Dainik Jagran Samvadi 2019 Lucknow : संवाद ने दिखाया दलित वेदना का 'दर्पण'

Dainik Jagran Samvadi 2019 दलित साहित्य का भविष्य पर श्योराज सिंह बेचैन विवेक कुमार से बातचीत।

By Divyansh RastogiEdited By: Publish:Sat, 14 Dec 2019 06:50 PM (IST) Updated:Sat, 14 Dec 2019 06:50 PM (IST)
Dainik Jagran Samvadi 2019 Lucknow : संवाद ने दिखाया दलित वेदना का 'दर्पण'
Dainik Jagran Samvadi 2019 Lucknow : संवाद ने दिखाया दलित वेदना का 'दर्पण'

लखनऊ [अंकित कुमार]। वोटों की राजनीति में 'हॉट केक' कहे जाने वाले दलितों की सदियों पुरानी वेदना को संवाद के मंच ने नई राह बेशक दिखाई मगर, भेद के उस आईने से भी रूबरू कराया, जिसमें झांके बिना नए भारत की परिकल्पना संभव नहीं है। उन चिंताओं-आशंकाओं से सीधे सामना कराया जिनसे दलित ही नहीं बल्कि उनका साहित्य भी जूझ रहा है.., स्वर्णिम भविष्य गढऩे की जिद्दोजहद में जुटा है। यही वजह रही, बारी जब दलित साहित्य के भविष्य की थाह लेने के लिए विचारों के समंदर में उतरते की आई तो तमाम गूढ़ सवालों के बेबाक जवाब मोती बनकर निकले। यह जताते हुए कि हिंदी साहित्य के गुलदस्ते से अलहदा नहीं है दलित लेखन। राष्ट्र को मजबूत करने का आधार है। लोकतांत्रिक चेतना का माध्यम है। शोषितों की आवाज है, भेद का प्रतिकार है...। बस, जरूरत उसे दिल से अपनाने की है। खुद में समाहित करने की है।

लेखन-चिंतन का कोई ट्रेडमार्क नहीं होता, दैनिक जागरण के संवादी मंच ने यह बखूबी साबित किया। विचार के महामंच पर दूसरे दिन सर्वप्रथम स्थान उस लेखन को दिया, जो दलित समाज में नई चेतना का संचार करने में जुटा है। यानी दलित साहित्य...। विषय भी वटवृक्ष होते हिंदी साहित्य के बीच उसके भविष्य से जुड़ा था, इसलिए बात निकली तो दूर तलक गई। इतिहास के सदियों पुराने पन्ने पलटे गए। उस सामाजिक ताने-बाने पर प्रहार हुआ, जिसमें दलितों को चौथे पायदान पर रखा गया है। सहानुभूति और स्वनुभूति को वो फर्क निकला जिसमें दलित होने के मायने छिपे हैं। देश के बंटवारे के वक्त जिन्ना का पीड़ादायक तंज याद दिलाया जिसमें उनकी भूमिका मैला उठाने तक आंकी गई। उस लेखन पर चोट हुई जिसने समाज के एक तबके बहिष्कृत रखा, जाति के आधार पर महापुरुषों का बखान किया। गुरु रविंद्रनाथ टैगोर से लेकर मुंशी प्रेमचंद पर कटाक्ष हुए। उन रहस्यों से पर्दा उठा, जिसके कारण जन्मा दलित साहित्य...।  

विरोध नहीं, दलित साहित्य बहस है...

विषय ज्वलंत था, लिहाजा उसपर मंथन के लिए दिग्गज भी दलित लेखन के विराट व्यक्त्वि वाले जुटे। प्रख्यात साहित्यकार श्योराज सिंह बेचैन और जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर, दलित चिंतक-लेखक विवेक कुमार। संचालन की कमान संभालने वाले स्वतंत्र टिप्पणीकार पंकज सुबीर के किन्हीं कारणवश कार्यक्रम में न पहुंचने पर कमान संभाली भगवानदास मोरवाल ने।

सवाल सीधे विषय से जुड़ा आया-हिंदी साहित्य की धारा है तो दलित साहित्य क्यों? मौजूदा मुकाम के बाद उसका भविष्य क्या है? जवाब की जिम्मेदारी विवेक कुमार ने संभाली मगर सदियों पुरानी उस प्रताडऩा की कहानी सुनाकर जिसने अलग साहित्य को जन्मने पर मजबूर किया। सवाल उठाया, आखिर वर्तमान हिंदी साहित्य में गुरु की महिमा का वर्णन है लेकिन मुर्दहिया क्यों गुम  है...? तमाम महापुरुष पढ़ाए जाते हैं तो बाबा साहब क्यों पड़ते हैं खोजने? दलित साहित्य और कुछ नहीं। इन्हीं चेतना की छटपटाहट है। आखिर वेदना को वही लिख सकता है जो उसे महसूस करता है।

कर रहा देश को समृद्ध

दलित साहित्य पर उठ रहे सवालों के बीच आक्रामक श्योराज सिंह बेचैन ने बेहद तीखे ढंग से भावनाओं का ज्वार उड़ेला। यह कहकर कि यह अनुभव का साहित्य है। मैं ही व्यक्त कर सकता हूं। जो मैंने झेला है, सहा है, उसे भला कोई अन्य लेखक कैसे महसूस करेगा? यह ठीक वैसे ही कि दर्पण में वही दिखेगा जो सामने है। जिसके हाथ में दर्पण है, वो वही दिखाएगा जो दिखाना चाहता है। उन्होंने जोर देकर कहा है, दलित साहित्य समाज से अलग बेशक है मगर देश से दूर नहीं। हालांकि, उन्होंने दलित लेखन पर राजनीतिक दबाव की चिंता भी जताई। बोले, भविष्य तभी बेहतर होगा जब उसके पढऩे-लिखने वाले मजबूत होंगे। 

सवाल-जवाब

आत्मप्रकाश मिश्र : यह बेशक शोषितों का साहित्य है, क्या इसमें बड़ी जाति के गरीबों को स्थान मिलेगा?

विवेक कुमार : यह पूरी तरह दलितों के अनुभवों पर आधारित है। इसके लिए संवेदनशील होना जरूरी है। स्थान बेशक मिलेगा मगर मंतव्य भी स्पष्ट होना चाहिए।

आशुतोष शुक्ल : विवेकानंद ने दलितों की व्यथा पर खूब लिखा। अब समाज में भेद नहीं है। रोटी-बेटी के संबंध बढ़े हैं, फिर भेद कहां?

विवेक कुमार : जो बदलाव दिख रहा है वो अपवाद है। दिखावा ज्यादा है। प्राकृतिक बदलाव अभी बाकी है। शोषक कभी शोषित का इतिहास नहीं लिखेगा।

दैनिक जागरण को धन्यवाद

मंथन के दौरान दलितों को लेखन का मंच ने देने के गंभीर आरोप भी लगे। इस सवाल पर विमर्श में पहुंचे दोनों ही वक्ताओं ने दैनिक जागरण की सराहना ही, जो हर वर्ष ही दलित साहित्य को खुला मंच उपलब्ध कराता है।

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