बाल यौन शोषण: सजा दिलाने को खुद भी भुगतनी पड़ती है 'सजा'

बाल यौन शोषण के मामलों में पीड़ित परिवार को आरोपित को सजा दिलाने से पहले खुद ही सजा भुगतनी पड़ती हैै।

By Raksha PanthariEdited By: Publish:Tue, 19 Jun 2018 08:02 PM (IST) Updated:Thu, 21 Jun 2018 05:35 PM (IST)
बाल यौन शोषण: सजा दिलाने को खुद भी भुगतनी पड़ती है 'सजा'
बाल यौन शोषण: सजा दिलाने को खुद भी भुगतनी पड़ती है 'सजा'

देहरादून, [जेएनएन]: बाल यौन शोषण की घटना के बाद मानसिक रूप से टूटे परिवार को आरोपितों का सजा दिलाने तक के सफर में कदम-कदम पर चुनौती से जूझना पड़ता है। कभी मुकदमा वापस न लेने पर अंजाम भुगतने की धमकी तो कभी गवाहों को तोडऩे की साजिश। कई बार पुलिस का रवैया भी उन्हें निराशा के भंवर की तरफ ले जाता दिखता है, लेकिन इस सबके बीच कई मामलों में वादी के पैरोकार अधिवक्तों ने उनका मनोबल न टूटने देने में अग्रणी भूमिका निभाई। अधिवक्तों को भी न्याय की इस लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाने में तमाम चुनौतियां से पार पाना पड़ा। 

बाल यौन शोषण के शिकार पीडि़त और उसके परिवार के दर्द को बयां करने में शब्द भी शर्मसार हो जाते हैं। उनकी पीड़ा तब और बढ़ जाती है, जबकि आरोपित पक्ष की ओर से उन्हें केस वापस लेने या फिर गवाहों को तोडऩे की साजिश शुरू कर दी जाती है। अदालत में बाल यौन शोषण के दर्जनों के मुकदमों की पैरवी कर दोषियों को सजा दिलाने में भूमिका निभाने वाले अधिवक्ता भरत सिंह नेगी बताते हैं कि पुलिस के चार्जशीट दाखिल करने के बाद आरोप तय होने के दौरान अक्सर कई गवाह बयान से मुकर जाते हैं।

खासकर, उन मामलों में जिनमें आरोपित उनके आसपास का या फिर परिवार का नजदीकी होता है। उन्हें लगने लगता है कि वह क्यों किसी से दुश्मनी मोल लें। ऐसे समय में परिवार भी खुद को दोराहे पर खड़ा पाता है। तब गवाह से लेकर पीडि़त तक को मानसिक रूप से तैयार करने और उनका न्यायिक प्रक्रिया के प्रक्रिया में विश्वास अडिग बनाए रखने के लिए कई मोर्चों पर जूझना पड़ता है। जब ऐसे आपराधिक केसों में दोषी को सजा मिल जाती है, तब उन्हें एहसास होता है कि अदालत से ऊपर कोई नहीं। 

पहला मामला

मासूम के साथ कुकर्म और फिर उसकी गला घोंट कर हत्या। चार साल पूर्व डोईवाला इलाके में हुई इस घटना ने परिवार पर मानो वज्रपात कर दिया। कुकर्मी गिरफ्तार हुआ तो परिवार उसे सजा दिलाने के लिए कानून की चौखट पर पहुंचा। मगर, आर्थिक रूप से कमजोर इस परिवार की चुनौती यहीं खत्म नहीं हुई। उसे और गवाहों को तोडऩे की हर कदम पर कोशिशें हुई, सबूतों को नकार वारदात को साजिश तक बता दिया, ऐसे समय में पीड़ित पक्ष के अधिवक्ता ने परिवार को न सिर्फ मानसिक रूप से तैयार किया, बल्कि गवाहों को आखिर तक मुकदमे के साथ जोड़े रखा। अंतत: दोषी को उम्र कैद हुई। 

दूसरा मामला 

वाकया तीन साल पूर्व का है। एक युवक ने नाबालिग लड़की का अपहरण कर लिया। उसे बंधक बनाकर रखा और यातनाएं देकर शादी के लिए राजी करने का कुत्सित प्रयास भी किया। इस सबके बावजूद लड़की ने हार नहीं मानी। एक रोज वह युवक के चंगुल से आजाद हो गई। पुलिस ने केस दर्ज चार्जशीट फाइल कर दी, युवक के साथ साजिश में शामिल उसकी मां भी आरोपी बनी।

सुनवाई के दौरान दो गवाह बयान से मुकर गए तो परिवार डरने लगा, उसे लगा कि आरोपी छूट गए तो क्या होगा। तब उनके अधिवक्ता ने परिवार को न सिर्फ कानूनी लड़ाई जारी रखने का हौसला दिया, बल्कि वैज्ञानिक साक्ष्यों की अहमियत बताई। दो साल की कानूनी लड़ाई के बाद दोषी को बारह साल और उसकी मां को तीन साल की सजा सुनाई। 

तीसरा मामला

तीन साल पहले एक अधेड़ ने नाबालिग लड़की के साथ छेड़छाड़ कर उसकी आबरू तार-तार करने की कोशिश की। परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी, जबकि आरोपित प्रभावशाली भी था और पैसे वाला भी। फिर भी गांव के नौ लोग अधेड़ के खिलाफ बयान देने अदालत पहुंचे। लेकिन यह इतना आसान नहीं था। गवाहों को तोड़ने की हरसंभव कोशिशें की गई। पैरवी कर रहे अधिवक्ता को जब इसकी भनक लगी तो उन्होंने परिवार और उसके साथ खड़े लोगों को हौसला दिया। विश्वास दिलाया कि कानून से ऊपर कोई ताकत नहीं है। वह उस पर यकीन करें और कदम न पीछे न खींचे। नतीजा राहत देने वाला रहा, अदालत ने अधेड़ को तीन साल कैद की सजा सुनाई। 

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