबा फरीद, हजरत सुल्तान, वारिश शाह जैसे नाम सुनते ही सूफियाना रंगत में डूबे कलाम याद आ जाते हैं।

कई फिल्मों में गा चुके हैं कव्वाली

फिल्म बजरंगी भाई जान में अपनी कव्वाली प्रस्तुत कर चुके निजामी बंधु भविष्य में कई अन्य फिल्मों में भी अपने हुनर का जलवा बिखेरेंगे। चांद निजामी ने बताया कि देश विदेशों में वह 250 से अधिक शो आयोजित कर चुके हैं और भविष्य में अनेक अन्य फिल्मों में भी उनकी कव्वाली लोगों को देखने और सुनने का मिलेगी।

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