उत्‍तराखंड की माली हालत खराब, पूर्व मुख्यमंत्रियों पर मेहर, पढ़ि‍ए पूरी खबर

सूबे में अच्छी माली हालत वाले पूर्व मुख्यमंत्रियों की सुख-सुविधाओं पर मेहर बरसाने को सरकार के आतुर होने पर सवाल खड़े हो रहे हैं।

By Edited By: Publish:Sun, 18 Aug 2019 08:13 PM (IST) Updated:Mon, 19 Aug 2019 08:07 PM (IST)
उत्‍तराखंड की माली हालत खराब, पूर्व मुख्यमंत्रियों पर मेहर, पढ़ि‍ए पूरी खबर
उत्‍तराखंड की माली हालत खराब, पूर्व मुख्यमंत्रियों पर मेहर, पढ़ि‍ए पूरी खबर

देहरादून, राज्य ब्यूरो। देश में विकास कार्यों के लिए महज 12.38 फीसद बजट है, जबकि गैर विकास मदों में खर्च 85 फीसद तक बढ़ चुका है। फिजूलखर्ची की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। खुद के आर्थिक मोर्चे की हालत ये है कि आमदनी बढ़ाने में दम फूल रहे हैं। केंद्र से मिलने वाली मदद और केंद्रपोषित योजनाओं पर ही राज्य के विकास का दारोमदार है तो ऐसे में अच्छी माली हालत वाले पूर्व मुख्यमंत्रियों की सुख-सुविधाओं पर मेहर बरसाने को सरकार के आतुर होने पर सवाल खड़े हो रहे हैं।

हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जनता की गाढ़ी कमाई से पूर्व मुख्यमंत्रियों को सुख-सुविधाएं मुहैया कराने पर सख्त रुख अपना चुका है। बावजूद इसके सरकार को पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी खजाने से सस्ता आवास, ओएसडी या जनसंपर्क अधिकारी, मोटर-गाड़ी, टेलीफोन व सुरक्षा गार्ड जैसी तमाम सुविधाएं देने के लिए अध्यादेश का सहारा लेना पड़ रहा है। अहम बात ये है कि मौजूदा पूर्व मुख्यमंत्रियों में किसी की भी माली हालत खराब नहीं है। विभिन्न चुनावों के मौके पर आय और संपत्ति के बारे में दिए गए पूर्व मुख्यमंत्रियों के ब्योरे से ही इसकी तस्दीक हो जाती है। 

बजट के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बीते वित्तीय वर्ष 2018-19 की तुलना में चालू वित्तीय वर्ष 2019-20 में महंगाई भत्ते में 37.34 फीसद, यात्रा भत्ते पर 35 फीसद, कार्यालय खर्च पर 38 फीसद तो मोटर वाहनों के अनुरक्षण और पेट्रोल आदि की खरीद में करीब 110 फीसद वृद्धि हुई है। राज्य सरकार को फिजूलखर्ची को रोकने की चुनौती से जूझना पड़ रहा है। इसी वजह से राज्य में बड़े और छोटे निर्माण कार्यों के लिए वर्ष 2018-19 में मात्र 12.73 फीसद रह गई थी, जो चालू वित्तीय वर्ष 2019-20 में  महज 12.38 फीसद रह गई है। इन हालात में भी अच्छी माली हालत और बड़े सियासी रसूखदार पूर्व मुख्यमंत्रियों को सुविधाएं बहाल रखी जाती हैं तो इसका बुरा असर आम जनता की जेब और विकास कार्यों पर ही पडऩा तय है। 18 साल की अल्प अवधि में प्रदेश सात पूर्व मुख्यमंत्री देख चुका है।

दून को ही भुगतना होगा खामियाजा

पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी किराया दर पर आवास मुहैया कराने की स्थिति में इसका सबसे बड़ा खामियाजा देहरादून को भुगतना होगा। अंतरिम राजधानी देहरादून सरकारी दफ्तरों और शिक्षण संस्थानों के लिए ही भूमि की कमी से जूझ रहा है। एसएस पांगती (सेवानिवृत्त आइएएस) का कहना है कि यह किसी से छिपा नहीं है कि राज्य की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। मदद के लिए सरकार को केंद्र की ओर ताकना पड़ता है। ऐसे में पिछले दरवाजे से पूर्व मुख्यमंत्रियों को सुविधाएं देने के लिए अध्यादेश लाने का सरकार का फैसला उसके मनमाने रवैये को उजागर करता है। सभी पूर्व मुख्यमंत्री सक्षम हैं, लिहाजा उन्हें सुविधाएं देने का औचित्य क्या है। यदि सरकार ऐसा करती है तो इसका विरोध किया जाएगा। महेंद्र सिंह कुंवर (संस्थापक हार्क संस्था) का कहना है कि उत्तराखंड की परिस्थितियों को देखते हुए सरकार को इस बात पर फोकस करना चाहिए कि उसकी प्राथमिकताएं क्या हों और किन पर पहले काम किया जाए। बरसात को ही देख लीजिए, यह हर साल ही राज्य पर अतिरिक्त बोझ डालती है। ऐसे ही अन्य कई मसले हैं। मेरा तो यह कहना है कि पूर्व मुख्यमंत्रियों की सुविधाओं के नाम पर राज्य पर बोझ डालना अच्छी परिपाटी नहीं है। जरूरत संसाधनों को सोच-समझकर प्राथमिकता पर रख खर्च करने की है। पूर्व सीएम को सुविधा, कोई प्राथमिकता नहीं है। सुशीला बलूनी (वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी) का कहना है कि सभी पूर्व मुख्यमंत्री साधन संपन्न हैं। सरकार जो पैसा उनकी सुख सुविधाओं पर खर्च करना चाहती है, उसे वह जन कल्याण के कार्यों पर खर्च करे। फिर पूर्व मुख्यमंत्रियों के पास सुविधाओं की कमी थोड़े ही है। सरकार का यह फैसला गलत है। सरकार को चाहिए कि वह राज्य के चहुंमुखी विकास के साथ ही बेरोजगारी से पार पाने के लिए गंभीरता से कदम उठाए।  जगमोहन मेंदीरत्ता, महामंत्री (उत्तरांचल बैंक इंपलाइज यूनियन) का कहना है कि भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों को गुपचुप तरीके से सुविधाएं प्रदान करने वाले अध्यादेश को किसी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। कर्मचारियों को वेतन देने और अपने खर्चे चलाने को सरकार तीन बार कर्ज ले चुकी है। सक्षम पूर्व मुख्यमंत्रियों को सुविधाएं देने के हर कदम का विरोध किया जाएगा। इसके लिए चाहे कोई बड़ा आंदोलन ही क्यों न करना पड़े। मैं समझता हूं कि इस आंदोलन को बुद्धिजीवियों समेत हर वर्ग का समर्थन मिलेगा।  ब्रिगेडियर केजी बहल (सेनि) का कहना है कि यह बिल्कुल उचित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट जब एक बार व्यवस्था दे चुका है तो फिर इसमें अध्यादेश लाने की क्या जरूरत है। पांच साल के लिए चुने गए प्रतिनिधि को पहले ही 20-30 साल सेवा देने वालों के समान पेंशन दी जाती है। जनता अब आवाज भी उठाने लगी है। सरकार के इस कदम को बिल्कुल सही नहीं कहा जा सकता।

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शमशेर सिंह बिष्ट (अध्यक्ष पीबीओआर संगठन) का कहना है कि एक बार जब पूर्व मुख्यमंत्रियों की सुविधाओं पर न्यायिक स्तर से निर्णय लिया जा चुका है तो उसका अनुपालन किया जाना चाहिए। पैसा जनता है। इस पैसे को प्रदेश के विकास के साथ ही सैनिक कल्याण व पलायन रोकने के लिए किया जाना चाहिए। इस तरह अध्यादेश लाना ठीक नहीं कहा जा सकता।

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