आजादी के संघर्ष की वह वीरांगना जिसने संतानाें सहित स्वयं का दिया बलिदान, चिरकाल तक जीवित रहेगी यह अमर गाथा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र की जिन वीरांगनाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है उनमें पूर्वोत्तर के मिजोरम राज्य की रानी रौपुइलियानी (वर्ष 1825-1895) का नाम अग्रणी है। वह आइजोल के राजा ललसावुङा की पुत्री थीं। स्वतंत्रता के लिए रानी ने अपनी संतानों सहित स्वयं का बलिदान दे दिया।

By Shaswat GuptaEdited By: Publish:Fri, 08 Oct 2021 04:34 PM (IST) Updated:Fri, 08 Oct 2021 04:34 PM (IST)
आजादी के संघर्ष की वह वीरांगना जिसने संतानाें सहित स्वयं का दिया बलिदान, चिरकाल तक जीवित रहेगी यह अमर गाथा
संतानाें सहित स्वयं का बलिदान देने वाली रानी रौपुइलियानी।

[डा. स्वर्ण अनिल]। सन् 1848 में रानी रौपुइलियानी का विवाह दक्षिण मिजोरम के राजा रौलुरहुआ के भतीजे वानदुला से हुआ था। विवाह के बाद राजा ने किसी भी स्थान को अपना स्थायी निवास नहीं बनाया। अपने राज्य के विभिन्न स्थानों की शासन-व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त करने के लिए, अपनी इच्छानुसार वह लोगों के बीच रहते और फिर विश्वसनीय व्यक्तियों को शासन सौंप कर दूसरी जगह चले जाते थे। वर्ष 1859 में वह पति-पत्नी क्रमश: कोमजोल और देङलुङ गांव में रहे।

देङलुङ में प्रवास के दौरान वर्ष 1889 में जब रानी रौपुइलियानी के पति का देहांत हुआ तब उन्होंने अपने सलाहकारों से विचार-विमर्श के अनुसार शासन की सत्ता संभालने का निर्णय किया। लोगों ने सहर्ष रानी रौपुइलियानी को अपनी रानी के रूप में स्वीकार कर लिया। रानी रौपुइलियानी का मुख्य उद्देश्य था अपने स्वर्गीय पति की इच्छाओं के अनुरूप तत्कालीन ब्रिटिश शासन को मिजोरम से खदेडऩा। वह अपनी प्रजा को ब्रिटिश अधिकारियों व मिशनरियों पर विश्वास न करने, लोगों से जबरन गुलामों की तरह काम करवाने और कर वसूलने आदि के विरुद्घ एकजुट होने के लिए उत्प्रेरित करती थीं।

रानी का दृष्टिकोण तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों के प्रति बहुत ही कठोर और निषेधात्मक था। वह कहती थीं, इन फिरंगियों को कोई अधिकार नहीं है जो इस तरह मिजोरम में आकर हमें अपने अधीन करने के लिए राजनीतिक चाल चलें। दरअसल साम्राच्यवादी अंग्रेजों का लक्ष्य तो मिजोरम, बर्मा तथा असम और आसपास के क्षेत्रों को अपने अधीन कर ब्रिटिश साम्राच्य का विस्तार करना था। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने तत्कालीन कई मिजो राजाओं को अधीन करना आरंभ कर दिया था।

रानी रौपुइलियानी ने मरते दम तक फिरंगियों के मंसूबे को पूरा न होने देने की कसम खाई और विरोध का स्वर बुलंद कर दिया। उस समय ब्रिटिश अधिकारी जनरल ट्रीगर आइथूर और आसपास के अन्य छोटे-छोटे गांवों को अपने कब्जे में लेकर रानी की सत्ता और शक्ति को कमजोर करने की साजिश में लगा था।

रानी की छठवी संतान पुत्र दौतोना ने अंग्रेजों की चाल को विफल करने के लिए संघर्ष किया परंतु जनरल की बड़ी सेना के सामने वह और उसके वीर सेनानी अधिक समय तक नहीं टिक पाए। षड्यंत्रकारी जनरल ने गांव आइथूर में उसकी हत्या कर दी।

ब्रिटिश सरकार का एकमात्र लक्ष्य था किसी न किसी बहाने मिजो राजाओं को अपने अधीन करना परंतु रानी के सामने अपनी दाल न गलती देख, अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए अंग्रेजों ने रानी से सुलह करनी चाही। स्थानीय राजाओं ने भी ब्रिटिश सशस्त्र सेना के सामने खुद को लाचार बताकर, रक्तपात से बचने की राय देकर शांति की नीति अपनाने की सलाह दी।

रानी ने समझौता करने वाले राजाओं को बुलाकर कहा, यदि आप चाहें तो संघर्ष का रास्ता छोड़कर उनसे समझौता कर सकते हैं परंतु मैं जीवनभर न अंग्रेजों से समझौता करूंगी न ही उनसे कोई बात। मेरा रास्ता तो प्राण दांव पर लगाकर आमरण संघर्ष का ही होगा। इस घोषणा के बाद रानी ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध करने की तैयारी की। उन्होंने अपने अधीनस्थ राजाओं व प्रजाजनों को एकत्र कर अपने परंपरागत हथियारों और बंदूकों इत्यादि के साथ शूरवीरों के एक बड़े समूह को संगठित किया।

रानी की योजना ब्रिटिश अधिकारियों के पश्चिमी मुख्यालय लुंङलेई पर गुप्त रूप से धावा बोलने की थी परंतु दुर्भाग्यवश गुप्तचरों की सहायता से पश्चिमी लुशाई पर्वतों के अंग्रेज कप्तान एम. सी मुरे को इस योजना की भनक लग गई। रानी अभी तैयारियों में ही लगी थी कि मुरे ने 10 अगस्त,1893 को रानी के गांव पर धावा बोल दिया। इस हमले से संभलने से पहले ही अंग्रेजों ने रानी को उनके छोटे पुत्र ललठुआमा सहित गिरफ्तार करने का प्रयास किया।

मिजोरम की इस सिंहनी ने अंग्रेज सैनिकों का वीरता पूर्वक सामना किया। अंतत: जब वह उनकी कैद में आईं तो उन्होंने मुख्यालय तक पैदल जाने की बात को कठोरता से अस्वीकार कर दिया। अत: रानी को लुङलेई तक पालकी में बिठाकर ले जाना पड़ा। 12 अगस्त, 1893 को रानी को लुङलेई के कारावास में भेजा गया।

ब्रिटिश अधिकारियों ने रानी के सामने विकल्प रखा कि वह यदि ब्रिटिश साम्राच्य द्वारा बनाए गए नियमों को स्वीकार करें और अंग्रेजों से संघर्ष छोड़ दें तो वे उन्हें कैद से आजादी के साथ-साथ उनका राजपाट भी लौटा देंगे। इसके जवाब में रानी ने स्वाभिमान भरा उत्तर दिया, गोरे चाहें तो अपने देश लौट जाएं और जैसे चाहें वैसे वहां राज करें। उनका कोई हक नहीं बनता कि वे हमारे देश में आकर, हम पर हुकूमत करने का दुस्साहस करें। उनके इस उत्तर नें ब्रिटिश अधिकारियों को हैरान कर दिया था।

लुङलेई के बंदी गृह से ही रानी अपने प्रमुख सैनिकों, गांव प्रमुखों, स्थानीय राजाओं को संघर्ष जारी रखने के लिए प्रेरित करती थीं तथा अंग्रेजों पर विश्वास न करने की हिदायत देती थीं। अंग्रेज अधिकारियों नें सतर्कता बरतते हुए रानी को 10 माह वहां रखने के बाद, वहां से पालकी में ही कई दिनों की यात्रा के बाद मंगलवार 18 अप्रैल, सन् 1894 को चटगांव (वर्तमान बांग्लादेश) के बंदी गृह में स्थानांतरित किया। इसी बंदी गृह में पांच महीने के बाद पेट संबंधी बीमारी के कारण तीन जनवरी, 1895 को भोर की बेला में स्वाभिमानी, स्वतंत्रता प्रेमी और देशभक्त रानी रौपुइलियानी ने वीरगति प्राप्त की।

रानी के देहावसान के समाचार के बाद प्रजा में असंतोष की संभावना से आठ जनवरी 1895 को कप्तान जान शेक्सपियर और गार्डन ने कुछ अधिकारियों और 25 सैनिकों को लेकर रानी रौपुइलियानी का शव चटगांव से उनके गांव ले जाकर राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार करने की घोषणा की परंतु उन्हें रानी के स्वामीभक्त शूरवीर योद्धाओं के हाथों प्रिय रानी के पार्थिव शरीर को सौंपना पड़ा। रानी के अत्यंत विश्वासपात्र वीर योद्धा ललरमलियाना के नेतृत्व में रानी के 10 सेनानी, बुधवार 30 जनवरी 1895 को लुङलेई से चटगांव के लिए चल पड़े। वे नौ फरवरी 1895 को चटगांव पहुंचे और जन-जन में स्वतंत्रता की लौ जगाने वाली रानी के पार्थिव शरीर को लेकर बुधवार 22 फरवरी 1895 को रानी के गांव पहुंचे। कृतज्ञ प्रजा ने अपनी परंपराओं के अनुरूप विधिवत उनका अंतिम संस्कार किया।

स्वतंत्रता के लिए अपनी संतानों सहित स्वयं का बलिदान देने वाली स्वाभिमानी, दृढ़ प्रतिज्ञ और अमर वीरांगना रानी रौपुइलियानी की देशभक्ति चिरकाल तक सबके हृदय में जीवित रहेगी।

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