जनता का जीतेंगे भरोसा, ट्रैफिक आई उत्तराखंड मोबाइल एप बनकर हुआ तैयार

अब ट्रैफिक आई उत्तराखंड मोबाइल एप बनकर तैयार हो गया है। जिसकी मदद से कोई भी सड़क पर होने वाली मनमानी से पुलिस को रूबरू करा सकेगा।

By Sunil NegiEdited By: Publish:Thu, 06 Feb 2020 01:51 PM (IST) Updated:Thu, 06 Feb 2020 01:51 PM (IST)
जनता का जीतेंगे भरोसा, ट्रैफिक आई उत्तराखंड मोबाइल एप बनकर हुआ तैयार
जनता का जीतेंगे भरोसा, ट्रैफिक आई उत्तराखंड मोबाइल एप बनकर हुआ तैयार

देहरादून, संतोष तिवारी। एक साल में डेढ़ लाख से अधिक चालान कटने के बाद भी लोगों में न तो यातायात नियमों के प्रति सम्मान का भाव जाग्रत हो रहा है और न ही उन्हें अपनी जान की ही परवाह है। पुलिस भी कहीं न कहीं मानने लगी है कि जब तक आम जनता को भरोसे में नहीं लिया जाएगा, तब तक यह मनमानी रुकने वाली नहीं। अफसरों ने मंथन किया तो पाया कि जो लोग सड़क पर नियमों के टूटने की गाहे-बगाहे शिकायत करते रहते हैं, उन्हें अपनी बात कहने के लिए एक प्लेटफार्म मुहैया कराया जाना चाहिए। ...तो अब ट्रैफिक आई उत्तराखंड मोबाइल एप बनकर तैयार हो गया है। जिसकी मदद से कोई भी सड़क पर होने वाली मनमानी से पुलिस को रूबरू करा सकेगा। देखना यह भी होगा कि कहीं कोई किसी से अपनी खुन्नस निकालने के लिए इसका गलत इस्तेमाल न करे। हालांकि, इसके भी पुख्ता इंतजाम किए गए हैं।

हम भी बनें स्मार्ट

दून स्मार्ट सिटी बनने की राह पर है। इसको लेकर यहां सड़क समेत तमाम बुनियादी ढांचों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की कवायद भी जोर-शोर से चल रही है। लेकिन, सवाल यह है कि क्या इतने भर से शहर स्मार्ट हो जाएगा। शायद जवाब देने में थोड़ी कठिनाई हो, क्योंकि अभी भी शहर को स्मार्ट बनाने में सबसे बड़ी बाधा है यातायात नियमों के प्रति संवेदनशीलता और सड़क पर चलने वाले अन्य नागरिकों के प्रति सम्मान में कमी। हम बड़ी आसानी से ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन होता देख पुलिस पर लापरवाही बरतने का ठीकरा फोड़ देते हैं। लेफ्ट टर्न का ख्याल रखना, रेड सिग्नल पर रुकना, निर्धारित और सुरक्षित गति से चलना आदि तो हमारी भी जिम्मेदारी है। अफसर भी मानते हैं कि पुलिस कहां तक और कितनों पर डंडा बजाएगी। संसाधन से शहर स्मार्ट बन जाएगा, लेकिन हमें भी तो स्मार्ट बनना होगा। नियम-कायदों के अनुसार सड़क पर चलना होगा।

दोहरा नुकसान क्यों भाई

वाहनों की बढ़ती संख्या से बढ़ी मुसीबत को कम करने के लिए सरकार ने मुख्य मार्गों पर ई-रिक्शा का संचालन प्रतिबंधित कर दिया है। इसे लेकर ई-रिक्शा चालक यूनियन कई दिनों से आंदोलित है। तीन दिन पहले एक प्रदर्शनकारी ने तो अपने ई-रिक्शा को आग ही लगा दी। नेताओं की बातों में आकर उसने ऐसा तो कर दिया। लेकिन, सवाल यह है कि इससे फायदा हुआ क्या? सरकार झुकी क्या? नहीं ना, खून-पसीने से जुटाए रोजी-रोटी के साधन को जलाकर खुद का नुकसान तो किया ही, पुलिस ने शांति व्यवस्था बिगाडऩे का मुकदमा अलग से करा दिया। जिसने भी सुना, इस कदम को गलत कहा। जिस समय ई-रिक्शा जल रहा था, परेड ग्राउंड के पास से गुजर रहे एक शख्स ने यहां तक कहा कि सरकार ने नियम बनाया है तो उसे मान कर देख लेते, कमी-बेसी की थाह लगा लेते तो शायद आग लगाने की नौबत ही न आती।

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साइबर खतरे की चुनौती

साइबर अपराध के बढ़ते ग्राफ के बीच आज यदि कोई यह कहे कि वह पूरी तरह से सुरक्षित है तो इसे तकनीकी ज्ञान की कमी ही माना जाएगा। साइबर अपराधी हर दिन कोई नई तकनीक इस्तेमाल करते हैं, जिससे पुलिस को भी उन तक पहुंचने में नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। यही वजह है कि सूबे में ई-चालान की व्यवस्था से पहले आए एक सुझाव पर गौर करते हुए मशीनों के हैकिंग टेस्ट का फैसला लिया गया है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि यदि किसी जालसाज ने मशीनों को हैक किया तो मुश्किल तो खड़ी होगी ही, साथ ही लोग यह भी कहने लगेंगे कि साइबर खतरे से सुरक्षा देने वाले ही शिकार हो गए तो हमारा क्या। अफसरों का मानना है कि इससे हम सुरक्षित तो होंगे ही, यह संदेश देने में भी कामयाब होंगे कि पुलिस महकमा साइबर क्राइम के खतरे को लेकर अलर्ट है।

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