सरकारी नौकरी छोड़ वनटांगिया के जीवन में फैलाते रहे उजाला

वह कहते हैं प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद वनटांगिया गांवों का तेजी से विकास हुआ है लेकिन इनकी भूमि का बंदोबस्त नहीं हो पाया है। अगर भूमि का बंदोबस्त हो जाए तो लगभग पूरी समस्या का समाधान हो जाएगा।

By Navneet Prakash TripathiEdited By: Publish:Mon, 24 Jan 2022 01:03 PM (IST) Updated:Mon, 24 Jan 2022 05:24 PM (IST)
सरकारी नौकरी छोड़ वनटांगिया के जीवन में फैलाते रहे उजाला
वनटांगिया के साथ समस्याओं पर चर्चा करते विनोद तिवारी। जागरण

गोरखपुर, जागरण संवाददाता। कभी जंगलों में बसे वनटांगिया गांवों में आज बिजली है, सड़क है, पानी है और स्कूल भी। पुरुष ही नहीं महिलाएं भी स्वावलंबी हैं। आजादी के छह दशक बाद भी अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष करने वाले इन वनटांगियों की जिंदगी में अब रोशनी है। वर्ष 1984 में तत्कालीन सरकार इन्हें भारतीय गणतंत्र का नागरिक मानने से इन्कार करती थी तो आज की सरकार इनके सुख-दुख का भागी बनी है। खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इनके साथ प्रत्येक वर्ष होली और दीपावली मनाते हैं।

42 सौ परिवारों के लिए बने खुशी की वजह

लगभग 4200 परिवारों में जो खुशियां आई हैं, उनमें सरकार की अहम भूमिका तो है ही, लेकिन एक ऐसा व्यक्ति भी है जिसने अपना जीवन इनकी समस्याओं को सरकार तक पहुंचाने और इन्हें समाज की मुख्यधारा से जोडऩे में खपा दिया। खंड शिक्षा अधिकारी की नौकरी छोड़ विनोद तिवारी आज भी इनके भविष्य को संवारने, अन्य गांवों के लोगों से समरसता और सद्भाव बढ़ाने तथा इनकी भूमि का बंदोबस्त कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वह कहते हैं, प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद वनटांगिया गांवों का तेजी से विकास हुआ है, लेकिन इनकी भूमि का बंदोबस्त नहीं हो पाया है। अगर भूमि का बंदोबस्त हो जाए तो लगभग पूरी समस्या का समाधान हो जाएगा।

15 वर्ष के संघर्ष के बाद दिला सके वनटांगियों को उनका हक

वनटांगिया गांव के लोगों को उनका हक दिलाने तथा समाज की मुख्यधारा में जोडऩे में विनोद तिवारी को 15 वर्ष लग गए। विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान वर्ष 1991 में उन्होंने वनटांगिया के जीवन स्तर को उठाने का जो बीड़ा उठाया, वह वर्ष 2006 में साकार हुआ। वनटांगिया मजदूरों के प्रतिनिधिमंडल से कई दौर की वार्ता के बाद प्रदेश सरकार ने उनको हक देने के लिए अनुसूचित जाति, जनजाति एवं परंपरागत निवासी अधिनियम 2006 बनाने की घोषणा की। वर्ष 2007 में इसकी नियमावली बनाई गई और दिसंबर 2008 में इसे लागू कर दिया गया। इस कानून में व्यवस्था की गई कि तीन पीढिय़ों से जंगल में रहने का प्रमाण देने वाले परिवारों को जंगल की जमीन पर उनका वाजिब हक दिया जाएगा। कानून बनने के बाद भी इसमें रह गईं कुछ तकनीकी खामियों की वजह से वनटांगिया मजदूरों को हक नहीं मिल पा रहा था।

गोरखपुर के मंडलायुक्‍त ने किया था विशेष प्रयास

विनोद तिवारी का संघर्ष जारी रहा। वर्ष 2010 में वनटांगिया मजदूरों की समस्या विनोद तिवारी से समझने के बाद गोरखपुर के तत्कालीन मंडलायुक्त पीके मोहंती और ज्वाइंट मजिस्ट्रेट जीएस नवीन कुमार ने उन्हें हक दिलाने का विशेष प्रयास शुरू किया। अंतत: गोरखपुर के पांच और महराजगंज के 18 गांव राजस्व ग्राम हो गए। विनोद के संघर्ष का ही परिणाम था कि इन मजदूरों को जंगल में जिस भूमि पर रह रहे थे और खेती कर रहे थे, उसके मालिकाना हक से संबंधित दस्तावेज भी वर्ष 2011 में मिल गए। इसके बाद से सरकार ने इन गांवों में मूलभूत सुविधाओं का विकास करना शुरू कर दिया। विद्यालय खुलने लगे और स्वास्थ्य सुविधाएं मिलनी शुरू हो गई।

वनटांगिया के जीवन में ज्योति बनकर आए विनोद

वनटांगिया के जीवन में विनोद ज्योति बनकर आए। कप्तानगंज, कुशीनगर के रामपुर चौबे गांव निवासी विनोद तिवारी वर्ष 1991 में गोरखपुर विश्वविद्यालय में एमए के छात्र थे। जिस दौर में कोई युवा अपने बेहतर भविष्य की चिंता में परेशान रहता है, ठीक उसी दौर में विनोद ने इन मजदूरों के लिए काम करने का फैसला किया। वह इन मजदूरों के बीच गए, उनकी मूलभूत समस्या को जाना-समझा और उनके लिए संघर्ष का बिगुल फूंक दिया। गांधीवादी और योजनाबद्ध ढंग से चलाए गए उनके आंदोलन से प्रदेश के अन्य जिलों के जंगलों में बसे वनटांगिया मजदूर जुडऩे लगे। धीरे-धीरे उनके आंदोलन ने इतना बड़ा रूप अख्तियार कर लिया कि प्रदेश सरकार को उनकी बात सुनने के लिए मजबूर होना पड़ा।

कौन हैं वनटांगिया

अंग्रेजों ने वनों के विकास के लिए वर्ष 1918 में देश में टांगिया पद्धति की शुरुआत की। इसमें वन क्षेत्र की खाली भूमि पर पहले उपयोगी पौधों की नर्सरी तैयार की जाती थी। नर्सरी तैयार होने पर पौधारोपण किया जाता था। वनों की देखभाल करने वाले मजदूरों को ही इस काम में लगा दिया गया। उन्हीं मजदूरों को बाद में वनटांगिया मजदूर कहा जाने लगा। जीविकोपार्जन के लिए इन मजदूरों को वन की कुछ खाली जमीन रहने तथा खेती करने के लिए दी जाती थी। इसके अलावा जंगल की लकडिय़ां काटकर भी वे परिवार का भरण-पोषण करते थे।

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