कभी आसमान में था इसका जलवा, आज जूझ रही बदहाली से

डालीगंज स्थित खन्ना मिल के परिसर में पैराशूट का कपड़ा बनता था। 1953 में इसका नाम पूर्वी बंगाल विस्थापित महिला उत्पादन केंद्र हो गया।

By JagranEdited By: Publish:Wed, 11 Apr 2018 12:38 PM (IST) Updated:Wed, 11 Apr 2018 12:38 PM (IST)
कभी आसमान में था इसका जलवा, आज जूझ रही बदहाली से
कभी आसमान में था इसका जलवा, आज जूझ रही बदहाली से

लखनऊ[जितेंद्र उपाध्याय]। खन्ना मिल हूं। आठ एकड़ के फैले मेरे इस परिसर में कभी मेरा जलवा हुआ करता था। 1857 में अवध में क्राति की पहली चिंगारी को मैंने बड़े करीब से देखा है। क्रातिकारियों के भारत माता की जय के नारे आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं। कभी मेरे परिसर में पैराशूट का कपड़ा बनता था, लेकिन आज पैराशूट तो नहीं बनता, पर परिसर में कई सरकारी काम जरूर होते हैं। यह दास्तां किसी इंसान की नहीं बल्कि खन्ना मिल की है, जो उसकी बदरंग दिवारों से टकराकर चीख रहीं है। दैनिक जागरण आपको उसी की जुबानी बता रहा है। कभी कारीगरों की जमात मेरे परिसर को परिवार का स्वरूप देती थी। मेरा कपड़ा देश ही नहीं, विदेशों में भी अपनी धमक रखता था। केंद्र सरकार के अधीन मेरे परिसर में अब पैराशूट तो नहीं बनता, लेकिन मेरे परिसर में कई सरकारी काम जरूर होते हैं। मेरे काम से तो लोग मुझे कम ही जानते हैं, लेकिन शहर में शायद ही कोई हो जो मेरा नाम न जानता हो। मुझे याद है कि 15 अगस्त 1947 को आजादी के साथ ही देश का बंटवारा हुआ था। बंटवारे के दौरान सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं और बच्चों को उठानी पड़ी। सरकार ने ऐसे लोगों को आश्रय देने का निर्णय लिया। 1953 में मेरा नाम पूर्वी बंगाल विस्थापित महिला उत्पादन केंद्र हो गया। 200 से अधिक महिलाओं को मेरे परिसर में ही प्रशिक्षित किया गया और निगम व पुलिस की वर्दी सिलने का काम भी यहा होने लगा। मुझे लगा चलो मैं असहायों के काम तो आ सका। धीरे-धीरे महिलाओं के साथ आए बच्चे बड़े हो गए। महिलाएं भी जो आईंथी उनका निधन हो गया। 1962 में केंद्र सरकार ने मेरे परिसर को प्रदेश के प्रशिक्षण एवं सेवायोजन निदेशालय के अधीन कर दिया। मेरे परिसर में ही उप्र खादी ग्रामोद्योग का प्रशिक्षण केंद्र खुल गया है, जहा युवाओं को तकनीकी शिक्षा दी जाती है। दूसरी ओर यूपी एग्रो मेरे परिसर में ही पशु आहार बनाता है। मेरे मूल स्वरूप में बदलाव होता रहा, लेकिन सरकार ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। कुछ असामाजिक तत्वों ने मेरे परिसर को अपनी बपौती बना ली। अब तो मेरा नाम भी कहीं लिखा नहीं दिखता। बस लोगों की जुबान पर मेरा नाम जरूर रहता है। मेरे परिसर को कब्जामुक्त करने का प्रयास किसी भी सरकार ने नहीं किया। सिलाई और बुनाई की मशीनें अब कबाड़ हो चुकी हैं।

नगर निगम मुफ्त में देता था पानी

मेरे परिसर में नगर निगम ने डिस्पेंसरी खोलने का निर्णय लिया था। इसके एवज में परिसर में जमीन के बदले बिजली और पानी की मुफ्त सुविधा देने का वादा किया था। नगर निगम की डिस्पेंसरी अभी भी मौजूद है, लेकिन यहा कभी कोई चिकित्सक नहीं आता। दवाएं तो कभी मिलती ही नहीं हैं। मेरे परिसर के बाहरी हिस्से को कब्जा कर लोगों ने अपनी रोजी-रोटी का जरिया तो बना लिया, लेकिन मेरे परिसर को संवारने की पहल कभी नहीं की। पिछले वर्ष एक दल के नेता की ओर से परिसर की जमीन को कब्जा करने का प्रयास भी किया गया, लेकिन समय रहते अधिकारियों को भनक लग गई और मुझ पर कब्जा नहीं हो सका। फाइलों में तैयार हुआ विकास का खाका

अलीगंज के राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान के प्रधानाचार्य को परिसर की निगरानी करने की जिम्मेदारी दी गई। परिसर के विकास और प्रशिक्षण के लिए फाइलों में प्रस्ताव भी तैयार किया गया, लेकिन हकीकत में इसकी शुरुआत नहीं हो सकी। उप्र कौशल विकास मिशन की ओर से इस परिसर में प्रशिक्षण केंद्र खोलने की कवायद शुरू हुई, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ।

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