इस तरह 'ममता' की छांव में संवर रहा जीवन, बन रहा भविष्य

एमकेपी कॉलेज के फाइन आर्ट्स विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ममता सिंह ने स्नेहिल कला संगठन की स्थापना की और संस्था के माध्यम से 22 बच्चों को गोद लेकर उनका भविष्य संवार रही हैं।

By Raksha PanthariEdited By: Publish:Sun, 13 May 2018 03:10 PM (IST) Updated:Mon, 14 May 2018 05:10 PM (IST)
इस तरह 'ममता' की छांव में संवर रहा जीवन, बन रहा भविष्य
इस तरह 'ममता' की छांव में संवर रहा जीवन, बन रहा भविष्य

देहरादून, [जेएनएन]: मां हमेशा जन्म देने वाली ही नहीं होती। कई बार दिलों के तार जुड़ जाते हैं और मां-बच्चे का एक अलग रिश्ता जन्म लेता है। आज मदर्स डे पर हम आपको कुछ ऐसी ही शख्सियतों से मिलाएंगे, जिन्होंने 'मां' शब्द की एक अलग परिभाषा गढ़ी। ये वो मां हैं, जो न केवल अपने जीवन के संघर्षों से लड़कर बच्चों का भविष्य संवार रही हैं। बल्कि जरूरतमंद बच्चों की मदद के लिए मां की जिम्मेदारी भी निभा रही हैं। 

22 बच्चों पर लुटा रही 'ममता' 

ममता नाम तो वैसे भी मां से जुड़ा है। एमकेपी कॉलेज के फाइन आर्ट्स विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ममता सिंह ने खुद तो शादी नहीं की। लेकिन, उनका बच्चों से विशेष लगाव था। ऐसे में उन्होंने स्नेहिल कला संगठन की स्थापना की और संस्था के माध्यम से 22 बच्चों को गोद ले लिया। आज वो 22 बच्चों की मां हैं और उनकी परवरिश कर रही हैं। 48 वर्षीय ममता मूल रूप से सहारनपुर जिले के एक छोटे से कस्बे रामपुर मनिहारन से ताल्लुक रखती हैं। वह अपने माता-पिता जगदेवी कुंवर और ओंकार सिंह को प्रेरणास्रोत मानती हैं। ममता बताती हैं कि उनकी मां एक शिक्षिका थीं, जिन्हें ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं की शिक्षा के लिए कार्य करने के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार मिला था। 

ममता बताती हैं कि अभी तक वो 22 देशों में अपनी चित्रकला प्रदर्शनी लगा चुकी हैं। उन्हें वर्ष 2009 में कला के माध्यम से लैंगिक समानता के लिए कार्य करने पर संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा 2014 में ताशकंद में कला भारती सम्मान और 2015 में लंदन में गौरव सम्मान आदि पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं। उन्होंने निर्भया कांड के विरोध में भारत के 11 राज्यों में कला के माध्यम से जनजागरण भी किया था। चित्रों की बिक्री से मिलने वाली धनराशि वह गरीब बच्चों की शिक्षा पर खर्च करती हैं। उनका कहना है कि समाज में हर बच्चे का शिक्षित होना बेहद जरूरी है। इसी दिशा में उनकी ओर से एक छोटा सा प्रयास किया जा रहा है। 

संघर्षों से जीतकर जीना सीखा 

जिंदगी के हर पड़ाव पर संघर्षों का सामना करना पड़ा तो जीने का मकसद बदल गया। विकासनगर की 39 वर्षीय अनीता वर्मा अपनी कहानी कुछ इसी अंदाज में बयां करती हैं। अपने अनुभवों से मिली प्रेरणा ने उन्हें समाजसेवा से जोड़ दिया। वह वर्तमान में मानवाधिकार आयोग से जुड़े एक नारी संगठन की अध्यक्ष हैं। वह महिलाओं की समस्या और भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्य कर रही हैं। 

मूल रूप से साहिया निवासी अनीता छह भाई-बहनों में तीसरे नंबर की थीं। महज पांच साल की उम्र में उनकी मां का निधन हो गया। उसके कुछ साल बाद पिता भी कैंसर से पीड़ित हो गए। 14 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गई। शादी के एक साल बाद कम उम्र में मां बनने पर उन्हें कई बड़ी जिम्मेदारियों का एहसास हो गया। अनीता 27 साल की थीं, जब पारिवारिक विवाद के चलते उनके पति से उन्हें तलाक दे दिया। तब उनका बेटा 11 और बेटी आठ साल की थीं। अनीता ने बताया कि भाई-बहन दूसरी शादी का दबाव बनाते थे। लेकिन, बच्चों की खातिर उन्होंने कभी इस बारे में नहीं सोचा। 

कोर्ट में भी पति ने बच्चों और भरण-पोषण में से एक विकल्प चुनने को कहा और उन्होंने बच्चों को चुना। इसके बाद उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती खुद के साथ ही बच्चों की परवरिश करने की थी। महज पांचवीं तक ही पढ़ीं थीं, इसलिए कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल सकी। इसलिए घरों में सफाई और मजदूरी करने लगीं। इसके बाद वो एक सामाजिक संस्था से जुड़ गई। इन सब चुनौतियों के बीच उन्होंने बच्चों को बेहतर शिक्षा दी। आज उनके दोनों बच्चे उच्च शिक्षा ले रहे हैं। साथ ही वो महिलाओं के हक के लिए लगातार संघर्ष भी कर रही हैं। 

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