Holi Festival Tradition: देहरादून की होली में घुले हैं परंपराओं के रंग

दून में होली के अनेक रंग हैं लेकिन इनमें सबसे गाढ़ा है कुमाऊंनी होली का रंग। गढ़वाल की होली में कुमाऊं जैसी विविधता तो नहीं है लेकिन उल्लास की यहां भी कोई कमी नहीं।

By Sunil NegiEdited By: Publish:Sat, 07 Mar 2020 08:36 AM (IST) Updated:Sat, 07 Mar 2020 08:36 AM (IST)
Holi Festival Tradition: देहरादून की होली में घुले हैं परंपराओं के रंग
Holi Festival Tradition: देहरादून की होली में घुले हैं परंपराओं के रंग

देहरादून, दिनेश कुकरेती। देहरादून में होली के अनेक रंग हैं, लेकिन इनमें सबसे गाढ़ा है कुमाऊंनी होली का रंग। गढ़वाल की होली (होरी) में कुमाऊं जैसी विविधता तो नहीं है, लेकिन उल्लास की यहां भी कोई कमी नहीं। यह जरूर है कि गढ़वाल के सभी होरी गीत ब्रजमंडल के ही गीतों का गढ़वालीकरण किए हुए लगते हैं। अमूमन सभी होली गीतों के हर अंतरे में गढ़वाली शब्द मिलते हैं, लेकिन शेष पदावली ब्रजभाषा या खड़ी बोली की रहती है। दूनघाटी में हू-ब-हू इसी रूप में इनका गायन होता है। अच्छी बात है कि कूर्मांचल सांस्कृतिक एवं कल्याण परिषद और गढ़वाल सभा के साथ ही तमाम अन्य सांस्कृतिक संगठन भी होली गायन की इस समृद्ध परंपरा को न सिर्फ कायम रखे हुए हैं, बल्कि लगातार इसके विस्तार को भी प्रयासरत हैं।

गढ़वाल में होली की शुरुआत फाल्गुन शुक्ल एकादशी से हो जाती है। परंपरा के अनुसार इस दिन पय्यां, मेहल, चीड़ या अन्य किसी की टहनी पर विधि-विधान पूर्वक चीर (रंग-बिरंगे कपड़ों के कुछ टुकड़े) बांधी जाती है। द्वादशी के दिन चीरबंधी इस टहनी को काटकर तयशुदा स्थान पर स्थापित किया जाता है और पूर्णमासी तक नित्य उसकी पूजा होती है। चीरबंधन के दिन से ही गांव के बच्चों की टोली (होल्यार) होली मनाना शुरू कर देती है। जब होल्यार किसी घर में प्रवेश करते हैं तो गाते हैं, 'खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर, दरसन दीज्यो माई अंबे झुलसी रहो जी। तीलूं को तेल, कपास की बाती, जगमग जोत जले दिन राती। झुलसी रहो जी...।' जब होल्यारों की टोली को ईनाम (पैसा) मिलता है, तब वह इस आशीर्वाद गीत को गाते हुए दूसरे घर की ओर बढ़ती है, 'हम होली वाले देवें आशीष, गावें-बजावें देवें आशीष। बामण जीवे लाखों बरस, बामणि जीवें लाखों बरस। जिनके गोंदों में लड़का खिलौण्या, ह्वे जयां उनका नाती खिलौण्या। जी रयां पुत्र अमर रयां नाती, जी रयां पुत्र अमर रयां नाती। होली का दान सबसे महान, होली का दान स्वर्ग समान। हम होली वाले देवें आशीष, गावें-बजावें देवें आशीष।'

इन शास्त्रीय रागों पर होता है होली गायन

पहाड़ में बैठकी होली का गायन शास्त्रीय रागों पर आधारित होता है। यह होलियां पीलू, भैरवी, श्याम कल्याण, काफी, परज, जंगला काफी, खमाज, जोगिया, देश विहाग, जै-जैवंती जैसे शास्त्रीय रागों पर विविध वाद्य यंत्रों के बीच गाई जाती हैं। देहरादून में आज भी कुमाऊंनी बैठकी होली में इसकी झलक देखी जा सकती है।

ब्रज के गीतों की सुगंध

गढ़वाल अंचल के होली गीत हालांकि ब्रज से आए प्रतीत होते हैं, लेकिन यहां आकर ये लोक के रंग में इस कदर रचे-बसे गए कि स्थानीय लोक परंपरा का ही हिस्सा बन गए। यही विशेषता कुमाऊं (कुमौ) की बैठ (बैठकी) होलियों की भी है। शास्त्रीय रागों पर आधारित होने के बावजूद इनके गायन में शिथिलता दिखाई देती है। जिससे शास्त्रीय रागों से अनभिज्ञ गायक भी मुख्य गायक के सुर में अपना सुर जोड़ देता है। गढ़वाल अंचल के श्रीनगर, पौड़ी, टिहरी और उससे लगे इलाकों में भी होली का कुमाऊं जैसा स्वरूप ही नजर आता है। यहां की होली में भी मेलू (मेहल) के पेड़ की डाली को होलिका के प्रतीक रूप में जमीन में गाड़कर प्रतिष्ठित करने और होली गाने का चलन है। इन स्थानों से आकर देहरादून में बस गए गढ़वाली आज भी इस परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं।

दून में खास होती थी शमशेरगढ़ और बालावाला की होली

एक जमाने में देहरादून की होली बेहद उल्लासभरी होती थी। खासकर शमशेरगढ़ और बालावाला में झुम्मालाला का ढप वादन तरंगें पैदा कर देता था। होल्यार सफेद कुर्ता-पायजामा व टोपी पहनकर  घर-घर जाते और होली गायन करते थे। खासतौर पर देहातों में देहरे की होली प्रसिद्ध थी। घरों में लोग होल्यारों को जब गुड़ की भेली देते तो वातावरण में जयकारा गूंजता, 'जय बोलो रे भेली वालों की'। फिर इसी भेली का प्रसाद सबमें बंटता था।

श्रीराम शर्मा होते थे साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र

प्रसिद्ध जनकवि एवं रंगकर्मी डॉ. अतुल शर्मा बताते हैं कि 60-70 साल पूर्व शहर में हफ्तों पहले से साहित्यिक गोष्ठियां होने लगती थीं। साहित्यिक गतिविधियों के केंद्र हुआ करते थे श्रीराम शर्मा 'प्रेम' जैसे साहित्यकार। शेरजंग गर्ग अपने एक संस्मरण में लिखते हैं कि एस्लेहाल स्थित छायाकार ब्रह्मदेव के आरके स्टूडियो में होने वाली गोष्ठियों का हिस्सा महापंडित राहुल सांकृत्यायन भी बनते थे। इन गोष्ठियों को इतना क्रेज होता था कि साहित्य प्रेमी हर हाल में इनका हिस्सा बनना चाहते थे।

फालतू लाइन होली समिति ने दिए कई कलाकार

वर्ष 1913 के आसपास शुरू हुई फालतू लाइन होली समिति का उत्साह तो देखते ही बनता था। इसी समिति के मंच से ही गढ़वाली के आद्यकवि एवं रंगकर्मी जीत सिंह नेगी, केशव अनुरागी, शिव प्रसाद पोखरियाल, उर्मिल थपलियाल, विश्वमोहन बडोला, जीत जड़धारी जैसे कलाकार सामने आए। 

सेंट थॉमस में होता था होलिका दहन

जनकवि डॉ. अतुल शर्मा बताते हैं कि उस दौर में होलिका दहन सेंट थॉमस स्कूल में हुआ करता था। आनंद ढौंडियाल काका और जगत दाजी सुबह-सुबह निकल पड़ते। पं. खुशदिल, जिया नहटौरी, शशिप्रभा शास्त्री, विष्णुदत्त राकेश, विकल, श्रीमन, कृष्ण कुमार कौशिक जैसे होल्यारों की यादगार महफिलें सजा करतीं। बात-बात पर चुटकियां लेते कुल्हड़ कवि और पार्थसारथी डबराल इस दौरान तरंग में रहते थे।

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गीत, नृत्य और स्वांग साथ-साथ

देहरादून के हर मुहल्ले या कॉलोनी में आज भी कुमाऊंनी महिलाओं की होली बैठक होती हैं। ढोल-मजीरे की धमक-झमक के साथ परवान चढ़ती गायकी के बीच महिलाएं नए-नए स्वांग रचती हैं। एकादशी से छरड़ी तक तो हर ओर होली की धूम रहती है। होली गाई जाती है, नाची जाती है और अभिनीत की जाती है। इसके साथ ही पकवानों का भी अलग ही मजा रहता है। वातावरण में उठती लजीज व्यंजनों की महक लोगों के मुंह में पानी ला देती है। श्रीखंड, आम या अंगूरी का श्रीखंड, मालपुआ, गुझिया, खीर, कांजी बड़ा, पूरन पोली, कचौरी, पपड़ी, मूंग हलुवा जैसे व्यंजन घरों में मुख्य रूप से तैयार किए जाते हैं। इसके लिए गृहणियां हफ्तेभर पहले से तैयारी शुरू कर देती हैं।

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