सत्ता के गलियारे से: डॉप्लर राडार और फिर कनफ्यूज हुआ राजकुमार

डॉप्लर राडार और फिर कनफ्यूज हुआ रामकुमार रामकुमार याद है नाम। अरे वही पिछले हफ्ते ही तो आपसे मिलवाया था बेरोजगारी को लेकर पिताजी ने जिसे फटकारा था। दो दिन पहले फिर टकरा गया। देखते ही सवाल दाग दिया भाईजी ये मुक्तेश्वर में सरकार ने कोई राडार लगाया है।

By Raksha PanthriEdited By: Publish:Mon, 18 Jan 2021 01:02 PM (IST) Updated:Mon, 18 Jan 2021 01:02 PM (IST)
सत्ता के गलियारे से: डॉप्लर राडार और फिर कनफ्यूज हुआ राजकुमार
सत्ता के गलियारे से: डॉप्लर रडार और फिर कन्फ्यूज हुआ राजकुमार।

विकास धूलिया, देहरादून रामकुमार, याद है नाम। अरे वही, पिछले हफ्ते ही तो आपसे मिलवाया था, बेरोजगारी को लेकर पिताजी ने जिसे फटकारा था। दो दिन पहले फिर टकरा गया। देखते ही सवाल दाग दिया, भाईजी ये मुक्तेश्वर में सरकार ने कोई राडार लगाया है, जो बरसात में बताएगा कि कहां और कब बादल फट रहा है, कौन सी सड़क लैंड स्लाइड की चपेट में आने वाली है और कब बर्फ गिरेगी। फिर अगला सवाल, भाईजी, राडार क्या यह भी बताएगा कि सड़क धंस गई तो किसने कमीशन खाया, बाढ़ आई तो कौन नदी कब्जाया, चुनाव से पहले वादे कर अब तक भी नेताजी क्यों नहीं लौटे। उसे भला क्या जवाब देते, जब खुद इसका जवाब हमारे पास भी नहीं। ढाढस बंधाते हुए बोले, रामकुमार, देखो कोरोना की वैक्सीन आ गई, तो भ्रष्टाचार का टीका भी अब आया ही समझो। रामकुमार ने ऐसी नजरों से घूरा, मानों कह रहा हो, भाईजी आप भी...।

पलटवार वीरों, नए शब्द भी तो तलाशो

सियासत में आरोप-प्रत्यारोप से निबटने के लिए वार-पलटवार की परंपरा चलती आ रही है। विपक्ष किसी मुददे पर आरोप उछालता है तो जवाब में सत्तापक्ष पलटवार की मुद्रा अख्तियार करता है। लगता है सत्तारूढ़ भाजपा के सुबाई संगठन के एक साल पुराने मुखिया बंशीधर भगत को अब जाकर यह आइडिया सूझा। संगठन का जिम्मा संभालने के बाद भगत ने टीम भी नई बनाई, मगर इनका मीडिया का जिम्मा संभालने वाले बस इसी एक पलटवार शब्द पर अटक गए। विपक्ष कांग्रेस कुछ भी कहे, भाजपा में मीडिया को बयान देने वालों को पलटवार के अलावा कुछ नहीं सूझता। बड़े मामलों में तो चलो ठीक है, मगर यहां तो छोटे-छोटे मसलों पर भी भाजपा के बयानवीरों ने पलटवार को आत्मसात कर लिया है। ऐसे में अब विपक्ष कब भाजपा पर पलटवार वीर होने का आक्षेप जड़ दे, कुछ कहा नहीं जा सकता। बहरहाल, भाजपा को कुछ नए शब्द तो तलाशने ही होंगे।

एक अपने ही चेहरे पर प्यार आया

इस हफ्ते निर्विवाद केवल एक ही चेहरा सियासी गलियारों में चर्चा में रहा। मजेदार यह कि चर्चा की वजह भी बनी केवल चेहरा बनाने की डिमांड। कांग्रेस के दिग्गज हरीश रावत इन दिनों ऐसा हठ पाले बैठे हैं कि इसके आगे बालहठ, त्रियाहठ, सब फीके पड़ गए। पिछले छह-सात साल में हरीश रावत की सूबे की सियासत में एंट्री के बाद पार्टी इतने पड़ाव से गुजर चुकी है कि कांग्रेसियों को समझ नहीं आ रहा कि उनके लिए क्या भला है, क्या बुरा। खैर, इस दफा रावत ने पैंतरा चला कि आलाकमान अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी के मुख्यमंत्री के चेहरे का पहले ही एलान कर दे। अब कांग्रेस में तो यह कतई मुमकिन नहीं। देश की सबसे उम्रदराज पार्टी का असली चेहरा राहुल हैं, सोनिया हैं या कोई अन्य, जब यही किसी को नहीं पता, तो भला उत्तराखंड में पार्टी के चेहरे की किसे चिंता।

हाथी का पता नहीं, गठबंधन से इन्कार

उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद बहुजन समाज पार्टी 17 सालों तक सूबे की तीसरी बड़ी सियासी ताकत हुआ करती थी। सात सीटों से गिरते-गिरते अब सिफर पर पहुंच गया बहनजी का हाथी। पहाड़ चढऩे के फेर में चौथे विधानसभा चुनाव में हाथी मैदान से भी रुखसत हो गया। उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव में सपा-बसपा चारों खाने चित हुए, तो अब बहनजी ने फैसला किया कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अकेले चुनाव लडेंगी, किसी गठबंधन का सवाल नहीं। अब उत्तर प्रदेश की तो योगीजी जानें, मगर उत्तराखंड में कौन हाथी की सवारी करना चाहेगा, त्रिवेंद्रजी क्या, किसी को भी नहीं मालूम। दरअसल, जो कभी सूबे में हाथी के महावत हुआ करते थे, धीरे-धीरे उन्हें हाथ का साथ रास आने लगा। बहनजी 20 साल में 17 अध्यक्ष और 13 प्रभारी बदल चुकी हैं, भविष्य की भी गारंटी नहीं। अब भला कौन हाथी की सवारी का झंझट मोल लेगा।

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